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रोज़ाना : दर्शकों तक नहीं पहुंचती छोटी फिल्‍में

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रोज़ाना दर्शकों तक नहीं पहुंचती छोटी फिल्‍में -अजय ब्रह्मात्‍मज बड़े बिजनेश के लोभ में बड़ी फिल्‍मों को बड़ी रिलीज मिलती है। यह दस्‍तूर पुराना है। सिंगल स्‍क्रीन के जमाने में एक ही शहर के अनेक सिनेमाघरों में पॉपुलर फिल्‍में लगाने का चलन था। फिर स्‍टेशन,बस स्‍टेशन और बाजार के पास के सिनेमाघरों में वे फिल्‍म हफ्तों चलती थीं। दूसरे सिनेमा घरों में दूसरी फिल्‍मों को मौका मिल जाता थो। सिंगल स्‍क्रीन में भी सुबह के शो पैरेलल,अंग्रेजी या साउथ की डब फिल्‍मों के लिए सुरक्षित रहते थे। कम में ही गुजारा करने के भारतीय समाज के दर्शन से फिल्‍मों का प्रदर्शन भी प्रेरित था। हर तरह की नई और कभी-कभी पुरानी फिल्‍मों को भी सिनेमाघर मिल जाते थे। तब फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो या पहले वीकएंड में ही फिल्‍में देखने की हड़बड़ी नहीं रहती थी। छोटी फिल्‍में हफ्तों क्‍या महीनों बाद भी आती थीं तो दर्शक मिल जाते थे। मल्‍टीप्‍लेक्‍स आने के बाद ऐसा लगा था कि छोटी फिल्‍मों को प्रदर्शन का स्‍पेस मिल जाएगा। शुरू में ऐसा हुआ भी,लेकिन धीरे-धीरे ज्‍यादा कमाई के लिए मल्‍टीप्‍लेक्‍स मैनेजर बड़ी फिल्‍मों को ज्‍यादा श

दरअसल : खानत्रयी का आखिरी रोमांटिक हीरो

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दरअसल.... खानत्रयी का आखिरी रोमांटिक हीरो -अजय ब्रह्मात्‍मज दोनों पैरों के बीच खास दूरी बना कर ऐंठते हुए वे जब अपनी बांहों को फैला कर ऊपर की ओर उठाते हैं तो यों लगता है कि वे पूरी दुनिया को उसमें समोने के लिए आतुर है। उनका यह रोमांटिक अंदाज ै।इतना पॉपुलर है कि कोई भी निर्देशक इसे दोहराने से नहीं बचता। शाह रूख खान भी सहर्ष तैयार हो जाते हैं। अब तो इवेंट और शो में भी उनसे फरमाईश होती है कि इस क्‍लासिक रोमांटिक अंदाज में वे अपनी तस्‍वीर उतारने दें। गौर करेंगे इस पोज में वे दायीं तरफ देख रहे होते हैं और कैमरा भी दायीं तरफ ही रहता हैं। उनके होंठो पर आकर्षक टेढ़ी मुस्‍कान रहती है। वे खुली बांहों से सभी को निमंत्रण दे रहे होते हैं। अब तो उनकी मिमिक्री कर रहे कलाकार भी उनके इस अंदाज से वाहवाही बटोर लेते हैं। आज रिलीज हो रही ‘ जब हैरी मेट सेजल ’ में इम्तियाज अली ने अगर उनके इस अंदाज को दोहराया होगा तो कोई जुर्म नहीं किया होगा। दर्शक तो मुग्‍ध ही होंगे। ‘ जब हैरी मेट सेजल ’ रोमांटिक फिल्‍म होने का अहसास दे रही है। वैसे भी शाह रुख खान कह ही चुके हैं कि इम्तियाज अली नए जमाने के

