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दरअसल : सृजन और अभिव्‍यक्ति की आजादी

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दरअसल... सृजन और अभिव्‍यक्ति की आजादी -अजय ब्रह्मात्‍मज ठीक चार महीने पहले भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित श्‍याम बेनेगल की अध्‍यक्षता में गठित कमिटी ने अपनी रिपोर्ट दे दी थी। सीबीएफसी(सेट्रल फिल्‍म सर्टिफिकेशन बोर्ड) की कार्यप्रणाली और प्रमाणन प्रिया में सुधार के लिए गठित इस कमिटी में श्‍याम बेनेगल के साथ कमल हासन,राकेश ओमप्रकाश मेहरा,पियूष पाडे,भावना सोमैया,गौतम घोष,नीना लाठ और के संजय मूर्ति थे। कमिटी की छह बैठकें हुईं। कमिटी ने फिल्‍म से संबंधित संस्‍थाओं,संगठनों और जिम्‍मेदार व्‍यक्तियों से सलाह मांगी थी। एनएफडीसी के सहयोग से आम दर्शकों के साथ भी विमर्श हुआ। उनकी रायों पर भी विचार किया गया। मिली हुई सलाहों के परिप्रेक्ष्‍य में सीबीएफसी की वर्तमान संरचना,कार्यप्रणाली और प्रमाणन प्रकिया पर हर पहलू से विचार-विमर्श करने के बाद कमिटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। सीबीएफसी को बोलचाल की भाषा में सेंसर बोर्ड कह दिया जाता है। यही चलन में है। आम धारणा है कि सेंसर बोर्ड का काम रिलीज हो रही फिल्‍मों को देखना और जरूरी कांट-छांट बताना है। फिल्‍म सर्किल में भी सें

रोज़ाना : शब्‍दों से पर्दे की यात्रा

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रोज़ाना शब्‍दों से पर्दे की यात्रा -अजय ब्रह्मात्‍मज सिनेमा और साहित्‍य के रिश्‍तों पर लगातार लिखा जाता रहा है। शिकायत भी रही है कि सिनेमा साहित्‍य को महत्‍व नहीं दिया जाता। साहित्‍य पर आधारित फिल्‍मों की संख्‍या बहुत कम है। प्रेमचंद से लेकर आज के साहित्‍यकारों के उदाहरण देकर बताया जाता है कि हिंदी फिल्‍मों में साहित्‍यकारों के लिए कोई जगह नहीं है। शुरू से ही हिदी एवं अन्‍य भारतीय भाषाओं के कुछ साहित्‍यकार हिंदी फिल्‍मों के प्रति अपने प्रेम और झुकाव का संकेत देते रहे हैं,लेकिन व्‍यावहारिक दिक्‍कतों की वजह से वे फिल्‍मों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते। उनके असंतोष को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। तालमेल न हो पाने के कारणों की गहराई में कोई नहीं जाता। हिंदी फिल्‍में लोकप्रिय संस्‍कृति का हिस्‍सा हैं। लोकप्रिय संस्‍कृति में चित्रण और श्लिेषण में दर्शकों का खास खशल रखा जाता है। कोशिश यह र‍हती है कि अधिकाधिक दर्शकों तक पहुंचा जाए। उसके लिए आमफहम भाषा और और परिचित किरदारों का ही सहारा लिया जाता है। लेखकों को इस आम और औसत के साथ एडजस्‍ट करने में दिक्‍कत होती है। उन्‍हें लगता ह

फिल्‍म समीक्षा : कैदी बैंड

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फिल्‍म रिव्‍यू लांचिंग का दबाव कैदी बैंड -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ दो दूनी चार ’ के निर्देशक हबीब फैजल ने यशराज फिल्‍म्‍स की टीम में शामिल होने के बाद ‘ कैदी बैंड ’ के रूप में तीसरी फिल्‍म निर्देशित की है। पहली फिल्‍म में उन्‍होंने जो उम्‍मीदें जगाई थीं,वह लगातार छीजती गई है। इस बार उन्‍होंने अच्‍छी तरह से निराश किया है। उनके ऊपर दो नए कलाकारों को पेश करने की जिम्‍मेदारी थी। इसके पहले ‘ इशकजादे ’ में भी उन्‍होंने दो नए कलाकारों अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा को इंट्रोड्यूस किया था। उत्‍तर भारत की पृष्‍छभूमि में बनी ‘ इशकजादे ’ ठीे-ठीक सी फिल्‍म रही थी। ‘ दावत-ए-इश्‍क ’ को वह नहीं संभाल पाए थे। यशराज फिल्‍म्‍स के साथ तीसरी पेशकश में वे असफल रहे। पहली जिज्ञासा यही है कि इस फिल्‍म का नाम कैदी बैंड क्‍यो है ? फिल्‍म में अंडरट्रायल कैदियों के बैंड का नाम ‘ सेनानी बैंड ’ है। फिल्‍म का नाम सेनानी बैंड ही क्‍यों नहीं रखा गया ? वैसे जलर महोदय सेनानी नाम के पीछे जो तर्क देते हैं,वह स्‍वतंत्रता सेनानियों के महत्‍व को नजरअंदाज करता है। जेल से छूटने की आजादी की कोशिश में लगे कैदि

