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फिल्म समीक्षा : औरंगजेब

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-अजय ब्रह्मात्मज  अरसे बाद अनेक किरदारों के साथ रची गई नाटकीय कहानी पर कोई फिल्म आई है। फिल्म में मुख्य रूप से पुरुष किरदार हैं। स्त्रियां भी हैं, लेकिन करवाचौथ करने और मां बनने के लिए हैं। थोड़ी एक्टिव और जानकार महिलाएं निगेटिव शेड लिए हुए हैं। फिल्म में एक मां भी हैं, जो यश चोपड़ा की फिल्मों की मां [निरुपा राया और वहीदा रहमान] की याद दिलाती हैं। सपनों और अपनों के द्वंद्व और दुविधा पर अतुल सभरवाल ने दिल्ली के गुड़गांव के परिप्रेक्ष्य में क्राइम थ्रिलर पेश किया है। यशराज फिल्म्स हमेशा से सॉफ्ट रोमांटिक फिल्में बनाता रहा है। यश चोपड़ा और आदित्य चोपड़ा की देखरेख में इधर कुछ सालों में कॉमेडी या रॉमकॉम भी आए, लेकिन अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी यशराज फिल्म्स की यह प्रस्तुति नयी और उल्लेखनीय है। अतुल सभरवाल ने हमशक्ल जुड़वां अजय और विशाल के लिए अर्जुन कपूर को चुना है। दूसरी फिल्म में ही डबल रोल करते अर्जुन कपूर के एक्सप्रेशन की सीमाओं को नजरअंदाज कर दें तो उन्होंने एक्शन और मारधाड़ दृश्यों में अच्छा काम किया है। अजय बिगड़ैल और दुष्ट मिजाज का लड़का है और विशाल सौम्य और सभ्य दिमाग का..

कान फिल्‍म फेस्टिवल में अमिताभ बच्‍चन का हिंदी संभाषण

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कान फिल्‍म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह में अमिताभ बच्‍चन का हिंदी संभाषण....

दरअसल ...तकनीकी पक्षों की तारीफ

-अजय ब्रह्मात्मज     पिछले दिनों देश के एक मशहूर कैमरामैन से बातें हो रही थीं। पिछले बीस सालों से वे सक्रिय हैं। उन्होंने हिंदी में बनी कुछ लोकप्रिय और खूबसूरत फिल्मों की फोटोग्राफी की है। कहने लगे कि एक तो हम तकनीशियनों से कोई बातें नहीं करता। लोकप्रिय फिल्मों की तारीफ में भी हमारा उल्लेख नहीं होता। दर्शक ढंग से नहीं जानते कि किसी भी फिल्म में हमारा क्या योगदान होता है? मैंने बड़े से बड़े समीक्षकों की फिल्म समीक्षा में फिल्म के तकनीकी पक्षों को चंद वाक्यों में निबटाते देखा है। दर्शकों को जो बताया जाएगा,वही तो वे जानेंगे। ज्यादा से ज्यादा एक फिल्म समीक्षक जब फिल्म के छायांकन की तारीफ करता है तो यही लिखता हैं कि दृश्य बेहद खूबसूरत लगे। अब अगर फिल्म की पृष्ठभूमि में काश्मीर है तो वह खूबसूरत होगा ही। कैमरामैन ने इसमें क्या योगदान किया? इसे समझने और समझाने की जरूरत है।     सिर्फ फोटोग्राफी ही नहीं। हम फिल्मों की समीक्षा या उस पर विमर्श करते समय सिनेमा के तकनीकी पक्षों को आम तौर पर छोड़ देते हैं। हम उनका जिक्र नहीं करते। एडीटिंग,साउंड,कोरियोग्राफी,प्रोडक्शन डिजायनिंग,कास्ट्यूम,मेकअप आदि त

