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फिल्‍म समीक्षा : बरेली की बर्फी

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फिल्‍म समीक्षा बदली है रिश्‍तों की मिठास बरेली की बर्फी -अजय ब्रह्मात्‍मज शहर बरेली,मोहल्‍ला- एकता नगर, मिश्रा सदन,पिता नरोत्‍तम मिश्रा,माता- सुशीला मिश्रा। नरोत्‍तम मिश्रा का बेटा और सुशीला मिश्रा की बेटी बिट्टी मिश्रा। पिता ने बेटे की तरह पाला और माता ने बेटी की सीमाओं में रखना चाहा। बिट्टी खुले मिजाज की बरेली की लड़की है। अपने शहर में मिसफिट है। यही वजह है कि उसे लड़के रिजेक्‍ट कर के चले जाते हैं। मसलनृएक लड़के ने पूछ लिया कि आप वर्जिन हैं ना ? तो उसने पलट कर उनसे यही सवाल कर दिया। लड़का बिदक गया। दो बार सगाई टूट चुकी है। माता-पिता की नजरों और परेशानी से बचने का उसे आसान रास्‍ता दिखता है कि वह घर छोड़ दे। भागती है,लेकिन ट्रेन के इंतजार में ‘ करेली की बर्फी ’ उपन्‍यास पढ़ते हुए लगता कि उपन्‍यास की नायिका बबली तो हूबहू वही है। आखिर उपन्‍यासकार प्रीतम विद्रोही उसके बारे में कैसे इतना जानते हैं ? वह प्रीतम विद्रोही से मिलने की गरज से घर लौट आती है। ’ बरेली की बर्फी ’ उपन्‍यास का भी एक किससा है। उसके बारे में बताना उचित नहीं होगा। संक्षेप में चिराग पांडे(आयुष्‍मान

रोज़ाना : आयटम नंबर की लोकप्रियता

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रोज़ाना आयटम नंबर की लोकप्रियता -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म इंडस्‍ट्री में माना जाता है कि गुरु दत्‍त निर्देशित ‘ आर पार ’ में शकीला पर फिल्‍मांकित ‘ बाबूजी धीरे चलना ’ हिंदी सिनेमा का पहला आयटम नंबर है। यह फिल्‍म 1954 में आई थी। गीत मजरूह सुल्‍तानपुरी ने लिखे थे,जिसे आपी नरूयर ने संगीत से संवारा था। उसके बाद वैजयंती माला ने अपन ही फिल्‍मों में कुछ ऐसे डांस नंबर किए,जिन्‍हें आयटम नंबर कहा जा सकता है। हम अभी आयटम नंबर को जिस रूप और अर्थ में जानते हैं,उसकी शुरुआत ‘ हावड़ा ब्रिज ’ के गीत ‘ मेरा नाम चिन चिन चू ’ से होती है। हेलन ने अपनी नृत्‍य प्रतिभा और चपल बंग संचालन से ‘ अयटम नंबर ’ को एक कल्‍ट बना दिया। मदमस्‍त संगीत के बीट पर उन्‍हें पर्दे पर लहराते देखना अनोख व रोमांचक अनुभव होता था। कस्‍बों के सिनेमाघरों में उनकी फिल्‍में लगती थीं तो रिक्‍शे पर प्रचार के लिए निकले उद्घोषक यह बताना नहीं भूलते थे कि इसमें हेलन का डांस है। तब सिनेमा के शौकीनों की मांग पर डांस नंबर दो बार भी दिखा दिए जाते थे। डांस नंबर कहें या आयटम नंबर...दर्शकों की ललक हमेशा ऐसे गीत-नृत्‍य की ओर रही

