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फारुख शेख : आम हैं, अशर्फियाँ नहीं

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वरुण ग्रोचर का यह संस्‍मरण moifightclub से लिया गया है। आम हैं, अशर्फियाँ नहीं “अरे और लीजिये! आम भी कोई गिन के खाता है क्या? आम है, अशर्फियाँ नहीं.” फारूख शेख साब हमें अपने गुजरात के बगीचे के आम (जो बहुत ही कायदे से छीले और बराबर चौकोरों में काटे गए थे) खाने को कह रहे थे और मुझे लग रहा था जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब कलकत्ता में हुगली किनारे बैठ कर, किसी बोर दोपहरी में अपने किसी दोस्त से बात कर रहे हों. यह हमारी उनके साथ पहली मुलाक़ात थी. हम माने चार लोग – जिस बंडल फिल्म को उन्होंने ना जाने क्यों हाँ कह दिया था, उसका डायरेक्टर, उसके दो संवाद लेखक (मैं और राहुल पटेल), और एक प्रोड्यूसर. हम चारों का कुल जमा experience, उनके बगीचे के बहुत ही मीठे आमों से भी कम रहा होगा लेकिन उतनी इज्ज़त से कभी किसी ने हमें आम नहीं खिलाये थे. और जब मैं यह सोचने लगा कि यह ‘किसी ने’ नहीं, फारुख शेख हैं – ‘कथा’ का वो सुन्दर कमीना बाशु, ‘चश्मे बद्दूर’ का पैर से सिगरेट पकड़ने वाला सिद्धार्थ (Ultimate मिडल क्लास हीरो – थोड़ा शर्मीला, थोड़ा चतुर, थोड़ा sincere, थोड़ा पढ़ाकू, और थोड़ा male-ego से ग्रसित), ‘गरम ह

फारुख शेख : जीवन और अभिनय में रही नफासत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                  उनसे मिलने के बाद आप उनके प्रशंसक हुए बिना नहीं रह सकते थे। शालीन, शिष्ट, अदब, इज्जत और नफासत से भरा उनका बात-व्यवहार हिंदी फिल्मों के आम कलाकारों से उन्हें अलग करता था। उन्हें कभी ओछी, हल्की और निंदनीय बातें करते किसी ने नहीं सुना। विनोदप्रिय, मिलनसार और शेर-ओ-शायरी के शौकीन फारुख शेख ने अपनी संवाद अदायगी का लहजा कभी नहीं छोड़ा। पहली फिल्म 'गर्म हवा' के सिकंदर से लेकर 'क्लब 60' तारीक तक के उनके किरदारों को पलट कर देखें तो एक सहज निरंतरता नजर आती है।                वकील पिता मुस्तफा शेख उन्हें वकील ही बनाना चाहते थे, लेकिन कॉलेज के दिनों में उनकी रुचि थिएटर में बढ़ी। वे मुंबई में सक्रिय इप्टा [इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन] के संपर्क में आए और रंगमंच में सक्रिय हो गए। उनकी इस सक्रियता ने ही निर्देशक एमएस सथ्यू को प्रभावित किया। इप्टा के सहयोग से सीमित बजट में बन रही 'गर्म हवा' में उन्हें सलीम मिर्जा के प्रगतिशील बेटे सिकंदर की भूमिका सौंपी गई। पिछले दिनों एमएस सथ्यू ने 'गर्म हवा' के कलाकारों के स्वाभावि

फिल्‍म समीक्षा : महाभारत (एनीमेशन)

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  साधारण कोशिश  -अजय ब्रह्मात्‍मज  एनीमेशन फिल्म 'महाभारत' की एकमात्र खूबी इसके परिचित चरित्रों को मिली पापुलर कलाकारों की आवाज है। अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, मनोज बाजपेयी, विद्या बालन, सनी देओल, जैकी श्रॉफ, अनुपम खेर आदि ने विभिन्न चरित्रों को आवाज दी है। साथ ही उन चरित्रों को कलाकारों का चेहरा भी दिया गया है। 'महाभारत' कॉस्ट्यूम ड्रामा होता तो इन कलाकारों को परिचित चरित्रों के रूप में स्वीकार करने में दिक्कत नहीं होती। उनके भावहीन चेहरे मुखौटे की तरह लगते हैं। एनीमेशन में परिचित कलाकारों को कॉस्ट्यूम में देखना आंखें को नहीं रमता। इस फिल्म में एनीमेशन में अधिक मेहनत नहीं की गई है। संवादों में व्यक्त भाव चेहरे पर नहीं दिखाई पड़ते। ऐसा लगता है कि साधारण तरीकेसे फिल्म पूरी कर दी गई है। हालांकि आज की पीढ़ी से जोड़ने की कोशिश आरंभ और अंत के दृश्यों में दिखाई पड़ती है, लेकिन क्या 'महाभारत' सिर्फ दो भाइयों की लड़ाई की कहानी है? 'महाभारत' की परिचित कथा को संक्षेप में पेश करने में लेखक-निर्देशक ने ज्ञात और लोकप्रिय घटनाओं को ही शामिल किया है। फिल्

