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मदारी का गीत डम डमा डमडमडम

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आलोक धन्‍वा कहते हैं कि अगर हिंदी फिल्‍मों के गीतों को सुनने के साथ पढ़ा भी जाए तो उनके नए अर्थ निकलेंगे। मदारी का यह गीत पाठकों और दर्शकों से पढ़ने की मांग करता है। आप निजी भाष्‍य,व्‍याख्‍या और अभिप्रेत के लिए स्‍वतंत्र है।  फिल्‍म - मदारी गीतकार - इरशाद कामिल निर्देशक - निशिकांत कामत कलाकार - इरफान खान डमा डमा डम 
 डमडम डमडम 
 डमा डमा डम 
 डमडम डमडम 
 डमा डमा डम 
 डमडम डमडम डू टी वी पे ये ख़बर भी आनी करके जनहित में क़ुर्बानी गये मंत्री जंगल पानी रे … डमा डमा डम 
 डमडम डमडम 
 डमा डमा डम 
 डमडम डमडम 
 डमा डमा डम 
 डमडम डमडम डू ... फटा फटाफट गुस्सा करके मिला मिलावट मन में भरके बना बनावट करके बैरी तू … औसत बन्दा भूखा मर गया तेरा चमचा खेती चर गया संसद बैठा खाये चैरी तू … जैसे पहले लगी पड़ी थी वैसे अब भी लगी पड़ी है ये राजा भी निरा लोमड़ी है लाल क़िले का हाल वही है कोई पैजामा पहन खड़ा या

ले लिया है चैलेंज : शाहिद कपूर

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‘ -स्मिता श्रीवास्‍तव शाहिद कपूर लगातार वरायटी रोल कर रहे हैं। खासकर वैसे युवाओं का, जो किन्हीं कारणों से ‘भटका’ हुआ या बागी है। मिसाल के तौर पर ‘ हैदर ’ में बागी युवक। अब ‘ उड़ता पंजाब ’ में वह भटके हुए रॉक स्टार की भूमिका में हैं। ‘हैदर’ में किरदार को रियल टच देने के लिए उन्होंने सिर मुंडवाया था। यहां उनके लंबे बाल हैं। शरीर पर टैटूओं की पेंटिंग है। साथ में ज्वैलरी है।         शाहिद कहते हैं , ‘‘ लोग मुझे ऐसी फिल्में करने से मना करते हैं। उनकी दलील रहती है कि पता नहीं वैसी फिल्मों की कितनी आडियंस होगी। मेरा मानना है अगर कहानी उम्दा हो , उसमें इमोशन और एंटरटेनमेंट हो तो उम्मीद से अधिक आडियंस उसे देखती है। साथ ही कहानी अच्छी से कही गई हो तो। आडियंस अब उम्दा कहानियां ही देखना चाहती है।‘ एक वक्त ऐसा भी था जब ‘उड़ता पंजाब’ खटाई में पड़ गई थी। दरअसल , मैंने स्वीकृति दे दी थी। बाकी तीन किरदारों को लेकर कलाकार संशय में थे। वे फैसला नहीं कर पा रहे थे कि करे या न करें। यह फैसला आसान भी नहीं था। यह जोखिम भरा कदम था। मुझे लगा यह सुअवसर है। दर्शकों ने मुझे इस अवतार में न देखा

दरअसल : हो सकता है एक और विवाद

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अभिषेक चौबे की ‘ उड़ता पंजाब ’ पर हाई कोर्ट की सुनवाई से आई खबरों को सही मानें तो केवल एक कट के साथ फिल्‍म रिलीज करने का आदेश मिल जाएगा। पिछले दिनों यह फिल्‍म भयंकर विवाद में रही। फिल्‍म के निर्माताओं में से एक अनुराग कश्‍यप ने सीबीएफसी की आरंभिक आपत्ति के बाद से ही मोर्चा खोल लिया था। सीबीएफसी के पुराने अनुभवों और गुत्थियों की जानकारी होने की वजह से उनके पार्टनर ने अनुराग कश्‍यप को सामने कर दिया था। उन्‍होंने सलीके से अपना विरोध जाहिर किया। और सीबीएफसी के खिलाफ फिल्‍म इंडस्‍ट्री को लामबंद किया। फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कुछ संगठन साने आए। सभी फिल्‍मों को अनुराग कश्‍यप जैसा जुझारू और जानकार निर्माता नहीं मिलता। ज्‍यादातर लोग सिस्‍टम से टकराने या उसके आगे खड़े होने के बजाए झुक जाना पसंद करते हैं। ‘ उड़ता पंजाब ’ ने निर्माताओं का राह दिखाई है कि अगर उन्‍हें अपनी क्रिएटिविटी और फिल्‍म पर यकीन है तो तो वे इसी सिस्‍टम में अपनी लड़ाई लड़ कर विजय भी हा‍सिल कर सकते हैं। दरअसल,ज्‍यादातर निर्माता पर्याप्‍त तैयारी और समय के साथ फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड नहीं आते। फिल्‍

