हिन्दी टाकीज:इस तरह सुनते जैसे हम देख रहे हों -विमल वर्मा

हिन्दी टाकीज-5

विमल वर्मा अपने बारे में लिखते हैं... बचपन की सुहानी यादो की खुमारी अभी भी टूटी नही है॥ जवानी की सतरगी छाँव गोरखपुर,बलिया,आज़मगढ़, इलाहाबाद, और दिल्ली मे.. फिलहाल १२ साल से मुम्बई मे.. चैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता...उसी खुमारी से हम सिनेमा से सम्बंधित कुछ यादें ले आयें हैं.विमल वर्मा ने वादा किया है की वे बाद में विस्तार से लिखेंगे,तब तक के लिए पेश है....

जब छोटा था तो, फ़िल्म देखना हमारे लिये उत्सव जैसा होता था...घर से नाश्ता॥पानी की बोतल आदि के साथ....पूरा परिवार फ़िल्म देखने जाता था...हमारे लिये एकदम पिकनिक जैसा होता था...बचपन में धार्मिक फ़िल्में देखने ही जाया करते थे.....मैं छोटे बड़े शहर में पिताजी की नौकरी की वजह से बहुत रहे थे......समय रेडियो ट्रांजिस्टर का था कुछ खास गीत होते थे जिन्हें सुनकर हम उन जगहों को याद करते थे.....जहां हम पहले रह आये थे जैसे ।ताजमहल फ़िल्म का गाना "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा" या "हंसता हुआ नूरानी चेहरा".......बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है कानपुर की याद दिलाता, गोरखपुर "ये जो मोहब्बत है ये उनका काम" गोरखपुर की...गोरखपुर के फ़र्टिलाईज़र में एक मनोरंजन केन्द्र हुआ करता था ,जहां हर शनिवार और इतवार फ़िल्म का दिन होता था.....कॉलोनी में सब बच्चों के लिये ये दोनों दिन किसी उत्सव की तरह होता था,मुझे अच्छी तरह याद है जब हम फ़िल्म देखने जाते तो पीछे की सीट के लिय ५० पैसा टिकट था...और हम बच्चों के लिए दरी पर बैठने की व्यवस्था थी जिसका किराया २० पैसे होता था..और हम सबसे आगे बैठकर मज़ा लेते थे फ़िल्म का......

पहले तो फ़िल्म एक स्टैण्डनुमा पर्दे पर दिखाई जाती थी ाअक्सर बच्चों की भगमभाग में फ़िल्म चलते चलते पर्दा गिर जाया करता था, फिर एक हंगामा ,एक शोर चारों तरफ़ फ़ैल जाता था। इससे उबरने के लिये सफ़ेद दीवार को ही पर्दा बना कर उस पर फ़िल्म आयोजकों दिखाना शुरु किया....मुख्यत: ब्लैक एन्ड वाईट ही फ़िल्म और कभी -कदास अंग्रेज़ी फ़िल्म भी देखने को मिल जाती थीं॥अमूमन पुरानी फ़िल्में ही हम देख पाते.....कुछ- कुछ,अंतराल पर पूरे हॉल की बत्तियाँ जल जाती थी,रील बदलने के लिये.........मुनीमजी,दो आँखे बारह हाथ,मधुमती,सूरज,धरती,हसीना मान जाएगी,वो कौन थी,कोहरा,बन्दीनी..हिमालय की गोद में...अभी तो बस इतनी ही फ़िल्में याद आ रहीं हैं और इसी कड़ी में हमने अंग्रेज़ी फ़िल्में भी देखी थीं ..., "बीस साल बाद" देखकर डर गये थे...पर "हक़ीक़त" फ़िल्म का वो गीत जिसे रफ़ी साहब ने गाया था ..."कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों " को को सुनते समय मेरे शरीर के रोंए खड़े हो जाते। हाथी मेरे साथी को देखकर मैने भी राजेश खन्ना कट कुर्ता बनवाया था।

