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फिल्‍म समीक्षा : वन नाइट स्‍टैंड

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क्षणिक सुख अंतिम सच नहीं -अमित कर्ण मौजूदा युवा वर्ग रिश्‍तों से जुड़े कठिन सवालों से चौतरफा घिरा हुआ है। वे प्यार चाहते हैं, पर समर्पण एकतरफा रहने की अपेक्ष करते हैं। कई युवक-युवतियां प्यार, आकर्षण व भटकाव के बीच विभेद नहीं कर पा रहे हैं। ढेर सारे लोग बेहद अलग इन तीनों भावनाओं को एक ही चश्‍मे से देख रहे हैं। यह फिल्म उनके इस अपरिपक्व नजरिए व उससे उपजे नतीजों को सबके समक्ष रखती है। यह साथ ही शादीशुदा रिश्‍ते के प्रति लोगों की वफादारी में आ रही तब्दीली की वस्‍तुस्थिति से अवगत करवाती है। यह उनकी लम्हों में की गई खता के परिणाम की तह में जाती है। हिंदी सिने इतिहास में ऐसा कम हुआ है, जब मर्द की बेवफाई को औरत की नजर से पेश किया गया हो। उस कसूर को औरत के नजरिए से सजा दी गई हो। जैसा ‘कभी अलविदा ना कहना’ में था। इस फिल्म की निर्देशक जैस्मिन मोजेज डिसूजा यहां वह कर पाने में सफल रही हैं। इस फिल्म का संदेश बड़ा सरल है। वह यह कि क्षणिक सुख को अंतिम सत्य न माना जाए।     कहानी शादीशुदा युवक उर्विल, अजनबी सेलिना के भावनाओं में बहकर जिस्मानी संबंध बना लेने से शुरू होती है। सेलिना उस संबं

फिल्‍म समीक्षा : ट्रैफिक

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स्‍पीड और भावनाओं का रोमांच -अजय ब्रह्मात्‍मज मलयालम और तमिल के बाद राजेश पिल्‍लई ने ‘ ट्रैफिक ’ हिंदी दर्शकों के लिए निर्देशित की। कहानी का लोकेशन मुंबई-पुणे ले आया गया। ट्रैफिक अधिकारी को चुनौती के साथ जिम्‍मेदारी दी गई कि वह धड़कते दिल को ट्रांसप्‍लांट के लिए निश्चित समय के अंदर मुंबई से पुणे पहुंचाने का मार्ग सुगम करे। घुसखोर ट्रैफिक हवलदार गोडबोले अपना कलंक धोने के लिए इस मौके पर आगे आता है। मुख्‍य किरदारों के साथ अन्‍य पात्र भी हैं,जो इस कहानी के आर-पार जाते हैं। मलयालम मूल देख चुके मित्र के मुताबिक लेखक-निर्देशक ने कहानी में काट-छांट की है। पैरेलल चल रही कहानियों को कम किया,लेकिन इसके साथ ही प्रभाव भी कम हुआ है। मूल का खयाल न करें तो ‘ ट्रैफिक ’ एक रोमांचक कहानी है। हालांकि हम सभी को मालूम है कि निश्चित समय के अंदर धड़कता दिल पहुंच जाएगा,फिर भी बीच की कहानी बांधती और जिज्ञासा बढ़ाती है। फिल्‍म शाब्दिक और लाक्षणिक गति है। हल्‍का सा रहस्‍य भी है। और इन सब के बीच समर्थ अभिनेता मनोज बाजपेयी की अदाकारी है। मनोज अपनी हर भूमिका के साथ चाल-ढाल और अभिव्‍यक्ति बदल देते ह