फिल्‍म समीक्षा : पार्टीशन 1947

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फिल्‍म रिव्‍यू पार्टीशन 1947 -अजय ब्रह्मात्‍मज देश के बंटवारे का जख्‍म अभी तक भरा नहीं है। 70 सालों के बाद भी वह रिस रहा है। भारत,पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश बंटवारे के प्रभाव से निकल ही नहीं पाए हैं। पश्चिम में द्वितीय विश्‍वयुद्ध और अन्‍य ऐतिहासिक और राजनीतिक घटनाओं पर फिल्‍में बनती रही हैं। अपने देश में कम फिल्‍मकारों ने इस पर ध्‍यान दिया। ‘ गर्म हवा ’ और ‘ पिंजर ’ जैसी कुछ फिल्‍मों में बंटवारे और विस्‍थापन से प्रभावित आम किरदारों की कहानियां ही देखने को मिलती हैं। गुरिंदर चड्ढा की फिल्‍म का नाम ही ‘ पार्टीशन 1947 ’ है। भारत में नियुक्‍त ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटेन के दृष्टिकोण से चित्रित इस फिल्‍म में ऐतिहासिक दस्‍तावेजों का भी सहारा लिया गया है। कुछ दस्‍तावेज तो हाल के सालों में सामने आए हैं। उनकी पृष्‍ठभूमि में बंटवारे का परिदृश्‍य ही बदल जाता है। गुरिंदर चड्ढा ने लार्ड माउंटबेटेन और उनके परिवार के सदस्‍यों के साथ आलिया और जीत की प्रेमकहानी भी रखी है। यह फिल्‍म दो स्‍तरों पर साथ-साथ चलती है। 1947 में आजादी के ठीक पहले चल रही राजनीतिक गतिविधियों के ब

दरअसल : पिछले 70 सालों की प्रतिनिधि 50 फिल्‍में

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दरअसल... पिछले 70 सालों की प्रतिनिधि 50 फिल्‍में -अजय ब्रह्मात्‍मज आजादी के 70 सालों में हिंदी सिनेमा ने प्रगति के साथ विस्‍तार किया है। हर विधा में फिल्‍में बनी हैं। उन्‍हें दर्शकों ने पसंद किया। कुछ फिल्‍में रिलीज के समय अधिक नहीं सराही गईं,लेकिन समय बीतने के साथ उनका महत्‍व और प्रभाव बढ़ता गया। सात दशकों में हिंदी सिनेमा की अनेक उपलब्धियां हासिल कीं। हालीवुड के बढ़ते प्रभाव के बावजूद हिंदी और अन्‍य भाषाओं की भारतीय फिल्‍में टिकी हुई हैं। इसे बालीवुड नाम से भी संबोधित किया जाता है। हालांकि यह नाम हिंदी सिनेमा के व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य को नहीं समेट पाता,फिर भी यह प्रचलित हो चुका है तो अधिक गुरेज करने की जरूररत नहीं है। नाम कोई भी लें हिंदी सिनेमा की खास पहचान है। उसकी विविधता अचंभित करती है। दर्शकों ने अपनी पसंद से हमेशा चौंकाया है। आजीदी के 70 साल पूरे होने के मौके पर मैंने फेसबुक के जरिए अपने पाठकों और परिचितों से उनकी पसंद की किसी एक फिल्‍म के बारे में पूछा था। 500 से अधिक व्‍यक्तियों ने अपनी पसंद जाहिर की। 50 फिल्‍मों की यह सूची सिर्फ उनकी पसंद के आधर पर तैयार की गई

रोज़ाना : हमदर्द शाह रूख खान

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रोज़ाना हमदर्द शाह रूख खान -अजय ब्रह्मात्‍मज कल सायरा बानो ने दिलीप कुमार के ट्वीटर हैंडल पर कुछ तस्‍वीरें शेयर कीं। उनमें शाह रूख खान कृशकाय हो चुके महान अभिनेता को सोफे पर आराम से बिठाने की कोशिश कर रहे हैं। ये तस्‍वीरें आंखें नम कर गईं। पहले तो लगा कि सायरा जी को इन अंतरंग क्षणों की तस्‍वीरें नहीं शेयर करनी चाहिए थी। फिर मर्माहत मन ने कहा कि ऐसी तस्‍वीरें धर-परिवार और देश-समाज के बुजुर्गों के प्रति हमारी हमदर्दी की मिसाल बन सकती हैं। फिल्‍मों के फालोअर और शाह रूख खान के प्रशंसक गाहे-बगाहे अपने जीवन में इसे अपना सकते हैं। दिलीप कुमार के प्रति शाह रूख खान के आदर और प्‍यार से फिल्‍म इंडस्‍ट्री वाकिफ है। सायरा जी कई मौकों पर कह चुके हैं कि दिलीप साहेब उन्‍हें अपनी औलाद की तरह मानते हैं। यह किसी भी बीमार पिता और तीमारदार बेटे की तस्‍वीर हो सकती है। शाह रूख खान के बारे में अनेक गलतफहमियां हैं। अपनी बेरुखी और साफगोई से वे ऐसी इमेज बना चुके हैं कि उन्‍हें किसी की भी नहीं पड़ी है। वे केल खुद और खुद की परवाह करते हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के गलाकाट माहौल में ऐसे मिजाज के

