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रोज़ाना : सबा इम्तियाज की ‘नूर’

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रोज़ाना सबा इम्तियाज की ‘ नूर ’ -अजय ब्रह्मात्‍मज इस हफ्ते रिलीज हो रही सोनाक्षी सिन्‍हा की ‘ नूर ’ 2014 में प्रकाशित पाकिस्‍तानी अंग्रेजी उपन्‍यास ‘ कराची,यू आर किलिंग मी ’ का फिलमी रूपांतरण है। सबा इमित्‍याज का यह उपन्‍यास पाकिस्‍तान के शहर कराची की पृष्‍ठभूमि में एक महिला पत्रकार की रचनात्‍मक और भावनात्‍मक द्वंद्वों पर आधारित है। उपन्‍यास में कराची शहर,वहां की मुश्किलें और मीडिया हाउस की अंदरूनी उठापटक के बीच अपने वजूद की तलाश में आगे बढ़ रही आयशा खान का चित्रण है। यह उपन्‍यास लेखिका सबा इमित्‍याज के जीवन और अनुभवों पर आधारित है। सबा पेशे से पत्रकार हैं। फिलहाल वह जार्डन में रहती हैं और अनेक इंटरनेशनल अखबारों के लिए लिखती हैं। ‘ कराची,यू आर किलिंग मी ’ उनका पहला उपन्‍यास है। अभी वह ‘ नो टीम ऑफ एंजेल्‍स ’ लिख रही हैं। सबा इम्तियाज सभी पाकिस्‍तानी लड़कियों की तरह हिंदी फिल्‍मों की फैन हैं। वह हिंदी फिल्‍में देखती हैं। जब भारतीय निर्माताओं ने फिल्‍म के लिए उनके उपन्‍यास के अधिकार लिए तो वह बहुत खुश हुईं। उन्‍होंने तब इसकी परवाह भी नहीं की कि उनके उपन्‍यास पर आधारि

रोज़ाना : अशांत सुशांत

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रोज़ाना अशांत सुशांत -अजय ब्रह्मात्‍मज दिनेश विजन की फिल्‍म ‘ राब्‍ता ’ के ट्रेलर लांच पर सुशांत सिंह राजपूत और फिल्‍म पत्रकार भारती प्रधान के बीच हुई झड़प के मामले में सोशल मीडिया और मीडिया दो पलड़ों में आ गया है। सुशांत का पलड़ा भारी है। फैंस और मीडिया फैंस उनके समर्थन में उतर आए हैं। ऐसा लग रहा है कि गलती भारती प्रधान से ही हुई। अगर उस लांच के वीडियों को गौर से देखें तो पूरी स्थिति स्‍पष्‍ट होगी। हुआ यों कि सवाल-जवाब के बीच एक टीवी पत्रकार ने कुलभूषण जाधव के बारे में सवाल पूछा,जिन्‍हे कथित जासूसी के अपराध में पाकिस्‍तान ने फांसी की सजा सुनाई है। इस सवाल को सुनते ही थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। फिर कृति सैनन ने निर्देशक दिनेश विजन का फुसफुसाकर सुझााया कि इस सवाल का जवाब नहीं दिया जाएं। दिनेश विजन ने कहा कि अभी हमलोग इस पर बातें ना करें। सवालों का सिलसिला आगे बढ़ गया। मंच के ठीक सामने बैठी सीनियर भारती प्रधान को यह बात नागवार गुजरी। उन्‍होंने खड़े होकर सवाल किया कि राष्‍ट्रीय महत्‍व के इस सवाल से कैसे बच सकते हैं ? मौजूद फिल्‍म स्‍टारों का इसका जवाब देना चाहिए। स

