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फिल्‍म समीक्षा : रेड

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फिल्‍म समीक्षा हिंदी समाज की बुनावट के चरित्रों की कहानी रेड -अजय ब्रह्मात्‍मज रितेश शाह की लिखी स्क्रिप्‍ट पर राज कुमार गुप्‍ता निर्देशित फिल्‍म ‘रेड’ के नायक अजय देवगन हैं। मुंबई में बन रही हिंदी फिल्‍मों में हिंदी समाज नदारद रहता है। रितेश और राज ने ‘रेड’ को लखनऊ की कथाभूमि दी है। उन्‍होंने लखनऊ के एक दबंग नेता के परिवार की हवेली में प्रवेश किया है। वहां की पारिवारिक सरंचना में परिवार के सदस्‍यों के परस्‍पर संबंधों के साथ उनकी समानांतर लालसा भी देखी जा सकती है। जब काला धन और छिपी संपत्ति उद्घाटित होती है तो उनके स्‍वार्थों का भेद खुलता है। पता चलता है कि संयुक्‍त परिवार की आड़ में सभी निजी संपत्ति बटोर रहे थे। घर के बेईमान मुखिया तक को खबर नहीं कि उसके घर में ही उसके दुश्‍मन और भेदी मौजूद हैं। इस फिल्‍म के मुख्‍य द्वंद्व के बारे में कुछ लिखने के पहले यह गौर करना जरूरी है कि हिंदी फिल्‍मों में उत्‍तर भारत के खल चरित्रों को इस विस्‍तार और बारीकी के साथ कम ही पर्दे पर उतारा गया है। प्रकाश झा की फिल्‍मों में सामंती प्रवृति के ऐसे नेता दिखते हैं,जो राजनीति क

दरअसल : महूरत का मौका और महत्‍व...

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दरअसल: महूरत का मौका और महत्‍व... जागरण के 'सिने संवाद' स्तम्भ में वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की कलम और नज़र से जानिए हिंदी सिनेमा की कुछ अनकही और दिलचस्प बातें... 9 जनवरी 2018 को निर्देशक इंद्र कुमार ने अपनी नई फिल्‍म ‘टोटल धमाल’ का महूरत किया। महूरत...मुहूर्त का बिगड़ा हुआ रूप महूरत ही हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में प्रचलित है। किसी भी फिल्‍म की शूटिंग आरंभ होने के पहले दिन शुभ मुहूर्त में पहला शॉट लिया जाता है। पुराने निर्माता महूरत पर खास ध्‍यान देते थे। खास मेहमानों और प्रेस के लोगों के बीच विशेष कार्यक्रम का आयोजन होता था। पूजा-पाठ के बाद उस दिन बुलाए कलाकारों के साथ किसी एक सीन के कुछ संवाद बुलवा लिए जाते हैं। आज भी वही होता है,लेकिन अब आयोजन नही होता। उसे किसी इवेंट की तरह नहीं सेलिब्रेट किया जाता। परंपरा निभाई जाती है। नारियल फोड़ने के बाद कैमरा ऑन होता है। सभी एक-दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। डेढ़ दशक पहले तक महूरत एक बड़ा आयोजन हुआ करता था। आज के मीडियाकर्मियों को याद भी नहीं होगा कि उन्‍होंने आखिरी महूरत कब देखा था। यों छ

हिंदी टाकीज 2(12) : बदले दौर की बदलती नायिका - उर्मिला गुप्ता

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उर्मिला गुप्ता , पेशे से अनुवादक/संपादक , दिल से पूरी तरह फ़िल्मी | पिछले दस सालों से किताबों की दुनिया में काम करते हुए  20 से ज्यादा किताबों का अनुवाद किया , जिनमें अमीश त्रिपाठी की “सीता: मिथिला की योद्धा”, "इक्ष्वाकु के वंशज" , रश्मि बंसल की "छू लो आसमान" , " सात रंग के सपने" , " मेरे देश की धरती" और अनुजा चौहान की "बैटल फॉर बिटोरा (जिन्नी)" शामिल हैं। राजकमल प्रकाशन से जुड़ने से पहले यात्रा बुक्स में संपादन और अनुवाद कार्य किया | इसके अलावा   स्कोलास्टिक , हार्पर कॉलिन्स , जगरनॉट , वेस्टलैंड और पेंगुइन के साथ स्वतन्त्र रूप से काम किया है। अभी हाल ही अनुवाद कार्य के लिए भारतीय अनुवाद परिषद् से ' द्विवागीश पुरस्कार ' प्राप्त हुआ है | बदले दौर की बदलती नायिका ‘अर्पित मेरा मनुज काय, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ कहने वाला हमारा समाज पता नहीं कब और कैसे ‘वैयक्तिक हित’ की ओर बढ़ गया| बात ये नहीं है कि ये सोच सही है या गलत – लेकिन सोच में ये बदलाव तो आया ही है| आज ‘लाइफ कोच’ आपसे खुलकर सबसे ऊपर अपनी खुशी रखने की बात क