जिंदगी और साहित्‍य के अनुभव हैं मेरी फिल्‍मों में –इम्तियाज अली

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जिंदगी और साहित्‍य के अनुभव हैं मेरी फिल्‍मों में – इम्तियाज अली -अजय ब्रह्मात्‍मज इम्तियाज़ अली अपनी नई फिल्म के साथ प्रस्तुत हैं।इस बार वे शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा के साथ ' जब हैरी मेट सेजल ' लेकर आ रहे हैं। रोमांस और प्रेम की फिल्मों से 21 वीं सदी में खास पहचान बना चुके इम्तियाज़ इस बार कुछ अलग अंदाज़ में अपनी खोज के साथ मौजूद हैं। हमारी सीधी बातचीत फ़िल्म के बारे में... - बताएं ' जब हैरी मेट सेजल ' क्या है ? 0 यह सफर की कहानी है।कहानी बहुत सिंपल है। बहुत सीधी और थीं लाइन है। हैरी ( शाह रुख खान) यूरोप में ट्रेवल गाइड है। वह पंजाब का मूल निवासी है , लेकिन पिछले कई सालों से यूरोप में है। वह टूर गाइड है। पिछले टूर की एक लड़की उनके पास वापस आती है। उसकी अंगूठी खे गई है। अंगूठी ढूंढने में वह हैरी की मदद चाहती है। हैरी हैरान भी होता है कि मैं कैसे मदद कर सकता हूं। वह कहती है कि आप ही ले गए थे। आप को मालूम है कि हम कहां-कहां गए थे। अंगूठी की खोज में दोनों की बाहरी और अंदरूनी जर्नी पर है यह फिल्‍म। वे खुद के बारे में क्‍या डिस्‍कवर करते हैं और इनका रि

फिल्‍म समीक्षा : गुड़गांव

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फिल्‍म रिव्‍यू सटीक परिवेश और परफारमेंस गुड़गांव -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍में संवादों पर इतनी ज्‍यादा निर्भर हो चुकी हैं और उनकी दर्शकों को ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी फिल्‍म में निर्देशक भाव,संकेत और मुद्राओं से काम ले रहा हो तो उनकी बेचैनी बढ़ने लगती है। दर्श्‍क के तौर पर हमें चता नहीं चलता कि फिल्‍म हमें क्‍यो अच्‍छी नहीं लग रही है। दरअसल,हर फिल्‍म ध्‍यान खींचती है। एकाग्रता चाहिए। दर्शक्‍ और समीक्षक इस एकाग्रता के लिए तैयार नहीं हैं। उन्‍हें अपने मोबाइल पर नजर रखनी है या साथ आए दर्शक के साथ बातें भी करनी हैं। आम हिंदी फिल्‍मों में संवाद आप की अनावश्‍यक जरूरतों की भरपाई कर देते हैं। संवादों से समझ में आ रहा होता है कि फिल्‍म में क्‍या ड्रामा चल रहा है ? माफ करें, ‘ गुड़गांव ’ देखते समय आप को फोन बंद रखना होगा और पर्देपर चल रही गतिविधियों पर ध्‍यान देना होगा। नीम रोशनी में इस फिल्‍म के किरदारों की भाव-भंगिमाओं पर गौर नहीं किया तो यकीनन फिल्‍म पल्‍ले नहीं पड़ेगी। शंकर रमन की ‘ गुड़गांव ’ उत्‍कृष्‍ट फिल्‍म है। दिल्‍ली महानगर की कछार पर बसा गांव ‘ गुड़गांव ’ ज

रोज़ाना : नाखुश हैं फिल्‍मकार

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रोज़ाना नाखुश हैं फिल्‍मकार -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म और टीवी डायरेक्‍टर्स के संगठन ‘ इफ्तडा ’ ने ‘ बाबूमोशाय बंदूकबाज ’ को सीबीएफसी की तरफ से मिले 48 कट्स के मामले में विरोध दर्ज किया है। विरोध दर्ज करने के लिए उन्‍होंने ‘ बाबूमोशाय बंदूकबाज ’ के डायरेक्‍टर और प्रोड्यूसर के साथ संगठन के अन्‍य सदस्‍य भी हाजिर हुए। इनमें ‘ उड़ता पंजाब ’ के डायरेक्‍टर अभिेषेक चौबे और ‘ लिपस्टिक अंडर माय बुर्का ’ की डायरेक्‍टा अलंकृता भीवास्‍तव भी थीं। सभी ने सीबीएफसी के साथ हुए अपने कड़वे अनुभवों को शेयर किया। उन्‍होंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि पिछले तीन सालों में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मंत्री बदल गए,लेकिन अध्‍यक्ष बने हुए हैं। उन्‍हें नहीं बदला जा रहा है। उनके नेतृत्‍व में सीबीएफसी लगातार अपने फैसलों में नीचे की ओर जा रही है। फिल्‍मकारों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। एक खौफ का माहौल सा बन गया है,जिसमें सर्टिफिकेशन के लिए फिल्‍म जमा करते समय निर्माता-निर्देशक डरे रहते हैं कि मालूम नहीं क्‍या फरमान आए ? और उन्‍हें और कितने चक्‍कर लगाने पड़ें। ‘ बामूमोशाय बंदूकबाज ’ उत्‍तर भा