रोज़ाना : अशोभनीय प्रयोग

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रोज़ाना अशोभनीय प्रयोग -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों श्रीजित मुखर्जी निर्देशित ‘ बेगम जान ’ आई। ‘ बेगम जान ’ में विद्या बालन नायिका हैं और फिल्‍म के निर्माता हैं विशेष फिल्‍म्‍स के महेश भट्ट और मुकेश भट्ट। इस फिल्‍म ने विद्या बालन और महेश भट्ट के अपने प्रशंसकों को बहुत निराश किया। ‘ बेगम जान ’ पंजाब में कहीं कोठा चलाती है। उसे वहां के राजा साहब की शह हासिल है। आजादी के समय देश का बंटवारा होता है। रेडक्लिफ लाइन बेगम जान के कोठे को चीरती हुई निकलती है। भारत और पाकिस्‍तान के अधिकारी चाहते हैं कि बेगम जान कोठा खाली कर दे। 11 लड़कियों के साथ कोठे में रह रही बेगम जान अधिकारियों के जिस्‍म के पार्टीशन कर देने का दावा करती है,लेकिन ताकत उसके हाथ से निकलती जाती है। आखिरकार वह कोठे में लगी आग में बची हुई लड़कियों के साथ जौहर कर लेती है। आत्‍म सम्‍मान की रक्षा की इस कथित मध्‍ययुगीन प्रक्रिया को 1947 गौरवान्वित करते हुए दोहराना एक प्रकार की पिछड़ी सोच का ही परिचायक है। उनकी बेबसी और लाचारगी के चित्रण के और भी तरीके हो सकते थे। प्रगतिशील महेश भट्ट का यह विचलन सोचने पर मजबूर कर

रोज़ाना : अपवाद हैं अभय देओल

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रोज़ाना अपवाद हैं अभय देओल -अजय ब्रह्मात्‍मज    देओल परिवार के अभय देओल अपने चचेरे भाइयों सनी देओल और बॉबी देओल से मिजाज में अलग हैं। उनकी जीवन शैली और फिल्‍मों की पसंद-नापसंद में साफ फर्क दिखता है। स्‍टार परिवार से होने के बावजूद उनमें स्‍टारों के नखरे नहीं हैं। वे दिखावे में नहीं रहते। पंजाबी परिवारों के गुणों-अवगुणों से भी वे दूर हैं। पढ़ाई के लिए विदेश में रहने और वहां हर रंग व वर्ण के दोस्‍तों के साथ बिताई जिंदगी ने उनकी पारंपरिक सोच बदल दी। भारत लौटने और ‘ सोचा न था ’ जैसी फिल्‍म से शुरूआत करने के साथ ही उन्‍होंने स्‍पष्‍ट कर दिया था कि उनमें देओल परिवार के फिल्‍मी और पंजाबी लक्षण नहीं हैं। अभय देओल ने ‘ आउट ऑफ बॉक्‍स ’ फिल्‍में कीं। ‘ जिंदगी ना मिलेगी दोबारा ’ जैसी कमर्शियल फिल्‍म में उनकी असहजता आसानी से देखी जा सकती है। कुछ अलग और बेहतरीन करने की कोशिश में उन्‍हें अभी तक बड़ी कामयाबी नहीं मिली है,लेकिन अपने फसलों और बयानों से उन्‍होंने हमेशा जारि किया कि दूसरे स्‍टारसन की तरह लकीर के फकीर नहीं हैं। 2014 में उन्‍होंने अपनी फिल्‍म ‘ वन बा टू ’ डिजीटल रिलीज

दरअसल : पहचान का संकट है चेतन जी

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दरअसल... पहचान का संकट है चेतन जी -अजय ब्रह्मात्‍मज चेतन जी, जी हमारा नाम माधव झा है। हमें मालूम है कि आप हिंदी बोल तो लेते हैं,लेकिन ढंग से लिख-पढ़ नहीं सकते। आप वैसे भी अंगेजी लेखक हैं। बहुते पॉपुलर हैं। हम स्‍टीवेंस कालिज में आप का नावेल रिया के साथ पढ़ा करते थे। खूब मजा आता था। प्रेमचंद और रेणु को पढ़ कर डुमरांव और पटना से निकले थे। कभी-कभार सुरेन्‍द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा को चोरी से पढ़ लेते थे। गुलशन नंदा,कर्नल रंजीत और रानू को भी पढ़े थे। आप तो जानबे करते होंगे कि गुलशन नंदा के उपन्‍यास पर कैगो ना कैगो फिल्‍म बना है। अभी जैसे कि आप के उपन्‍यास पर बनाता है। हम आप के उपन्‍यास के नायक हैं माधव झा। हम तो खुश थे कि हमको पर्दा पर अर्जुन कपूर जिंदा कर रहे हैं। सब अच्‍छा चल रहा था। उस दिन ट्रेलर लांच में दैनिक जागरण के पत्रकार ने मेरे बारे में पूछ कर सब गुड़-गोबर कर दिया।  उसने आप से पूछ दिया था कि झा लोग तो बिहार के दरभंगा-मधुबनी यानी मैथिल इलाके में होते हैं। आप ने माधव झा को डुमरांव,बक्‍सर का बता दिया। सवाल तो वाजिब है। आप मेरा नाम माधव सिंह या माधव उपाध्‍या