कभी किसी शहर में जाने का मौका मिलता॥तो वहाँ के सबसे अच्छे सिनेमा हॉल में ही सिनेमा देखने का भी चस्का हमे था..जैसे गोरखपुर के तरंग टॉकीज़ में पहली फ़िल्म कच्चे धागे थी और हमने पहले दिन वहां फ़िल्म देखी थी...इलाहाबाद के चन्द्रलोक में..या मुज़फ़्फ़रपुर में खुले नये संजय टॉकीज़ में भी फ़िल्म देखने का मौका हमे मिल चुका था...छोटी जगह में रहते हुए सारी फ़िल्म भी देख लेना सम्भव नहीं था..पर उस समय एक चलन ये भी था कि किसी मित्र ने अगर कोई नई फ़िल्म देख ली तो तो सबको कहानी सुनाता....सब घेर के बैठेते...और पूरी फ़िल्म हम कुछ इस तरह सुनते जैसे हम देख रहे हों .....और कभी कोई पूछता कि फ़लानी फ़िल्म देखे क्या? तो हमारा जवाब हाँ में ही होता..क्यौकी कहानी तो पता रहती थी।

वैसे देवरिया के सलेमपुर का वाक्या याद आता है... सलेमपुर में रहते हुए फ़िल्म कम ही देख पाना हो पाता था...पर कभी गोरखपुर या बनारस जाते तो मौका निकाल कर फ़िल्म ज़रूर देखते थे....कभी -कभी तो ऐसा होता कि गोरखपुर गये और लगातार तीन पिक्चर हॉल में तीन पिक्चर भी देख लेते......और जब कोई कहानी सुनाने के लिये कहता तो तीनों फ़िल्म की कहानी गडमड हो जाया करतीं थीं।

कुछ याद सलेमपुर की भी है, जब हम स्कूल में पढ़ रहे थे सलेमपुर देवरिया जिले का एक तहसील है वहाँ सिनेमा हॉल के नाम पर एक टूरींग टॉकीज़ ही था,हर छ: महीने पर उस सिनेमा हॉल का नाम बदल जाया करता था ...कभी उसका नाम अशोक हो जाता तो कभी सम्राट.....वैसे ।कभी कभी तो टिकट लेने के बाद भी वहां का आदमी आपसे बोल सकता था कि पांच आदमी और ले आइये तो पिक्चर शुरु करते हैं....पिक्चर शुरु करने से पहले सिनेमाहॉल के ऊपर लगे लाउडिस्पीकर से किसी फ़िल्म का गाना बजा करता था॥जब तक गाना बज रहा हो समझिये फ़िल्म अभी शुरु नहीं हुई है.....एक गाना खूब तेज़ -तेज़ बजा करता.....दोनों ने किया था प्यार मगर...............मेरी महुआ तेरे वादे क्या हुए.......गाना बजना बन्द तो समझिये फ़िल्म शुरू हो चुकी है।

।एक गज़ब की घटना याद आ रही है सुनिये...हम वहां दीलीप कुमार की "दास्तान"फ़िल्म देख रहे थे....और इन्टरवल के बाद देखा कोई दूसरी फ़िल्म शुरू हो गई है शायद "हिन्दुस्तान की कसम" ...जब पूछ -ताछ की गई तो पता चला कि रेलवे के मालगोदाम से फ़िल्म चोरी से निकाल कर सिनेमा हॉल वाले दिखा रहे थे...खैर हम फ़िर "हिन्दुस्तान की कसम" देखकर ही आए.........खैर बिजली चले जाने पर आम शहरों की तरह कुर्सियाँ की ठाँ ठूँ तो होती ही थी....और हर जगह की तरह यहां भी लोग अगर किसी वजह से फ़िल्म रूकी तो सिनेमाहॉल वालों के रिश्तेदारों से मैखिक सम्बन्ध भी स्थापित करने लग जाते थे.........