रोज़ाना : आजादी का पखवाड़ा

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रोज़ाना आजादी का पखवाड़ा -अजय ब्रह्मात्‍मज 15 अगस्‍त तक चैनल और समाचार पत्रों में आजादी की धमक मिलती रहेगी। मॉल और बाजार भी इंडपेंडेस सेल के प्रचार से भर जाएंगे। गली,नुक्‍कड़ और चौराहों पर तिरंगा ल‍हराने लगेगा। आजादी का 70 वां साल है,इसलिए उमंग ज्‍यादा रहेगी। जश्‍न होना भी चा‍हिए। आजाद देश के तौर पर हम ने चहुमुखी तरक्‍की की है। अभी और ऊचाइयां हासिल करनी हैं। समृद्ध और विकसित देशों के करीब पहुंचना है। जरूरी है कि हम आजादी का महत्‍व समझें और उसे के भावार्थ को जान-जन तक पहुंचाएं। बिल्‍कुल जरूरी नहीं है कि दुश्‍मनों के होने पर ही देशहित और राष्‍ट्र की बातें की जाएं या उन बातों के लिए एक दुश्‍मन चुन लिया जाए। अभी यह चलन बनता जा रहा है कि हम पड़ोसी देशों की दुश्‍मनी के नाम पर ही राष्‍ट्र की बातें करते हैं। वास्‍तव में अपनी कमियों से मुक्ति और आजादी की लड़ाई हमें लड़नी है। हर फ्रंट पर देश पिछड़ता और फिसलता दिख रहा है। उसे रोकना है। विकास के रास्‍तों को सुगम करना है। परस्‍पर सौहार्द और समझदारी के साथ आगे बढ़ना है। राजनीतिक दांव-पेंच में न फंस कर हमें देश के हित में सोचना और कार्य

रोज़ाना : प्रेमचंद और रफी एक साथ

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रोज़ाना प्रेमचंद और रफी एक साथ -अजय ब्रह्मात्मज प्रेमचंद और रफी एक साथ क्यों और कैसे? यही सवाल मेरे मन भी उठा। पूरा वाकया यूँ है... जागरण फ़िल्म फेस्टिवल के सिलसिले में देहरादून जाना हुआ। उत्तर भारत का यह खूबसूरत शहर किसी और प्रान्त की राजधानी की तरह बेतरतीब तरीके से पसर रहा है। स्थानीय नागरिक मानते हैं कि राजधानी बनने के बाद देहरादून बिगड़ गया। अब यह पहले का देहरादून नहीं रह गया। बहरहाल,मौसम और पर्यावरण के लिहाज से यह शहर सभी आगंतुकों को आकर्षित करता है। कुछ यहां रिटायरमेंट के बाद बसने की सोचते हैं। इलाहाबाद में लंबे समय तक रहने बाद लालबहादुर वर्मा का दिल्ली में मन नहीं लगा तो वे देहरादून आ गए। उन्होंने मुख्य शहर से दूर बस रही नई कॉलोनी में अपना ठिकाना बनाया है। वे यहीं से अध्ययन और लेखन कर रहे हैं। इतिहासकार लालबहादुर वर्मा के बारे में कम लोग जानते हैं कि लोकप्रिय संस्कृति खास कर सिनेमा में उनकी विशेष अभिरुचि है। प्रेमचंद और रफी का प्रसंग उनसे जुड़ा है।मुलाक़ात के दौरान उनके एक साथी एक बैनर का फ्लेक्सप्रिंट लेकर आए। उस पर बायीं तरफ प्रेमचंद और दायीं तरफ रफी की त