फिल्‍म समीक्षा : बेगम जान

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फिल्‍म रिव्‍यू बेगम जान अहम मुद्दे पर बहकी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म की शुरूआत 2016 की दिलली से होती है और फिल्‍म की समाप्ति भी उसी दृश्‍य से होती है। लगभग 70 सालों में बहुत कुछ बदलने के बाद भी कुछ-कुछ जस का तस है। खास कर और तों की स्थिति...फिल्‍म में बार-बार बेगम जान औरतों की बात ले आती है। आजादी के बाद भी उनके लिए कुछ नहीं बदलेगा। यही होता भी है। बाल विधवा हुई बेगम जान पहले रंडी बनती है और फिर तवायफ और अंत में पंजाब के एक राजा साहब की शह और सहाता से कोठा खड़ी करती है,जहां देश भर से आई लड़कियों को शरण मिलती है। दो बस्तियों के बीच बसा यह कोठा हमेशा गुलजार रहता है। इस कोठे में बेगम जान की हुकूमत चलती है। दुनिया से बिफरी बेगम जान हमेशा नाराज सी दिखती हैं। उनकी बातचीत में हमेशा सीख और सलाह रहती है। जीवन के कड़े व कड़वे अनुभवों का सार शब्‍दों और संवादों में जाहिर होता रहता है। कोइे की लड़कियों की भलाई और सुरक्षा के लिए परेशान बेगम जान सख्‍त और अनुशासित मुखिया है। आजादी मिलने के साथ सर सिरिल रेडक्लिफ की जल्‍दबाजी में खींची लकीर से पूर्व और पश्चिम में देश की विभाज

रोज़ाना : धरम जी समझ सकते हैं...

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रोज़ाना धरम जी समझ सकते हैं... -अजय ब्रह्मात्‍मज कल सभी अखबारों में खबर थी कि सलमान खान अपनी आत्‍मकथा नहीं लिखेंगे या यों कहें कि नहीं लिख सकते। आशा पारेख की खालिद मोहम्‍मद लिखित आत्‍मकथा ‘ द हिट गर्ल ’ के विमोचन के अवसर पर सलमान खान ने यह बयान दिया। उन्‍होंने आशा पारेख जैसी सेलिब्रिटी की तारीफ की। उन्‍होंने कहा कि आत्‍मकथा लिखना बहादुरी का काम है। मुझ से तो लाइफ में ना हो। धरम जी समझ सकते हैं.... इसके बाद हॉल में तालियां बजीं। लोग हंसे और खिलखिलाए। सलमान खान शरमाए। होंठ पोंछे और शरारती निगाहों से हॉल में मौजूद लोगों को देखा। फिर से तालियां बजीं। लगभग 20 सेकेंड के इस अंतराल में सलमान खान ने कुछ नहीं कहा,लेकिन लोगों ने सब कुछ समझ लिया। दरअसल,सलमान खान जैसी सेलिब्रिटी जब वाक्‍य अधूरा छोड़ते हैं तो आगे के शब्‍द और उनका आशय भी लोग समझ लेते हैं। आत्‍मकथा किसी भी व्‍यक्ति का वस्‍तुनिष्‍ट और निष्‍पक्ष जीवन इतिहास है,जिसे वह खुद लिखता या लिखवाता है। पहले के कवि और शायर अपनी रचनाओं में खुद के बारे में लिख देते थे। हिंदी में आत्‍मकथा की शुरूआत साहित्‍य की अन्‍य विधाओं की तरह भ

रोज़ाना : शीघ्र सेहतमंद हों अमित जी

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रोज़ाना / अजय ब्रह्मात्‍मज शीघ्र सेहतमंद हों अमित जी हर रविवार की शाम को प्रशंसक और दर्शक खिंचे चले आते हैं। धीरे-धीरे व्‍यक्तियों का समूह बढ़ता और और एक भीड़ में तब्‍दील हो जाता है। यह भीड़ अपने प्रिय अभिनेता की एक झलक और विनम्र नमस्‍कार पाने के लिए उतावली रहती है। मुंबई के उपनगर जुहू के इलाके में हर रविवार को लोगों का हुजूम अमिताभ बच्‍चन के नए आवास ‘ जलसा ’ के सामने एकत्रित होता है। पिछले कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है। अगर अमिताभ बच्‍चन मुंबई में हों तो वे बिना नागा हाजिर होते हैं। लकड़ी के बने अस्‍थायी चबूतरे पर खड़े होकर वे सभी का अभिवादन स्‍वीकार करते हैं। पिछले रविवार 9 अप्रैल को अस्‍वस्‍थ होने की वजह से वे अपने प्रशंसकों से मुखातिब नहीं हो सके। उन्‍हें इसका अफसोस रहा और उन्‍होंने ट्वीटर,ब्‍लॉग और फेसबुक पर अपने विस्‍तारित परिवार(एक्‍सटेंडेड फमिली) से माफी मांगी। इस साल अक्‍तूबर में 75 के हो रहे अमिताभ बच्‍चन कई पहलुओं से मिसाल हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के सक्रिय कलाकारों में से एक अमिताभ बच्‍चन के दायित्‍व,कर्तव्‍य और मंतव्‍य को देख-सुन कर अचरज ही होता है

