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सिनेमालोक : बायोपिक नहीं है पैडमैन

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सिने मा लोक बायोपिक नहीं है पैडमैन - अजय ब्रह्मात्मज पिछले हफ्ते रिलीज हुई अक्षय कुमार की चर्चित फिल्म ' पैडमैन ' अरुणाचलम मुरुगनंतम   के जीवन और कार्य पर आधारित होने के बावजूद उनकी बायोपिक नहीं है। हालांकि रिलीज के पहले के प्रचार में अरुणाचलम के निरंतत उल्लेख और प्रचार अभियान व विशेष शो में उनकी भागीदारी से यह अहसास होता रहा कि यह फ़िल्म उनकी बायोपिक हो सकती है। प्रदर्शन के बाद पता चला कि यह मध्यप्रदेश के मालवा इलाके लक्ष्मीकांत चौहान की कहानी है। फ़िल्म के सारे प्रसंग अरुणाचलम के जीवन से लेकर लक्ष्मीकांत पर आरोपित कर दिए गए हैं। इस प्रयोग या प्रयास के बारे में सही जानकारी निर्देशक आर बाल्की या निर्माता और मूल लेखिका ट्विंकल खन्ना दे सकती हैं। इतना स्पष्ट है कि अरुणाचलम की सहमति और सहयोग के बावजूद फ़िल्म तमिलनाडु के कोयम्बटूर के उस साहसी व्यक्ति की नहीं है , जिसने सैनिटरी नैपकिन के सस्ते उत्पादन और बिक्री में क्रांति ला दी थी। मालवा के लक्ष्मीकांत की कहानी के रूप में यह अरुणाचलम के महती योगदान का निषेध कर देती है। फिल्में भी इतिहास रचती हैं। पांच-छह दशकों

फ़िल्म समीक्षा : पैडमैन

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 फ़िल्म समीक्षा : पैडमैन -अजय ब्रह्मात्मज लगभग 11 साल पहले तमिलनाडु के कोयम्बटूर के अरुणाचलम मुरुगनंतम चेन्नई के आईआईटी में न्यूनतम लागत से सैनिटरी पैड बनाने की मशीन का प्रदर्शन किया था। 1962 में जन्मे वरुणाचालम की शादी 36 साल की उम्र में 1998 में हुई। शादी के बाद उन्होंने महसूस किया कि सदियों पुरानी मान्यता और परंपरा के कारण उनकी पत्नी शांति भी माहवारी के दिनों में गंदे कपड़ों और अखबारों के इस्तेमाल करती हैं। अनपढ़ वरुणाचालम का परिवार गरीब भी था। उनकी पत्नी और बहनें बाजार में उपलब्ध महंगे पैड नहीं खरीद सकती थीं। वरुणाचालम ने ठान लिया कि वे अपनी पत्नी,बहनें और समाज की महिलाओं के लिए सस्ती लागत में पड़ बनायेंगे। सामान्य रुई से बनाये अपने पैड का प्रयोग उन्होंने पत्नी पर किया। प्रयोग असफल रहा,क्योंकि सामान्य रुई रक्तस्राव को सोख नहीं सकी। उन्होंने और भी यत्न किये,पत्नी के मन करने पर बहनों और पड़ोस की लड़कियों से भी अपने बनाये पैड आजमाने का आग्रह किया। इस प्रयास में उनकी बदनामी हुई और परिवार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। इनके बावजूद अरुणाचलम ने ज़िद नही छोड़ी। उन्होंने खुद पर ही प्रयोग किये। और