रोज़ाना : दिलीप साहब की जीवन डोर हैं सायरा बानो

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रोज़ाना दिलीप साहब की जीवन डोर हैं सायरा बानो -अजय ब्रह्मात्‍मज कल सायरा बानो का जन्‍मदिन था। हिंदी फिल्‍मों की यह मशहूर अदाकारा शादी के बाद धीरे-धीरे दिलीप कुमार के आसपास सिमट कर रह गईं। बीमार और अल्‍जाइमर के शिकार दिलीप कुमार के साए की तरह उनके साथ हर जगह मौजूद सायरा बानों को देख कर तसल्‍ली होती है। तसल्‍ली होती है कि कुछ संबंध वक्‍त के साथ और मजबूत होते हैं। 11 अक्‍टूबर 1966 को दोनों की शादी हुई। तब सायरा बानो की उम्र महज 22 थी और दिलीप कुमार 44 के थे। अटकलें लगाने के लिए कुख्‍यात फिल्‍म इंडस्‍ट्री में कहा जाता रहा कि यह बेमेल शादी लंबे समय तक नहीं चलेगी। आज हम देख रहे हैं कि शादी के 50 सालों के बाद भी दोनों न केवल एक साथ हैं,बल्कि एक-दूसरे से बेपनाह मोहब्‍बत करते हैं। पिछले कुछ समय से दिलीप कुमार पूरी तरह से सायरा बानो पर निर्भर हैं,लेकिन कभी सायरा बानो के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती। व‍ह अपने ‘ कोहिनूर ’ के साथ दमकती और मुस्‍कराती रहती हैं। जी हां,सायरा बानो दिलीप कुमार को अपनी जिंदगी का कोहिनूर मानती हैं। यों लगता है कि सायरा बानो की हथेली में रिमोट की तर

रोज़ाना : बड़े पर्दे पर बाप-बेटी

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रोज़ाना बड़े पर्दे पर बाप-बेटी -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍मों और हिंदी समाज में बाप की छवि एक निरंकुश की रही है। खास कर बेटियों के मामले में वे अधिक कठोर और निर्मम माने जाते हैं। इधर बाप-बेटी के रिश्‍तों में थेड़ी अंतरंगता आई है,लेकिन अभी तक वह खुलापन नहीं आया है। बेटियां आपने पिता से सीक्रेट शेयर करने में संकोच करती हैं। यों हिंदी समाज की सोच और दायरे में में वे मां से भी अपने दिल की बातें छिपा जाती हैं। बचपन से उन्‍हें उचित-अनुचित की ऐसी परिभाषाओं में पाला जाता है कि वे कथित मर्यादा में दुबकी रहती हैं। फिर भी पिछले दशक में इस रिश्‍ते में आ रहे धीमे बदलाव को महसूस किया जा सकता है। हाल ही में एक फिल्‍म आई ‘ बरेली की बर्फी ’ । इसमें हमें बाप-बेटी के बीच का बदला हुआ प्‍यारा रिश्‍ता दिखा। बरेली के एकता नगर के नरोत्‍तम मिश्रा की बेटी है बिट्टी। यह कहना सही नहीं होगा कि उन्‍होंने उसे बेटों की तरह पाला। फिल्‍म के वॉयस ओवर में लेखक भी चूक गए। उन्‍होंने बिट्टी को नरोत्‍तम मिश्रा का बेटा कहा,क्‍योंकि आदतन उन्‍हें बेटे की उम्‍मीद थी। बहरहाल,हम देखते हैं कि नरोत्‍तम मिश्रा और बि