रोज़ाना : मॉडर्न क्लासिक ‘ताल’ का खास शो

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रोज़ाना / अजय ब्रह्मात्‍मज     मॉडर्न क्लासिक ‘ ताल ’ का खास शो महानगर मुंबई और इतवार की शाम। फिर भी सुभाष घई का निमंत्रण हो तो कोई कैसे मना कर सकता है ? उत्‍तर मुंबई के उपनगर से दक्षिण मुंबई मुखय शहर में जाना ही पहाड़ चढ़ने की तरह है। इसके बावजूद खुद को रोकना मुश्किल था,क्‍योंकि सुभाष धई ने अपन फिल्‍म ‘ ताल ’ देखने का निमंत्रण दिया था। सुभाष घई अब सिनेमाघर के बिजनेस में उतर आए हैं। वे पुराने सिनेमाघरों का जीर्णोद्धार कर उन्‍हें नई सुविधाओं से संपन्‍न कर रहे हें। उन्‍हें मुंबई के फोर्ट इलाके में स्थित न्‍यू एक्‍स्‍लेसियर सिंगल स्‍क्रीन में आधुनिक प्रोजेकशन और साउंड सिस्‍टम बिठा दिया है। उसयकी सज-धज भी बदल दी है। इसी सिनेमाघर में वे 1999 में बनी अपनी फिल्‍म ‘ ताल ’ दिखा रहे थे। इस खास शो में उनके साथ म्‍यूजिक डायरेक्‍टर एआर रहमान, कैमरामैन कबीर लाल, कोरियोग्राफर श्‍यामक डावर, संवाद लेखक जावेद सिद्दीकी व गायक सुखविंदर सिंह भी मौजूद रहेथ। फिल्‍ममेकिंग की रोचक और खास प्रक्रिया है। एक डायरेक्टर अपने विजन के अनुसार कलाकारों और तकनीशियन की टीम जमा करता है और फिर महीनों, क

अलहदा है बेगम का फलसफा’ : महेश भट्ट

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज श्रीजित मुखर्जी का जिक्र मेरे एक रायटर ने मुझ से किया था। उन्‍होंने कहा कि वे भी उस मिजाज की फिल्‍में बनाते रहे हैं ,   जैसी  ‘ अर्थ ’, ‘ सारांश ’ व  ‘ जख्‍म ’  थीं। उनके कहने पर मैंने  ‘ राजकहानी ’  देखी। उस फिल्‍म ने मुझे झिझोंर दिया। मैंने सब को गले लगा लिया। मैंने मुकेश ( भट्ट )  से कहा कि  ‘ राज ’ व   ‘ राज रीबूट ’  हमने बहुत कर लिया। अब  ‘ राजकहानी ’  जैसी कोई फिल्‍म करनी चाहिए। मुकेश को भी फिल्‍म अच्छी लगी। श्रीजित ने अपनी कहानी भारत व पूर्वी पाकिस्‍तान में रखी थी। रेडक्लिफ लाइन बेगम जान के कोठे को चीरती हुई निकलती है। यह प्लॉट ही अपने आप में बड़ा प्रभावी लगा। हमें लगा कि इसे पश्विमी भारत में शिफ्ट किया जाए तो एक अलग मजा होगा। हमने श्रीजित को बुलाया। फिर उन्होंने 32 दिनों में दिल और जान डालकर ऐसी फिल्‍म बनाई की क्या कहें।      मेरा यह मानना है कि हर सफर आप को आखिरकार अपनी जड़ों की ओर ले जाता है। बीच में जरूर हम ऐसी फिल्‍मों की तरफ मुड़े़ ,   जिनसे पैसे बनने थे। पैसा चाहिए भी। फिर भी लगातार फिल्‍म बनाने के लिए ,   पर रूह को छूने वाली आवाजें सुन