हालात से क्‍यों हारे मेरा हौसला : अरविंद स्वामी

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-स्मिता श्रीवास्‍तव अभिनेता अरविंद स्वामी बचपन में डॉक्टर बनने की ख्वाहिश रखते थे। हीरो बनने की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। किस्मत ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि मणिरत्नम उन्‍हें  चकाचौंध की दुनिया में ले आए। ‘बांबे’ और ‘रोजा’ में उनका संवेदनशील अभिनय दर्शकों को भाव-विभोर कर गया। वर्ष 2000 में रिलीज हिंदी फिल्म ‘ राजा को रानी से प्यार हो गया ’ में आखिरी बार सिल्वर स्क्रीन पर नजर आए। उसे बाद एक दशक से ज्‍यादा समय तक वह सिनेमा से दूर रहे। इस दौरान एक दुर्घटना में उनकी रीढ़ की हड्डी को गंभीर चोट पहुंची। उनके पैर को आंशिक रूप से लकवा मार गया। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। मजबूत जिजिविषा की बदौलत करीब तीन साल पहले मणिरत्नम की तमिल फिल्म कडिल से उन्होंने वापसी की। ‘ डियर डैड ’ में वह पिता की भूमिका में दिखेंगे। बतौर निर्देशन तनुज भ्रामर की यह डेब्यू फिल्म है। स्क्रिप्‍ट देख्‍कर करता हूं फिल्‍में अरविंद बताते हैं ,‘ ‘ मैं कमर्शियल या बॉक्‍स आफिस ध्‍यान में रखकर फिल्में नहीं करता। किसी ने मुझसे पूछा कि डैड बनकर वापसी क्यों ? मेरा जवाब था ‘बांबे’ में 22 साल की उम्र में जुड़वा बच्चों

दरअसल : मोरना में सलमान खान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले महीने सलमान खान अपनी निर्माणाधीन फिल्‍म ‘ सुल्‍तान ’ की शूटिंग के लिए मुजफ्फरनगर के मोरना गए थे। फिल्‍म के निर्देशक अली अब्‍बास जाफर ने वहां की शूटिंग प्‍लान की थी। यशराज फिल्‍म्‍स के कर्ता-धर्ता आदित्‍य चोपड़ा की सहमति से ही यह संभव हुआ होगा। एक हफ्ते पहले से अखबार के मेरे साथियों की जिज्ञासा आने लगी थी कि शूटिंग की सही जानकारी मिल जाए।उनकी गतिविधि के बारे में पता चल जाए। और अगर मुमकिन हो तो शूटिंग के दौरान की तस्‍वीरों और रिपोर्ट का रास्‍ता निकल आए। तमाम कोशिशों और आग्रह के बावजूद ऐसा नहीं हो सका। यह स्‍वाभाविक है। मुझे भी कई बार लगता है कि शूटिंग के दरम्‍यान दर्शकों और प्रशंसकों को शूटिंग घेरे में नहीं आने देना चाहिए। प्रशंसकों में कौतूहल होता है। वे परिचित स्‍टार को देखने के सुख और उल्‍लास की ललक में भीड़ बढ़ा देते हैं। निश्चित समय में अपना काम पूरा करने के उद्देश्‍य से गई फिल्‍म यूनिट स्‍टार और दर्शकों के मेल-मिलाप और सेल्‍फी की मांग पूरी करने लगे तो सारा समय यों ही बीत जाएगा। मुंबई और दिल्‍ली के दर्शक-प्रशंसक आए दिन फिल्‍म स्‍टारों को यहां-

सब पर चढ़ा पहला नशा - फराह खान

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-स्मिता श्रीवास्‍तव  फराह खान हरफनमौला है। निर्माता निर्देशक , कोरियोग्राफर होने के साथ ट्रिपलेट की मां भी हैं। वह अपनी प्रोफेशनल और कमर्शियल लाइफ में संतुलन साध कर चल रही हैं। पिछले दिनों उन्होंने विशाल भारद्वाज की पीरियड फिल्म ‘ रंगून ’ के लिए एक गाना कोरियोग्राफ किया है। साथ ही अपनी अगली फिल्म की तैयारी में जुटी हैं। हालांकि इस मुकाम पर पहुंचने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया है। पिछले दिनों मुंबई में आयोजित मास्‍टर क्‍लास में उन्‍होंने जीवन के कई पहलुओं पर विस्‍तार से चर्चा की। फराह ने बताया , मेरे फिल्मों में आने से पहले पिता का निधन हो गया था। वह 50 और 60 के दौर में फिल्म निर्माता हुआ करते थे। मेरी मौसी हनी ईरानी और डेजी ईरानी सुपर चाइल्ड स्टार थे। हनी ईरानी के पति जावेद अख्तर थे। वे सब बेहतर स्थिति में थे। जबकि हम गरीब थे। हम सब उनकी रहनुमाई पर रहते थे। वे हमारे स्कूल की फीस देते थे। उस समय टीवी , आईपैड या इंटरनेट नहीं था। घर में फिल्मी माहौल रहता था। भाई साजिद 80 के दौर में फिल्मों का इनसाइक्लोपीडिया हुआ करता था। मैंने जलवा से बतौर बैकग्राउंड डांसर अपनी शुरुआत