रोज़ाना : ’टॉयलेट...’ से मिली राहत

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रोज़ाना ’ टॉयलेट... ’ से मिली राहत -अजय ब्रह्मात्‍मज अक्षय कुमार और भूमि पेडणेकर की फिल्‍म ‘ टॉयलेट एक प्रेम कथा ’ के कलेक्‍शन से हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री को राहत मिली है। पिछलें कई महीनों से हर हफ्ते रिलीज हो रही फिल्‍में बाक्‍स आफिस पर खनक नहीं रही थीं। सलमान खान और शाह रूख खान की फिल्‍में बिजनेश की बड़ी उम्‍मीद पर खरी नहीं उतरीं। खबर है कि सलमान खान ने वितरकों के नुकसान की भरपाई की है। इस व्‍यवहार के लिए सलमान खान खान की तारीफ की जा सकती है। इक्षिण भारत में रजनी कांत की फिल्‍में अपेक्षित कमाई नहीं करतीं तो वे भी वितरकों का नुकसान शेयर करते हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में महेश भट्ट भी ऐसा करते रहे हैं। इससे लाभ यह होता है कि उम्‍त स्‍टारों या प्रोडक्‍शन हाउस की अगली फिल्‍में उठाने में वितरक आनाकानी नहीं करते। बहरहाल, ’ टॉयलेट एक प्रेम कथा ’ के वीकएंड कलेक्‍शन ने उत्‍साह का संचार किया। रिलीज के पहले ‘ टॉयलेट एक प्रेम कथा ’ के बारे में ट्रेड पंडित असमंजस में थे। फिल्‍म की कहानी की विचित्रता की वजह से वे अक्षय कुमार के होने के बावजूद आशंकित थे। कुछ तो कह रहे थे कि

रोज़ाना : राष्‍ट्रीय भावना के गीत

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रोज़ाना राष्‍ट्रीय भावना के गीत -अजय ब्रह्मात्‍मज इन पंक्तियों को पढ़ने केपहले ही आप के कानों में राष्‍ट्रीय भावना से ओत-प्रोत देशभक्ति के गानों की आवाज आ रही होगी। महानगर,शहर,कस्‍बा और गांव-देहात तक में गली,नुक्‍कड़ और चौराहों पर गूंज रहे गीत स्‍फूर्ति का संचार कर रहे होंगे। अभी प्रभात फेरी का चलन कम हो गया है। स्‍वतंत्रता आंदोलन के समय हर सुबह गली-मोहल्‍लों में प्रभातफेरी की मंडलियां निकला करती थीं। सातवें दशक तक इसका चलन रहा। खास कर 15 अगस्‍त और 26 जनवरी को स्‍कूलों और शिक्षा संस्‍थाओं में इसका आयोजन होता था। तब तक देशभक्त्‍िा और आजादी का सुरूर कायम था। देश जोश के साथ उम्‍मीद में जी रहा था। बाद में बढ़ती गरीबी,असमानता और बदहाली से आजादी से मिले सपने चकनाचूर हुए और मोहभंग हुआ। धीरे-धीरे स्‍वतंत्रता दिवस औपचारिकता हो गई। अवकाश का एक दिन हो गया। याद करें तो हमारे बचपन में स्‍वतंत्रता दिवस के दिन स्‍कूल जाने का उत्‍साह रहता था। यह उत्‍साह आज भी है,लेकिन शिक्षकों और अभिभावकों की सहभागिता की कमी से पहले सा उमंग नहीं दिखता। केंद्र में राष्‍ट्रवादी सरकार के आने के बाद देशभ