कोएक्‍टर से प्रतिस्‍पर्धा नहीं करता-दीपक डोबरियाल

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कोएक्‍टर से प्रतिस्‍पर्धा नहीं करता-दीपक डोबरियाल -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों आई ‘ हिंदी मीडियम ’ में उन्‍होंने श्‍याम प्रकाश की भूमिका से दर्शकों को रुला कर उनका दिल जीता। दीपक डोबरियाल ने इसके पहले ‘ तनु वेड्स मनु ’ की दोनों फिल्‍मों में दर्शकों कां हंसने का मौका दिया था। रुलाने और हंसाने की इस काशिश में दीपक विभिन्‍न किरदारों के साथ पर्दे पर आना चाहते हैं। उनकी दो फिल्‍में जल्‍द ही दर्शकों के बीच होंगी। - कौन कौन सी फिल्‍में आ रही हैं आप की ? 0 अक्षत वर्मा की ‘ काला कांडी ’ आएगी। उन्‍होंने इसके पहले ‘ डेहली बेली ’ लिखी थी। वे अलग तरह से सोचते और लिखते हैं। फिल्‍ममेकिंग भी उनकी अलग है। उसके पहले रंजीत तिवारी की ‘ लखनऊ सेंट्रल ’ आ जाएगी। इसके निर्माता निखिल आडवाणी हैं। उसमें फरहान अख्‍तर मेन लीड में हैं। वह कैदियों के बैंड ग्रुप पर है। एक और फिल्‍म की है ‘ कुलदीप पटवाल ’ । - ‘ काला कांडी ’ के बारे में अभी क्‍या बता सकेंगे ? 0 ‘ काला कांडी ’ एक शहर की कहानी है।  उस शहर की एक रात की कहानी है। उसमें तीन कहानियां एक साथ आगे बढ़ती हैं। बररिश की रात है। रोमांस

फिल्‍म समीक्षा : वीआईपी 2

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फिल्‍म रिव्‍यू प्रतिभाओं का दुरुपयोग वीआईपी2 -अजय ब्रह्मात्‍म्‍ज सौंदर्या रजनीकांत निर्देशित ‘ वीआईपी2 ’ शायद रजनीकांत के वारिस की खोज है। परिवार के ही एक सदस्‍य धनुष को रजनीकांत की तरह की फिल्‍म में लाकर यही कोशिश की गई है। अफसोस धनुष में रजनीकांत की अदा और करिश्‍मा नहीं है। फिल्‍म में जब वे मुस्‍टंडे गुंडों को धराशायी करते हैं तो वह हंसी आती है। इसी प्रकार कैरेक्‍अर के लिए खास मैनरिज्‍म दिखाने में भी वे संघर्ष करते नजर आते हैं। कह सकते हैं कि तमिल की मेनस्‍ट्रीम पॉपुलर शैली में बनी यह फिल्‍म हिंदी दर्शकों को वहां की फिल्‍मों की गलत छवि देगी। रजनीकांत की फिल्‍में इतनी लचर और स्‍तरहीन नहीं होतीं। उनकी खास शैली होती है,जिसे उन्‍होंने सालों की मेहनत और दर्शकों के प्रेम से हासिल किया है। धनुष अलग श्रेणी के अभिनेता हैं। उन्‍हें इस सांचे में ढालने में सौंदर्या रजनीकांत पूरी तरह से असफल रही हैं। रघुवरण ईमानदार इंजीनियर है। कर्मठ और जमीर का पक्‍का रघुवरण कभी कोई गलत काम नहीं कर सकता। अपनी प्रतिभा से वह किसी को भी ललकार सकता है। संयोग से इस बार उसे वसुंधरा का सामना करना पड