फिल्‍म समीक्षा : धनक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज नागेश कुकुनूर की ‘ धनक ’ छोटू और परी भाई-बहन की कहानी है। वे अपने चाचा-चाची के साथ रहते हैं। चाचा बीमार और निकम्‍मे हें। चाची उन्‍हें बिल्‍कुल पसंद नहीं करती। उनके जीवन में अनेक दिक्‍कतें हैं। भाई-बहन को फिल्‍मों का शौक है। उनके अपने पसंदीदा कलाकार भी है। बहन शाह रुख खान की दीवानी है तो भाई सलमान खान को पसंद करता है। अपने हिसाब से वे पसंदीदा स्‍टारों की तारीफें करते हें। और उनसे उम्‍मीदें भी पालते हैं। भाई की आंखें चली गई हैं। बहन की कोशिश है कि भाई की आंखों में रोशनी लौटे। पिता के साथ एक फिल्‍म देखने के दौरान बहन को तमाम फिल्‍मी पोस्‍टरों के बीच एक पोस्‍टर दिखता है। उस पोस्‍टर में शाह रुख खान ने नेत्रदान की अपील की है। यह पोस्‍टर ही परी का भरोसा बन जाता है। घर की झंझटों के बीच परी और छोटू का उत्‍साह कभी कम नहीं होता। उनका आधा समय तो सलमान और शाह रुख में कौन अच्‍छा के झगड़े में ही निकल जाता है। छोटू जिंदादिल और प्रखर लड़का है। उसे किसी प्रकार की झेंप नहीं होती। हमेशा दिल की बात कह देता है। सच बता देता है। परी और छोटू को पता चलता है कि जैसलमेर में शा

फिल्‍म समीक्षा : उड़ता पंजाब

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-अजय ब्रह्मात्‍मज (हिंदी फिल्‍म के रूप में प्रमाणित हुई ‘ उड़ता पंजाब ’ की मुख्‍य भाषा पंजाबी है। एक किरदार की भाषा भोजपुरी है। बाकी संवादों और संभाषणों में पंजाबी का असर है।) विवादित फिल्‍मों के साथ एक समस्‍या जुड़ जाती है। आम दर्शक भी इसे देखते समय उन विवादित पहलुओं पर गौर करता है। फिल्‍म में उनके आने का इंतजार करता है। ऐसे में फिल्‍म का मर्म छूट जाता है। ‘ उड़ता पंजाब ’ और सीबीएफसी के बीच चले विवाद में पंजाब,गालियां,ड्रग्‍स और अश्‍लीलता का इतना उल्‍लेख हुआ है कि पर्दे पर उन दृश्‍यों को देखते और सुनते समय दर्शक भी जज बन जाता है और विवादों पर अपनी राय कायम करता है। फिल्‍म के रसास्‍वादन में इससे फर्क पड़ता है। ‘ उड़ता पंजाब ’ के साथ यह समस्‍या बनी रहेगी। ‘ उड़ता पंजाब ’ मुद्दों से सीधे टकराती और उन्‍हें सामयिक परिप्रेक्ष्‍य में रखती है। फिल्‍म की शुरूआत में ही पाकिस्‍तानी सीमा से किसी खिलाड़ी के हाथों से फेंका गया डिस्‍कनुमा पैकेट जब भारत में जमीन पर गिरने से पहले पर्दे पर रुकता है और उस पर फिल्‍म का टायटल उभरता है तो हम एकबारगी पंजाब पहुंच जाते हैं। फिल्‍म के टाय