फिल्‍म समीक्षा : मुबारकां

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फिल्‍म रिव्‍यू मजेदार मनोरंजक फिल्‍म मुबारकां -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले कुछ सालों में कॉमेडी ने डबल मीनिंग डॉयलॉग,यौनाचार की मुद्राओं और देहदर्शन का रूप ले लिया है। निर्माता सेक्‍स कॉमेडी की हद तक गए,जिन्‍हें दर्शकों ने ही दरकिनार कर दिया। गोविंदा की लोकप्रियता के दिनों में ऐसी फिल्‍मों का एक दौर था, जब डेविड धवन,अनीस बज्‍मी और रुमी जाफरी ने मिलकर दर्शकों को खूब हंसाया। उनकी फिल्‍में शुद्ध हास्‍य को लकर चलती थीं और स्‍थानों,स्थितियों और किरदारों की दिलचस्‍प भिड़तों से हंसी के फववारे छोड़ती थीं। दर्शक भी भगते और लोटपोट होते रहते थे। फिर एक ऐसा दौर आया कि इनकी ही फिल्‍मों में द्विअर्थी संवाद घुस आए और संकेतों में सेक्‍स की बातें होने लगीं। और लोकप्रियता की लकीर पर चलते हुए कुछ निर्माता-निर्देशक सेक्‍स कॉमेडी की गलियों में भटक गए। एक अंतराल के बाद अनीस बज्‍मी की वापसी हुई है। वे नानसेंस ड्रामा लेकर आए हैं,जिसमें हास्‍यास्‍पद स्थितियां बनती हैं और हम फिर से ठहाके लगाते हैं। हिंदी फिल्‍मों की यह लोकप्रिय मनोरंज‍क धारा सूख सी गई थी। अनीस बज्‍मी ने अपने पुराने दोसत और भरोसेम

फिल्‍म समीक्षा : इंदु सरकार

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फिल्‍म रिव्‍यू इंदु सरकार -अजय ब्रह्मात्‍मज शाह कमीशन की रिपोर्ट और भारत सरकार के तमाम विभागों के सहयोग और इनपुट के साथ बनी मधुर भंडारकर की ‘ इंदु सरकार ’ देश आपात्‍काल के समय और दुष्‍परिणामों को नहीं पेश कर पाती। फिल्‍म में लंबा डिसक्‍लेमर है कि ‘ फिल्‍म में दिखाए सभी पात्र और घटनाएं पूरी तरह से काल्‍पनिक हैं,वास्‍तविकता से कोई समानता होती है,तो वह मात्र एक संयोग होगा। कोई भी समानता,चाहे वह किसी व्‍यक्ति (मृत या जीवित),पात्र या इतिहास से हो,पूरी तरह काल्‍पनिक है। ‘ इस डिसक्‍लेमर के बाद कुछ किरदारों का संजय गांधी,इंदिरा गांधी,कमलनाथ,जगदीश टाइटलर की तरह दिखना कांग्रेस के शासन में लगे आपातकाल का संकेत तो देता है,लेकिन बगैर नाम के आए इन चेहरों से फिल्‍म का प्रभाव पतला हो जाता है। संदर्भ और विषय की गंभीरता नहीं बनी रहती। हालांकि फिल्‍म में किशोर कुमार,तुर्कमान गेट और नसबंदी जैसे वास्‍तविक आपातकालीन प्रसंग आते हैं। 20 सूत्री कार्यक्रम और पांच सूत्री कार्यक्रम का जिक्र आता है,फिर भी फिल्‍म आपातकाल के दौर में घुसने से बचती है। यह फिल्‍म आपातकाल के हादसों और फैसलों से रोंगटे नह