फिल्‍म समीक्षा : बरेली की बर्फी

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फिल्‍म समीक्षा बदली है रिश्‍तों की मिठास बरेली की बर्फी -अजय ब्रह्मात्‍मज शहर बरेली,मोहल्‍ला- एकता नगर, मिश्रा सदन,पिता नरोत्‍तम मिश्रा,माता- सुशीला मिश्रा। नरोत्‍तम मिश्रा का बेटा और सुशीला मिश्रा की बेटी बिट्टी मिश्रा। पिता ने बेटे की तरह पाला और माता ने बेटी की सीमाओं में रखना चाहा। बिट्टी खुले मिजाज की बरेली की लड़की है। अपने शहर में मिसफिट है। यही वजह है कि उसे लड़के रिजेक्‍ट कर के चले जाते हैं। मसलनृएक लड़के ने पूछ लिया कि आप वर्जिन हैं ना ? तो उसने पलट कर उनसे यही सवाल कर दिया। लड़का बिदक गया। दो बार सगाई टूट चुकी है। माता-पिता की नजरों और परेशानी से बचने का उसे आसान रास्‍ता दिखता है कि वह घर छोड़ दे। भागती है,लेकिन ट्रेन के इंतजार में ‘ करेली की बर्फी ’ उपन्‍यास पढ़ते हुए लगता कि उपन्‍यास की नायिका बबली तो हूबहू वही है। आखिर उपन्‍यासकार प्रीतम विद्रोही उसके बारे में कैसे इतना जानते हैं ? वह प्रीतम विद्रोही से मिलने की गरज से घर लौट आती है। ’ बरेली की बर्फी ’ उपन्‍यास का भी एक किससा है। उसके बारे में बताना उचित नहीं होगा। संक्षेप में चिराग पांडे(आयुष्‍मान

रोज़ाना : आयटम नंबर की लोकप्रियता

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रोज़ाना आयटम नंबर की लोकप्रियता -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म इंडस्‍ट्री में माना जाता है कि गुरु दत्‍त निर्देशित ‘ आर पार ’ में शकीला पर फिल्‍मांकित ‘ बाबूजी धीरे चलना ’ हिंदी सिनेमा का पहला आयटम नंबर है। यह फिल्‍म 1954 में आई थी। गीत मजरूह सुल्‍तानपुरी ने लिखे थे,जिसे आपी नरूयर ने संगीत से संवारा था। उसके बाद वैजयंती माला ने अपन ही फिल्‍मों में कुछ ऐसे डांस नंबर किए,जिन्‍हें आयटम नंबर कहा जा सकता है। हम अभी आयटम नंबर को जिस रूप और अर्थ में जानते हैं,उसकी शुरुआत ‘ हावड़ा ब्रिज ’ के गीत ‘ मेरा नाम चिन चिन चू ’ से होती है। हेलन ने अपनी नृत्‍य प्रतिभा और चपल बंग संचालन से ‘ अयटम नंबर ’ को एक कल्‍ट बना दिया। मदमस्‍त संगीत के बीट पर उन्‍हें पर्दे पर लहराते देखना अनोख व रोमांचक अनुभव होता था। कस्‍बों के सिनेमाघरों में उनकी फिल्‍में लगती थीं तो रिक्‍शे पर प्रचार के लिए निकले उद्घोषक यह बताना नहीं भूलते थे कि इसमें हेलन का डांस है। तब सिनेमा के शौकीनों की मांग पर डांस नंबर दो बार भी दिखा दिए जाते थे। डांस नंबर कहें या आयटम नंबर...दर्शकों की ललक हमेशा ऐसे गीत-नृत्‍य की ओर रही

फिल्‍म समीक्षा : पार्टीशन 1947

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फिल्‍म रिव्‍यू पार्टीशन 1947 -अजय ब्रह्मात्‍मज देश के बंटवारे का जख्‍म अभी तक भरा नहीं है। 70 सालों के बाद भी वह रिस रहा है। भारत,पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश बंटवारे के प्रभाव से निकल ही नहीं पाए हैं। पश्चिम में द्वितीय विश्‍वयुद्ध और अन्‍य ऐतिहासिक और राजनीतिक घटनाओं पर फिल्‍में बनती रही हैं। अपने देश में कम फिल्‍मकारों ने इस पर ध्‍यान दिया। ‘ गर्म हवा ’ और ‘ पिंजर ’ जैसी कुछ फिल्‍मों में बंटवारे और विस्‍थापन से प्रभावित आम किरदारों की कहानियां ही देखने को मिलती हैं। गुरिंदर चड्ढा की फिल्‍म का नाम ही ‘ पार्टीशन 1947 ’ है। भारत में नियुक्‍त ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटेन के दृष्टिकोण से चित्रित इस फिल्‍म में ऐतिहासिक दस्‍तावेजों का भी सहारा लिया गया है। कुछ दस्‍तावेज तो हाल के सालों में सामने आए हैं। उनकी पृष्‍ठभूमि में बंटवारे का परिदृश्‍य ही बदल जाता है। गुरिंदर चड्ढा ने लार्ड माउंटबेटेन और उनके परिवार के सदस्‍यों के साथ आलिया और जीत की प्रेमकहानी भी रखी है। यह फिल्‍म दो स्‍तरों पर साथ-साथ चलती है। 1947 में आजादी के ठीक पहले चल रही राजनीतिक गतिविधियों के ब