सिनेमालोक : जोखिम से मिली सफलता शाहिद को

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सिनेमालोक जोखिम से मिली सफलता शाहिद को -अजय ब्रह्मात्‍मज संजय लीला भंसाली की फिल्‍म ‘पद्मावत’ ने 200 करोड़ के कलेक्‍शन का आंकड़ा पार कर लिया है। पिछले दिनों ट्वीटर पर मैंने अपने टाइमलाइन पर फिल्‍म के तीनों कलाकारों(दीपिका पादुकोण,रणवीर सिंह और शाहिद कपूर) और निर्देशक संजय लीला भंसाली का नाम लेकर पूछा कि कलेक्‍शन की इस कामयाबी का श्रेय किसे मिलना चाहिए तो ज्‍यादा ने स्‍वाभाविक रूप से संजय लीला भंसाली का नाम लिया। उसके बाद रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण के नाम आए। शाहिद कपूर का स्‍थान सबसे नीचे रहा। हां,कुछ दोस्‍तों ने इन चारों नामों से बाहर जाकर करणी सेना का उल्‍लेख किया। इससे पता चलता है कि ‘पद्मावत’ में शाहिद कपूर की फिल्‍म और फिल्‍म के असर में गौण भूमिका है। इस लिहाज से शाहिद कपूर ने सचमुच जोखिम का काम किया है। हिंदी फिल्‍मों में कलाकार ऐसे जोखिम उठाते रहे हैं,जिनका तात्‍कालिक असर नहीं दिखता। समय बीतने के साथ उनके फैसलों की महत्‍ता समझ में आती है। उसी के अनुरूप उन्‍हें लाभ भी होता है। मुझे पूरा यकीन है कि शाहिद कपूर की फिल्‍मोग्राफी में ‘पद्मावत’ का विेशेष स्‍थान रहेगा।

अनोखे गीत : कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में

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अजीत और सुरैया की इस फिल्म 'मोती महल' का निर्देशन रवीन्द्र दवे ने किया था. १९५२ में रिलीज़ हुई इस फिल्म में सुरैया के गाए कई गीत थे. एक बार सुरैय्या शूटिंग पर देर से आई और बताया की रास्ते में कार खराब हो गई थी और यूनिट के लोगों को पूरा किस्सा सुनाया जो की गीतकार प्रेम धवन ने भी सुना. कहते हैं उसी पर ये गाना उन्होने लिखा जिसे बाद में मोती महल फिल्म मे शामिल किया गया. आज विविध भारती पर सुरैया की पुण्य तिथि ( 31जनवरी 2004)  के अवसर पर रेडियो सखी ममता सिंह ने सुरैया का गाया यह गाना पेश किया....  कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में खड़े रहो बस बेबस होकर रस्ते में कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में कपडे हों मैले मुँह काला काला हो वो सुरैया या मधुबाला आ हो हो वो सुरैया या मधुबाला बड़े बड़े भी बन जाया करते है जोकर रस्ते में बड़े बड़े भी बन जाया करते है जोकररस्ते में कभी न बिगड़े किसी की मोटर रस्ते में बार बार हैंडल को घुमाया धक्के दे दे सर चकराया धक्के दे दे सर चकराया निकल गया है अपना तो हाय रे कचूमर रस्ते में निकल गया है अपना

सिनेमालोक : फिल्‍मों में गांधीजी

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सिनेमालोक फिल्‍मों में गांधीजी -अजय ब्रह्मात्‍मज आज से ठीक 70 साल पहले 30 जनवरी को महात्‍मा गांधी की नियमित प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे ने उन पर तीन गोलियां चलाई थीं। ‘हे राम’ बोलते हुए गांधी जी ने अंतिम सांसें ली थीं और उनकी इहलीला समाप्‍त हो गई थी। इसके बावजूद सत्‍तर सालों के बाद भी महात्‍मा गांधी व्‍यक्ति और विचार के रूप में आज भी जिंदा हैं। हर भारतीय अपने दैनंदिन जीवन में उनसे मिलता है। उनकी छवि देखता है। जाने-अनजाने उन्‍हें आत्‍मसात करता है। राष्‍ट्रपिता के तौर पर वे चिरस्‍मरणीय हैं। भारतीय नोट पर अंकित उनका चित्र मुहावरे के तौर पर इस्‍तेमाल होता है। लगभग हर शहर में एक महात्‍मा गांधी मार्ग है। शहर के किसी नुक्‍कड़ या चौराहे पर विभिन्‍न आकारों में उनकी प्रतिमाओं के भी दर्शन होते हैं। भारतीय समाज में भगवान बुद्ध,महात्‍मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमाएं सबसे ज्‍यादा प्रचलित हैं। शेष दोनों से विशेष दर्जा हासिल है महात्‍मा गांधी को। उनकी तस्‍वीरें कोर्ट-कचहरी,थाने,दफ्तर,सरकारी कार्यालयों,स्‍कूल-कालेज और अन्‍य सार्वजनिक जगहों पर भी दिखाई पड़ती हैं। शायद ही