दरअसल ... भारतीय जन-जीवन में सिनेमा

-अजय ब्रह्मात्मज     भारतीय सिनेमा के सौ साल हो गए। सदी बीत गई। सिनेमा ने अगली सदी में प्रवेश कर लिया। भारतीय सिनेमा के इतिहास की इस चाल की धमक हर जगह सुनाई पड़ी। खास कर हिंदी सिनेमा को लेकर ज्यादा चहल-पहल रही। पहुंच और विस्तार में अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक विकसित और व्यापक होने की वजह से यह स्वाभाविक है। कमोबेश सभी क्षेत्रों, समुदायों और देश के समस्त नागरिकों को सिनेमा ने प्रभावित किया है। अगर किसी ने अपनी जिंदगी में केवल एक फिल्म देखी है तो भी वह अप्रभावित नहीं रह सका। सिनेमा का जादू कहावत के मुताबिक सिर चढ़ कर बोलता है। कभी यह जादू हमारे बात व्यवहार में दिखता है तो कभी हमें पता भी नहीं चलता और हम अपने व्यवहार, प्रतिक्रिया और संवेदना में फिल्मी दृश्य का अनुकरण कर रहे होते हैं।     भारतीय परिवेश में सिनेमा हमें बहुत कुछ सिखाता है। प्रेम, संबंध, दोस्ती, नाते-रिश्ते और उनके साथ के अपने व्यवहार में हम फिल्मी चरित्रों की नकल कर रहे होते हैं। प्रेम हिंदी फिल्मों का प्रमुख अवयव है। अपनी जिंदगी में झांक कर देखें तो प्राय: सभी ने किशोर और युवा उम्र में फिल्मी हीरो या हीरोइन की नकल की होगी।

औरत हूं तो सवाल पूछते हैं? -माधुरी दीक्षित

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  शादी के बाद हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियां धीरे-धीरे अनेक प्रकार के दबावों की वजह से रुपहले पर्दे से गायब होने लगती हैं।निर्माता-निर्देशक और दर्शकों की रुचि उनमें कम होने लगती है। उन्हें हिंदी फिल्मों के अभिनेताओं की तरह लंबी उम्र नहीं मिलती। यही वजह है कि कुंवारी रहने पर उम्र बढऩे के साथ उन्हें तवज्जो नहीं दी जाती। अभिनेत्रियां इसे सहज तौर पर स्वीकार करती हैं। अभिनय क्षेत्र में सक्रिय रहने की लालसा रहन परे उन्हें सहयोगी,चरित्र और मां-बहन की भूमिकाएं ही मिल पाती हैं। कुछ ही अभिनेत्रियां अपवाद बन पाती हैं। उन्हें केंद्रीय किरदार मिलते हैं। उन्हें दर्शक भी पसंद करते हैं। उनकी फिल्मों का इंतजार करते हैं। मााधुरी दीक्षित ऐसी अभिनेत्रियों में से एक हैं। अभी वह निर्माता अनुभव सिन्हा की सौमिक सेन निर्देशित गुलाब गैंग में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं।वह अभिषेक चौबे की डेढ़ इश्किया भी कर रही हैं,जिसके निर्माता विशाल भारद्वाज हैं। अभी दो हफ्ते के अंदर 15 मई को अपने जीवन के 46 वसंत पूरे करेंगी। उनकी सक्रियता और समर्पण से अचंभा होता है। सहसा मुंह से निकलता है इस उम्र में भी?

फिल्म समीक्षा : गो गोवा गॉन

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में इन दिनों अनोखे प्रयोग हो रहे हैं। अच्छी बात तो ये है कि उन्हें समर्थन भी मिल रहा है। निर्माता और दर्शकों के बीच इस नए रिश्ते को प्रयोगवादी निर्देशक मजबूत कर रहे हैं। युवा निर्देशकों की जोड़ी राज-डीके जैसे निर्देशक हैं। अपनी नई कोशिश में उन्होंने जोमकॉम पेश किया है। जोम्बी और कॉमेडी के मिश्रण से तैयार यह फिल्म भारत के लिए नई है। अभी तक हम भूत,प्रेत,चुड़ैल और डायन की फिल्मों से रोमांचित होते रहे हैं। लेकिन अब राज-डीके जोम्बी लेकर आए हैं। विदेशों में जोम्बी फिल्में खूब बनती और चलती हैं। जोम्बी अजीब किस्म के प्राणि होते हैं। देखने में वे आदमी की तरह ही लगते हैं,लेकिन संवेदना शून्य और रक्तपिपासु होते हैं। उन्हें विदेशी जोम्बी फिल्मों में विभिन्न रूपों में दिखाया गया है। राज-डीके की गो गोवा गॉन में ड्रग्स के ओवरडोज से आम इंसान जोम्बी में तब्दील होता है। और फिर कोई जोम्बी किसी सामान्य व्यक्ति को काट खाए तो वह भी जोम्बी बन जाता है। जोम्बी मतलब जिंदा लाशें ़ ़ ़ हार्दिक,लव और बन्नी तीन दोस्त हैं। तीनों नई नौकरियों में कार्यरत हैं। आज के कुछ