मुझे याद है गोरखपुर के कृष्णा टाकीज़ में एक समय "इंटर क्लास" भी हुआ करता था...उसमें कोई टिकट नहीं होता था...सीट नम्बर हाथ पर लिख दिया जाता था और जब तक हम हॉल में नहीं घुस जाते तब तक अपने हथेली का पसीना सुखाते रहते...डर रहता कि सीट नम्बर कहीं मिट गया तो शायद सिनेमा देखने को नहीं मिलेगी.......
उमर क्या रही थी ये ठीक से पता नहीं पर कला फ़िल्मों का दौर भी चल ही रहा था...मैं अपने बड़े भाई के साथ अंकुर फ़िल्म देखने गया॥इन्टरवल के बाद भी लोग बाग गुमसुम बैठे फ़िल्म देख रहे थे...अचानक फ़िल्म रुक गई हॉल की लाईटें जल गईं...मैने भाई से पूछा ये क्या? तो भाई ने कहा अरे भाई उठो फ़िल्म खत्म हो गई....ये कला फ़िल्म है ना..इसका दी एन्ड ऐसे ही होता है...और ऐसी बहुत सी कला फ़िल्में हमने देखी थी जिसके खत्म होने पर मैं और बड़े भाई एक दूसरे को मुस्कुराते हुए मुँह देखते कहते इसका भी दी एन्ड हो गय़ा...

इलाहाबाद विश्विद्यालय की फ़िल्म सोसायटी हमने बहुत सी फ़िल्म देखी है....तारकोव्स्की,बर्गमैन,कुरोसावा,त्रुफ़ों,गोदार. ... इन महान फ़िल्म निर्देशकों से परिचय मेरा इलाहाबाद का ही है...यहाँ अलग अलग भाषाओं की अंतरराष्ट्रीय फ़िल्में भी हमने खूब देखी हैं ....अपनी कमज़ोर अंग्रेज़ी के चक्कर में समझ में नहीं आता था फ़िल्मों की सबटाईटल पढ़े कि फ़िल्म देखें...इस चक्कर में बहुत सी फ़िल्में सबटाइटिल ही पढ़ने में लगा रहा.....और फ़िल्म खत्म हो जाती थी , सोसायटी के सदस्य फ़िल्म के गम्भीर दर्शक होते... गम्भीरता से फ़िल्म देखते...और बाद में उस फ़िल्म पर बहस भी करते....तो एक बार हम फ़िल्म देख रहे थे...फ़िल्म थी...मणि कौल की उसकी रोटी....बात ८० के दशक की है...देखने वालों में प्रोफ़ेसर और छात्र होते थे..इनकी संख्या ३० से ५० के आस पास होती थी...तो उसकी रोटी जैसी धीमी फ़िल्म का आनन्द ले रहे थे..यहां भी कुछ -कुछ देर पर रील बदलने का खेल रहता...क बार फ़िल्म की रील बदलने के बाद फ़िल शुरु हुई.... रील बदलने के चक्कर में फ़िल्म कुछ उल्टी लग गई....पहले तो लोगों को लगा कि निर्देशक ने कुछ खास प्रयोग किया है...पर थोड़ी देर में एक कमज़ोर सी आवाज़ आई ...."रील लगता है उल्टी लग गई है" फिर वो आवाज़ जैसे गायब सी हो गई...पर थोड़ी देर के बाद पूरे आत्मविश्वास से कई आवाज़ आई कि भाई रोको, फ़िल्म की रील उल्टी लग गई है....पूरे हॉल मे रोशनी हो गई...लोग उस चेहरे को तलाश रहे थे जिसने इस गलती को पकड़ा था....खैर फिल्म खत्म होने पर जब लोग बाहर निकल रहे थे तो पूरे सन्नाटे के बीच सिर्फ़ जूतों और चप्पलों की आवाज़ ही आ रही थी....पूरे हॉल में सन्नाटा पसरा हुआ था .......लोग बिना किसी से बात किये दरवाज़े से बाहर निकल रहे होते....

Comments

Anonymous said…
The article is nice, but the overuse of ellipses (...) distracts from the theme and give it in an unprofessional look.

Request Chavanni to edit the articles yourself if the writer is not able to format it properly.
Udan Tashtari said…
अच्छा लगा पढ़ना..

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को