सवाल पूछना मेरे सिस्‍टम में है - निशिकांत कामत

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यकीन करते हैं इरफान इरफान और मैंने १९९४ में एक साथ काम किया था। तब मैं नया-नया डायरेक्टर बना था। इरफान भी नए-नए एक्टर थे। वह तब टीवी में काम करते थे। उसके चौदह साल बाद   हम ने मुंबई मेरी जान में काम किया। अभी तकरीबन सात साल बाद मदारी में फिर से साथ हुए। हमारी दोस्ती हमेशा से रही है। एक दूसरे के प्रति परस्पर आदर का भाव रहा है। इत्तफाक की बात है कि मदारी की स्क्रिप्ट मेरी नहीं थी। इरफान ने यह स्क्रिप्ट रितेश शाह के साथ तैयार की थी। एक दिन इरफान ने मुझे फोन किया कि एक स्क्रिप्ट पर बात करनी है। वह स्क्रिप्ट मदारी की थी। इरफान साहब को लगा कि मदारी मुझे डायरेक्ट करनी चाहिए। इस तरह मदारी की प्रक्रिया शुरू हुई। इस बातचीत के छह महीने बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई। मेरे लिए यह अब तक की सबसे जटिल स्क्रिप्ट यह मल्टीलेयर फिल्‍म है। मैं कई बार स्क्रिप्ट पढ़ चुका था। मैं स्क्रिप्ट हर सिरे और लेयर को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। डर था कि कहीं कुछ मिस तो नहीं हो रहा है। मदारी की कहानी एक स्‍तर पर यह बाप और बेटे की कहानी है। उनका मजबूत रिश्ता होता है। जब नया बच

सबसे अलग है सोनम -उमाशंकर सिंह

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 -उमाशंकर सिंह सोनम के व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं युवा फिल्म लेखक उमाशंकर सिंह। पत्रकारिता के रास्ते फिल्मों में आए उमाशंकर सिंह की लिखी पहली फिल्म ‘डॉली की डोली’ में सोनम कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। सोनम कपूर को मैंने ज्यादातर हिंदुस्तानियों की तरह तब ही जान ही लिया था जब वह फिल्मों में भी नहीं आई थी। पर्सनली तब जाना जब मैं फिल्मों में आया ही आया था। अरबाज भाई ‘दबंग- 2 ’ के बाद हमारी स्क्रिप्ट को हां कर चुके थे। पर वह हीरोइन ओरियेंटेड फिल्म थी। वैसी फिल्मों के अपने जाखिम होते हैं। वे हीरोइनें जो इंडस्ट्री में फेमनिज्म का झंडा बुलंद करती रहती हैं। वे भी ऐसी जोखिम उठाने से बचती हैं और बड़ा स्टार , तीन सीन , चार गाने वाली सेफ फिल्म चुनती हैं। एक तो हीरोइन ओरियंटेड ट्रिकी स्क्रिप्ट , उस पर से फर्स्ट टाइमर रायटर और फर्स्ट टाइमर डायरेक्टर। एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। उन दिनों हम अपनी कास्टिंग को लेकर परेशान थे। कई नाम उछले , पर सब में हमें कुछ ना कुछ इफ एंड बट दिखता। इन्हीं बहसों के बीच एक दिन अचानक सोनम का नाम उछला। अगले दस मिनट में हम इस बात पर कन

फिल्‍म समीक्षा : तीन

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है नयापन -अजय ब्रह्मात्‍मज हक है मेरा अंबर पे लेके रहूंगा हक मेरा लेके रहूंगा हक मेरा तू देख लेना फिल्‍म के भाव और विश्‍वास को सार्थक शब्दों में व्‍यक्‍त करती इन पंक्तियों में हम जॉन विश्‍वास के इरादों को समझ पाते हैं। रिभु दासगुप्‍ता की ‘ तीन ’ कोरियाई फिल्‍म ‘ मोंटाज ’ में थोड़ी फेरबदल के साथ की गई हिंदी प्रस्‍तुति है। मूल फिल्‍म में अपहृत लड़की की मां ही प्रमुख पात्र है। ‘ तीन ’ में अमिताभ बच्‍च्‍न की उपलब्‍धता की वजह से प्रमुख किरदार दादा हो गए हैं। कहानी रोचक हो गई है। बंगाली बुजुर्ग की सक्रियता हंसी और सहानुभूति एक साथ पैदा करती है। निर्माता सुजॉय घोष ने रिभु दासगुप्‍ता को लीक से अलग चलने और लिखने की हिम्‍मत और सहमति दी। ‘ तीन ’ नई तरह की फिल्‍म है। रोचक प्रयोग है। यह हिंदी फिल्‍मों की बंधी-बंधायी परिपाटी का पालन नहीं करती। कहानी और किरदारों में नयापन है। उनके रवैए और इरादों में पैनापन है। यह बदले की कहानी नहीं है। यह इंसाफ की लड़ाई है। भारतीय समाज और हिंदी फिल्‍मों में इंसाफ का मतलब ‘ आंख के बदले आंख निकालना ’ रहा है। दर्शकों को इसमें म