हारने की हिम्‍मत है - मनोज बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मनोज बाजपेयी की पिछली फिल्‍म ‘ अलीगढ़ ’ से मिल रही तारीफ का सिलसिला अभी खत्‍म भी नहीं हुआ कि उनकी अगली फिल्‍म ‘ ट्रैफिक ’ का ट्रेलर आ गया। उन्‍होंने पिछली मुलाकात में कहा था कि उनकी तीन फिल्‍में तैयार हैं। वे रिलीज के विभिन्‍न चरणों में हैं। मनोज बाजपेयी ने अपनी व्‍यस्‍तता और पसंद का तरीका चुन लिया है। वे चुनिंदा फिल्‍मों में काम करते हैं। वे कहते हैं कि कोई भी फिल्‍म करने से बेहतर घर में बेकार बैठना है। यह पूछने पर कि क्‍या यह बात लिखी जा सकती है ? वे बेधड़क कहते हैं, ’ क्‍यों नहीं ? सच्‍चाई लिख देने में क्‍या दिक्‍कत है ?’ हमारी बातचीत ‘ ट्रैफिक ’ पर होती है। इस फिल्‍म के ट्रेलर में वे बिल्‍कुल अलग भूमिका में नजर आ रहे हैं। फिल्‍म के बारे में वे बताते हैं, ’ इस फिल्‍म में जीवन बचाने का संघर्ष है। इस संघर्ष के साथ अनेक जिंदगियां जुड़ी हुई हैं। मैं ‘ ट्रैफिक ’ में एक र्टैफिक हवलदार का रोल कर रहा हूं। जिंदगी में उसने केवल एक गलती की है,जिसका वह पश्‍चाताप कर रहा है। ‘ हिंदी में आ रही यह फिल्‍म पहले मलयालम और तमिल में बन चुकी है। दोनों ही भाषाओं मे

अब सिनेमा से नदारद मेहनतकशों की कहानी

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-अमित कर्ण फैज अहमद फैज की गजल की एक पंक्ति है, ‘ हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे , इक खेत नहीं , इक देश नहीं , हम सारी दुनिया मांगेंगे ।‘ लब्बोलुआब यह कि कायदे से प्राकृतिक संसाधनों से लेकर दुनिया के तमाम सुख-साधनों पर पहला हक मजदूर वर्ग का होना चाहिए। हकीकत कुछ और है। वे हर तरफ से धकेले जाते रहे हैं। हर सदी में उनकी हैसियत लाचार शख्स की रही है। दुर्भाग्‍य से आज हालात और बदतर ही हुए हैं। वे समाज के साथ-साथ साहित्‍य व सिनेमा में भी हाशिए पर हैं। एक दौर था, जब मजदूरों के संघर्ष को लेकर बनी ‘दो बीघा जमीन’   ने पुरस्‍कारों की झड़ी लगा दी थी। कैदियों को श्रम की राह पर ला सुधारने की कहानी कहने वाली ‘दो आंखें बारह हाथ’ सैमुअल गोल्‍्डविन पुरस्कार मिला था। वह भी चार्ली चैप्लिन की ज्यूरी वाली टीम ने। ‘नया दौर’ में इंसान बनाम मशीन का मुद्दा केंद्र में था। वह बीआर चोपड़ा की सर्वोत्‍तम फिल्‍मों में से एक मानी गई। फिल्‍म में मशीनों पर मानवों की जीत दिखाई गई थी। उस जमाने का हीरो सिक्स पैक या आठ पैक वाला पहलवान नहीं होता था। हाफ स्लीव की कमीज वाला नायक ‘सब जन हिताय, सब जन स

63rd national film awards

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63rd NATIONAL FILM AWARDS FOR 2015 FEATURE FILMS S.No. Name of Award Name of Film Awardees Medal Citation & Cash Prize 1. BEST FEATURE BAAHUBALI Producer : SHOBU Swarna Kamal An imaginative film and FILM YARLAGADDA AND and monumental by its production ARKA values and cinematic brilliance MEDIAWORKS (P) 2,50,000/- in creating a fantasy world on LTD. each to screen. the Producer and Director : S.S Director RAJAMOULI (CASH COMPONENT TO BE SHARED) 2.