मटरु की बिजली का मंडोला-विनीत कुमार

चवन्नी के पाठकों के लिए विनीत कुमार का यह लेख…  विशाल भारद्वाज की फिल्म मटरु की बिजली का मंडोला जगह-जगह ऊब और बहुत ही औसत दृश्यांकन के बावजूद बड़े फलक की फिल्म है. लेकिन फिल्म का विस्तार जिस बड़े फलक तक है, ऐसे में ऊब पैदा करनेवाले फ्रेम्स को पीवीआर जैसे थिएटर में बैठकर देखते रहने के बावजूद कोई चाहे तो अर्थशास्त्र या संस्कृति समीक्षा की कक्षाओं में बैठकर व्याख्यायन सुनने के एहसास के साथ बहुत ही सादे ढंग से गुजर सकता है. वैसे भी जहां हर सांस्कृतिक चिन्हों,मानवीय संवेदना और यहां तक कि सरोकार की जमीन को हद तक एक चमकीले उत्पाद में तब्दील किए जाने के बावजूद कुछ चिन्ह अपनी मूल अवस्था में ऊबाउ ही बने रह जाते हैं, इस स्थिति में फिल्म निर्देशक से अतिरिक्त अपेक्षा करने के बजाय हम इसे क्लासरुम के सांस्कृतिक पाठ मानकर ही उससे समझने-गुजरने की कोशिश करें तो इस ऊब में अटके रहने के बजाय बाकी के हिस्सों पर बात कर सकेंगे. ये फिल्म दर्शकों से बीच-बीच में इस “ मेंटल शिफ्टिंग ” मांग करती नजर आती है.  एक तरह से देखें तो मटरु की बिजली का मंडोला के ऊब पैदा करनेवाले दृश्य विषय की उस आदिम अवस्था की

इम्तियाज अली की सिनेमाई चेतना - राहुल सिंह

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चवन्‍नी के पाठकों के  लिए मोहन्ल्‍ला लाइव से साधिकार                                                                                                    सो चा न था कि फकत चार फिल्मों में लगभग एक-सी ‘सिचुएशन्स’ को ‘एक्सप्लोर’ करते हुए, कोई हमारे समय के ‘मेट्रोपोलिटियन यूथ’ की ‘साइकि’ को (खासकर मुहब्बत के मामले) में इस कदर पकड़ सकता है। ‘सोचा न था’ से लेकर ‘रॉक स्टार’ के बीच के फासले को जिस अंदाज में इम्तियाज अली ने तय किया है, वह थोड़ा गौरतलब है। कंटेंट इम्तियाज अली की पहली फिल्म ‘सोचा न था’ का हीरो वीरेन (अभय देओल) एक रीयल स्टेट के समृद्ध कारोबारी परिवार से है। दूसरी फिल्म, ‘जब वी मेट’ में आदित्य कश्यप (शाहिद कपूर) एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट परिवार से है। तीसरी फिल्म, ‘लव आज कल’ में जय (सैफ अली खान) एक कैरियरिस्ट युवक है, जिसके सपने से उसके ‘क्लास’ का पता चलता है। चौथी फिल्म ‘रॉक स्टार’ का जर्नादन जाखड़ उर्फ जार्डन (रणबीर कपूर) एक जबर्दस्त ‘कांप्लिकेटेड मिक्सचर’ है। यह चारों फिल्म इम्तियाज अली की सिनेमाई चेतना के विकास में, अब तक आये चार पड़ावों की तरह है। इसमे

बलराज साहनी पर विष्णु खरे

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए बुद्धू-बक्‍सा से साभार...  [शायद मुट्ठी भर से भी कम लोगों को इसका भान होगा कि ठीक आज से बलराज साहनी की जन्मशती शुरू हो रही है. इस मौके पर विष्णु खरे ने एक बहुत संगठित और जानकारियों से भरा हुआ आलेख लिखा है, जो आज के 'नवभारत टाईम्स' में प्रकाशित है. हिन्दी सिनेमा के ठप्पों को बेहद लफ्फाज़ी और बेतुके तरीकों से याद करने का प्रचलन हिन्दी में चल पड़ा है, जिससे सिनेमा लेखन का जो नुकसान होना होता है वह हो ही रहा है, साथ ही साथ सिनेमा का भी हो रहा है. फ़िर भी, इस विषयान्तर तर्क को सही मानते हुए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे की इस अनन्य अनुमति को आभार के साथ आपके साथ साझा करता है.] संभव है आज की औसत युवा पीढ़ी उनका नाम और चेहरा न जानती हो, शायद जानना भी न चाहती हो क्योंकि उसके काबिल न हो, लेकिन चालीस साल पहले, जब वह साठ वर्ष के होने ही जा रहे थे, बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) के नितांत असामयिक और अन्यायपूर्ण निधन ने देश के करोड़ों सिने-दर्शकों को स्तब्ध और बेहद रंज़ीदा कर दिया था. त्रासद विडंबना यह थी कि एम.एस.सत्यु की कालजयी फिल्म “गर्म