दरअसल : यंग एडल्‍ट के लिए फिल्‍में

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दरअसल... यंग एडल्‍ट के लिए फिल्‍में -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ बृजमोहन अमर रहे ’ , ’ अभी और अनु ’ , ’ आश्‍चर्यचकित ’ , ’ अज्‍जी ’ , ’ नोबलमैन ’ , ’ द म्‍यूजिक टीचर ’ , ’ कुछ भीगे अल्‍फाज ’ , ’ हामिद ’ ... उन कुछ फिल्‍मों के नाम हैं,जो अगले महीने से हर महीने रिलीज होंगी। योजना है कि दर्शकों तक ऐसी फिल्‍में आएं,जो कथ्‍य के स्‍तर पर गंभीर हैं। कुछ कहना चाहती हैं। अच्‍छी बात है कि इन सारी फिल्‍मों की योजना 18 से 30 साल के दर्शकों को धन में रख कर बनाई गई है। एक सर्वे के मुताबिक पहले दिन फिल्‍म देखने आए दर्शकों में से 64 प्रतिशत की उम्र 24 साल से कू होती है। सिनेमाघरों में युवा दर्शक जाते हैं। इस समूह के दर्शक विश्‍व सिनेमा से परिचित हैं। अगर उन्‍हें फिल्‍म पसंद नहीं आती है तो बड़े से बड़े लोकप्रिय सितारों की भी फिल्‍में बाक्‍स आफिस पर औंधे मुंह गिरती हैं। ऊपर उल्लिखित सभी फिल्‍मों का निर्माण यूडली फिल्‍म्‍स कर रही है। यूडली फिल्‍म्‍स मूल रूप से सारेगाम म्‍यूजिक कंपनी की नई फिल्‍म निर्माण कंपनी है। एक अर्से की खामोशी के बाद फिल्‍म निर्माण में सारेगामा का उतरना अच्‍छी खबर है। हिंदी फ

रोज़ाना : शिकार हैं तो प्रतिकार करें

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रोज़ाना शिकार हैं तो प्रतिकार करें -अजय ब्रह्मात्‍मज समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानता हो तो शोषण और शिकार आम बात हो जाती है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों के प्रभावशाली समूह अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए हर तरह के उपाय करते हैं। वे दमन और दबाव की नीति-रणनीति अपनाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी यह आम है। खास कर बाहर से आये कलाकारों के प्रति फ़िल्म इंडस्ट्री के इनसाइडर का यह रवैया दिखता है। कुछ महीनों से कंगना रनोट के खिलाफ चल रहे बयानों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा। ज्यादातर तिलमिलाये हुए हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में जारी वंशवाद को वे दबी जबान से स्वीकार करते हैं। मझोले स्टार तो कंगना के समर्थन करने के बाद कह देते हैं कि क्यों हमें घसीट रहे हैं। हम तो उसके कैम्प के हैं , जो हमें काम दे। कंगना रनोट की बातों में दम है। पिछले दिनों उन्होंने दोहराया कि वह आगे भी कुछ लोगों के अहम पर चोट करती रहेंगी।होता यूं है कि किसी ताकतवर की बात न मानो , प्रतिकार करो या सवाल करो तो उनका अहम घायल हो जाता है।फ़िल्म इंडस्ट्री में भी जी हुजूरी चलती है। हैं में हैं मिलते रहो और

फिल्‍म समीक्षा : टॉयलेट- एक प्रेम कथा

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फिल्‍म रिव्‍यू शौच पर लगे पर्दा टॉयलेट एक प्रेम कथा -अजय ब्रह्मात्‍मज जया को कहां पता था कि जिस केशव से वह प्‍यार करती है और अब शादी भी कर चुकी है...उसके घर में टॉयलेट नहीं है। पहली रात के बाद की सुबह ही उसे इसकी जानकारी मिलती है। वह गांव की लोटा पार्टी के साथ खेत में भी जाती है,लेकिन पूरी प्रक्रिया से उबकाई और शर्म आती है। बचपन से टॉयलेट में जाने की आदत के कारण खुले में शौच करना उसे मंजूर नहीं। बिन औरतों के घर में बड़े हुआ केशव के लिए शौच कभी समस्‍या नहीं रही। उसने कभी जरूरत ही नहीं महसूस की। जया के बिफरने और दुखी होने को वह शुरू में समझ ही नहीं पाता। उसे लगता है कि वह एक छोटी सी बात का बतंगड़ बना रही है। दूसरी औरतों की तरह अपने माहौल से एडजस्‍ट नहीं कर रही है। यह फिल्‍म जया की है। जया ही पूरी कहानी की प्रेरक और उत्‍प्रेरक है। हालांकि लगता है कि सब कुछ केशव ने किया,लेकिन गौर करें तो उससे सब कुछ जया ने ही करवाया। ‘ टॉयलेट एक प्रेम कथा ’ रोचक लव स्‍टोरी है। जया और केशव की इस प्रेम कहानी में सोच और शौच की खल भूमिकाएं हैं। उन पर विजय पाने की कोशिश और कामयाबी में ही जया