रोज़ाना : रिलीज तक व्‍यस्‍त रहते हैं निर्देशक

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रोज़ाना रिलीज तक व्‍यस्‍त रहते हैं निर्देशक -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों रणबीर कपूर के पिता ऋषि कपूर ‘ जग्‍गा जासूस ’ के निर्देशक अनुराग बसु पर भड़के हुए थे। उन्‍होंने अनुराग बसु की लेट-लतीफी की खिंचाई की। बताया कि फिल्‍म की रिलीज के दो दिन पहले तक वे पोस्‍ट प्रोडक्‍शन में लगे हुए थे। उन्‍होंने फिल्‍म किसी को नहीं दिखाई। और फिल्‍म रिलीज हुई तो ऋषि कपूर समेत कई दर्शकों को पसंद नहीं आई। ऋषि कपूर की शिकायत का आशय यह था कि अगर वक्‍त रहते शुभचिंतक फिल्‍म देख लेते तो वे आवश्‍यक सुधार की सलाह देते। तब शायद फिल्‍म की ऐसी आलोचना नहीं होती। कहना मुश्किल है कि क्‍या होता ? अगर रिलीज के पहले दिखा और ठोक-बजा कर रिलीज की सारी फिल्‍में सफल होतीं तो ऋषि कपूर की कोई भी फिल्‍म फ्लॉप नहीं हुई होती। फिल्‍मों की सफलता-असफलता बिल्‍कुल अलग मसला है। उस मसले से इतर यह आज की सच्‍चाई है कि तकनीकी सुविधाओं के चलते निर्देशक और उनकी तकनीकी टीम अंतिक क्षणों तक फिल्‍म में तब्‍दीलियां करती रहती हैं। उनकी यही मंशा रहती है कि कोई कमी या कसर ना रह जाए। मुमकिन है इससे फिल्‍म को संवारने में मदद मिलती हो।

सात सवाल : तिग्‍मांशु धूलिया

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सात सवाल तिग्‍मांशु धूलिया -अजय ब्रह्मात्‍मज तिग्‍मांशु धूलिया ने आईएनए ट्रायल पर ‘ राग देश ’ फिल्‍म निर्देशित की है। यह फिल्‍म लाल किले में सहगल,ढिल्‍लों औौर शाहनवाज पर चले मुकदमे का पर आधारित है। राज्‍य सभा टीवी ने इसका निर्माण किया है। -राज्‍य सभा टीवी के लिए ‘ राग देश ’ बनाने का संयोग कैसे बना ? 0 ऐसी कोई फिल्‍म मेरे एजेंडा में नहीं थी। राज्‍य सभा टीवी के गुरदीप सप्‍पल मेरे पास दो प्रोजेक्‍ट लेकर आए- एक सरदार पटेल और दूसरा आईएनए ट्रायल। उन्‍होंने पूछा कि बनाना चाहोगे क्‍या ? मैंने तुरंत कहा कि सरदार पटेल तो मैं कर चुका हूं। आईएनए ट्रायल पर काम करूंगा। मेरी इतिहास में थोड़ी रुचि है। और फिर मुंबई के सेटअप में मुझे ऐसी फिल्‍म बनाने के लिए कोई णन देता नहीं। - आप ने इसे किस तरह शूट किया। फार्मेट का चुनाव कैसे किया ? 0 हम ने स्क्रिप्‍ट तो 6 घंटों के 6 एपीसोड के हिसाब से लिखी थी। शूट भी वैसे ही किया। एडिट पर हम ने यह फिल्‍म निकाली। -यह हमारे निकट अतीत की बात है,जिसके साक्ष्‍य मौजूद हैं। फिल्‍म के रूप में लाने की कैसी चुनौतियां रहीं ? 0 फिल्‍म के 99 प्रतिशत दृश

दरअसल : ट्रेलर और गानों के व्‍यूज की असलियत

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दरअसल... ट्रेलर और गानों के व्‍यूज की असलियत -अजय ब्रह्मात्‍मज आए दिन रिलीज हो रही फिल्‍म के निर्माता और अन्‍य संबंधित निर्देशक व कलाकार सोशल मीडिया पर बताते रहते हैं कि उनके ट्रेलर और गानों को इतने लाख और करोड़ व्‍यूज मिले। तात्‍पर्य यह रहता है कि उक्‍त ट्रेलर या गाने को संबंधित स्‍ट्रीमिंग चैनल पर उतनी बार देखा गया। ज्‍यादातर स्‍ट्रीमिंग यूट्यूब के जरिए होती है। व्‍यूज यानी दर्शकता बताने का आशय लोकप्रियता से रहता है। यह संकेत दिया जाता है कि रिलीज हो रही फिल्‍म के ट्रेलर और गानों को दर्शक पसंद कर रहे हैं। इससे निर्माता के अहं की तुष्टि होती है। साथ ही फिल्‍म के पक्ष में माहौल बनाया जाता है। दर्शकों को तैयार किया जाता है। लुक,टीजर,ट्रेलरऔर गानों को लकर ऐसे दावे किए जाते हैं। आम दर्शकों पर इसका कितना असर होता है ? क्‍या वे इसके दबाव में फिल्‍म देखने का मन बनाते हैं ? अभी तक कोई स्‍पष्‍ट अध्‍ययन या शोध उपलब्‍ध नहीं है,जिससे व्‍यूज और दर्शकों का अनुपात तय किया जा सके। सफलता का अनुमान किया जा सके। टीजर,ट्रेलर या गाने आने के साथ फिल्‍म से जुड़े सभी व्‍यक्ति सोशल मीडिया