दरअसल : साल 2013-मेरी पसंद की 12 फिल्में

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज    पांच दिनों में 2013 बीत जाएगा। हम 2014 की फिल्मों के बारे में बातें करने लगेंगे। नई उम्मीदें होंगी। नए किस्से होंगे और आएंगी नई फिल्में। इस साल रिलीज हुई फिल्मों को पलट कर देखता हूं तो कुछ फिल्मों को उल्लेखनीय पाता हूं। मेरी पसंद की ये 10 फिल्में हैं। फिल्मों की चर्चा में मैंने कोई क्रम नहीं रखा है। सालों बाद जब 2013 की बात होगी तो मुमकिन है कि इनमें से कुछ फिल्में याद की जाएं। अगर आप ने ये फिल्में न देखी हो तो अवश्य देख लें। अभी तो डीवीडी पर पसंद की फिल्में देखना आसान हो गया है।     मेरी पसंद की फिल्मों में छोटी-बड़ी हर तरह की फिल्में हैं। मैंने फिल्म के बाक्स आफिस कलेक्शन पर ध्यान नहीं दिया है। उस लिहाज से बात करने पर तो अधिकतम कमाई की फिल्मों तक सिमट जाना होगा। ऐसी कामयाब फिल्मों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। उन फिल्मों के भी दर्शक हैं। उन्हें अपनी पसंद की फिल्में मिलनी चाहिए। सिनेमा की पहली शर्त मनोरंजन है। मनोरंजन के मानी सीमित कर दिए गए हैं। मनोरंजन का शाब्दिक अर्थ मन के रंजन से है, लेकिन इसके निहितार्थ पर विचार करें तो बाकी गुणों पर भी विचार करना होग

Irrfan Khan: Defying Definition

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                              by Sohini Mitter Irrfan Khan resists being labelled. It is limiting, says the actor, whose search for more meaningful roles continues despite the overwhelming affirmation from critics and audiences alike A way from the hustle and bustle of mainland Mumbai rests a quiet stretch of land dotted with leafy palm trees that sway in the winter breeze and monstrous old buildings that are being renovated into hotels, resorts or residential complexes. Called Madh Island, the area is not only far but also far removed from B-town’s usual cacophony. Its famous resident, Irrfan Khan, is looking for just that. Cut off from what he calls the corrupting influence of “a movie-city like Bombay” on an artist, Irrfan, 46, inhabits—and defines—a world of his own, just like in his movies. Dressed impeccably in a white blazer and slim-fit grey trousers, beard trimmed to perfection, hands gently rolling a cigarette—something he “g

2013 Rewind – 15 Film Fanatics on 17 Terrific Films That Have Stayed With Them

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चवन्‍न्‍ाी के पाठ‍कों के लिए.... Posted: December 23, 2013 by moifightclub in cinema , film , Movie Recco , Must Watch , World Cinema , Year end special Tags: Bekas , Bombay Talkies , Chitrangada , Goynaar baksho , Ilo Ilo , Jai Bhim Comrade , New World , Qissa , Rush , Soodhu Kavvum , The Congress , The Disappearance of Eleanor Rigby , The Great Beauty , The Hunt , Titli , Wajda 6             5 Votes The brief was the same this year. A mail was sent to the usual cinema comrades who write, contribute, and help in running this blog. It went like this – a) Close your eyes b) Think of all the films you have seen in 2013 – released/unreleased/long/short/docu/anything c) Think what has stayed back with you – impressed/touched/affected/blew d) Write on it and tell us why. Ponder like Jep Gambardella in right gif, and write about the joy you experienced like the left gif.          Almost everyone wanted to write about The

बगावत कर फिल्‍मों में आई- नम्रता राव

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  चवन्‍नी के पाठकों के लिए यह लेख फिल्‍म सिनेमा से साभार लिया गया है।  -गजेन्‍द्र सिंह भाटी  मनीष शर्मा की फ़िल्म ‘ शुद्ध देसी रोमैंस ’ की एडीटर नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘ बैंड बाजा बारात ’ और ‘ लेडीज वर्सेज रिकी बहल ’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी. में नौकरी के बाद कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ ओए लक्की! लक्की ओए! ’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘ इश्किया ’, ‘ लव से-क्-स और धोखा ’, ‘ शंघाई ’ और ‘ जब तक है जान ’ एडिट कीं। ‘ कहानी ’ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60 वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए यह साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है। जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः कहां जन्म हुआ ? बचपन कैसा था ? घर व आसपास का माहौल कैसा