फिल्‍म समीक्षा : पर्दे पर इतिहास के पन्‍ने

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फिल्‍म रिव्‍यू पर्दे पर इतिहास के पन्‍ने राग देश -अजय ब्रह्मात्‍मज तिग्‍मांशु घूलिया की ‘ राग देश ’ का बनना और सिनेमाघरों में रिलीज होना ही एक घटना है। राज्‍य सभा टीवी की इस पहल की तारीफ करनी चाहिए कि उन्‍होंने समकालीन इतिहास के एक अध्‍याय को फिल्‍म के रूप में पेश करने के बारे में सोचा। तिग्‍मांशु धूलिया ने आजाद हिंदी फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान,लेफिटनेंट कर्नल गुरबख्‍श सिहं ढिल्‍लों और लेफिटनेंट कर्नल प्रेम सहगल पर लाल किले में चले मुकदमे पर ही फिल्‍म केंद्रित की है। उस मुकदमें के बहाने आजादी की लड़ाई सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज की भूमिका से भी हम परिचित होते हैं। इतिहास के पन्‍ने दृश्‍यों में सज कर पर्दे पर आते हैं और हम उस दौर की घटनाओं को देख पाते हें। तिग्‍मांशु धूलिया ने मुख्‍य रूप से वास्‍तविक किरदारों और मुकदमें के इर्द-गिर्द ही कहानी रखी है। उन्‍होंने कथा बुनने के लिए कुछ किरदार जोड़े हैं। उन पर अधिक फोकस नहीं किया है। द्वितीय विशव युद्ध में जापना और जर्मनी की हार और ब्रिटेन की जीत के बाद आजाद हिंद फौज के सैनिकों को समर्पण करना पड़ा था। युद्धबंदी के

एक म्‍यूजिकल स्‍केच है जग्‍गा जासूस

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एक म्यूज़िकल स्केच है 'जग्‍गा जासूस' -अनुराग आर्य कहानियो में दिलचस्पी पिता के एक दोस्त ने किताबे गिफ्ट कर के डाली। फिर कहानिया ढूंढ ढूंढ कर पढ़ने का शौक चढ़ा फिर कहानिया देखने का। उम्र कम थी और समांनातर सिनेमा के कुछ फिल्मे बच्चो के लिए वर्जित। दूरदर्शन ही एक खिड़की था उस दुनिया का.शहर में लिमिटेड सिनेमा हाल थे। पर जहाँ मौका लगता फिल्मे देखते। पिता अनुशासन वाले रहे फिल्मो से दूर फिर भी देहरादून स्कूलिंग ने नए दोस्त जोड़े और उनके जरिये नयी फिल्मे। मेडिकल कॉलेज एडमिशन गुजरात के सूरत में हुआ जहाँ इंग्लिश फिल्मो के दो सिनेमाघर होते , और एक थियेटर हॉस्टल के लड़को के मुफीद। तब तक शयाम बेनेगल , मणि कॉल , गोविन्द निहालिनी , सत्यजीत रे , गुरुदत्त , चेतन आनद और राज कपूर के सिनेमा से वाकिफ हो चुके थे। सुधीर मिश्रा , केतन मेहता भी इम्प्रेस करने लगे। सूरत के एक पिक्चर हॉल पर कभी कभी ओल्ड क्लासिक दिखलाता। मदर इण्डिया भी वही देखी। हॉस्टल के दोस्तों ने कई इंग्लिश क्लासिक से इंट्रोडक्शन करवाया , और एक दोस्त ने ईरानी फिल्मो से। तब लगा कैमरे के जरिये कहानी कहने में कितनी ता