हिंदी टाकीज द्वितीय : आय लव यू, आय लव यू नॉट, आय लव यू, आय लव यू नॉट......-स्‍वप्निल कान्‍त दीक्षित

हिंदी टाकीज द्वितीय-1

हिंदी टाकीज की 50 कडि़यों का सफर पूरा हो चुका है। द्विजीय सीरिज की शुरूआत हो रही है। उम्‍मीद है कि आप का सहयोग और योगदान मिलता रहेगा। द्वितीय सीरिज की पहली कड़ी स्‍वप्‍न‍िल ने लिखी । आप इनकी टाटा जागृति यात्रा अभियान में शामिल हो सकते हैं।


स्वप्निल कान्त दीक्षित टाटा जागृति यात्रा के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। आई. आई. टी. खडगपुर से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण (जी हाँ, उत्तीर्ण) करने के बाद दो साल कोर्पोरेट सेक्टर में कार्यरत रहने के बाद देश के युवाओं को उद्यमशीलता के लिये प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से पिछले दो साल से टाटा जागृति यात्रा आयोजित करते आ रहे हैं। उनका बचपन लखनऊ, हरदोई, बरेली, जैसे शहरों और खुदागंज (उप्र) बहादुरपुर (उप्र), घोडाखाल (उत्तराखण्ड) इत्यादि गाँवों में बीता है। ये थियेटर, स्थापथ्य कला, सांख्यिकि, संगीत और लेखन-पठन में रुचि रखते हैं।


बँगला नं ४, बरेली कैण्ट, १९८५ से ले कर १९८९ के बीच के किसी साल की सर्दी की शाम ५ बजे बँगले के एक अहाते में निवाड से बुनी खटिया पर, और आसपास जुटाये गये मूढों पर करीब दस लोग बैठे हैं - नानी, नानी के भाई विनोद नाना जिन्होनें बासठ की लडाई में गोली खाई थी, और चीनियों की गिरफ़्त से भाग निकले थे, विनोद नाना के बच्चे - अजय माम, मीनू मौसी, गुड्डो मौसी, और शारीरिक काबलियत से सीमित मगर मस्तिष्क से पुष्ठ टिन्कू मौसी, महरी नानी - जिन्हें महानगरों में 'मेड' कहते हैं, लगभग सात से नौ वर्ष की अवस्था का मैं और शायद आसपास रहने वाले एक दो दोस्त। शुरु करो अंताक्षरी ले कर हरि का नाम, समय बिताने के लिये करना है कुछ काम! मेर जूता है जापानी, पतलून, टोपी, दिल है हिन्दुस्तानी! नाना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे.... इन्कार, इकरार .. बैठे.. ठ... ठ.. ठ... ठ १... ठ २... ठ ३.... ठ ५.... ठण्डे ठण्डे पानी से नहाना चाहिये, गाना आये या ना .. गाना चाहिये! यम्मा यम्मा.... बस आज की रात है ज़िन्दगी..... ये नहीं चलेगा.. ए है .. नही.. चाहिये में य पे ए की मात्रा होती है .. नहीं, तुम मेरी किताब में देख लो... ए है खाली... सबसे बडी गुड्डो मौसी...चुप रहो! टिन्कू बतायेगी.... टिन्कू... ये कि ए.. फ़र्स्ट या सेकन्ड... हो गया फ़ैसला...ए! ए मालिक तेरे बन्दे हम, ऐसे हो हमारे करम! मेरे सामने.. वाली खिड्की में .. रहता है! हम लाये हैं तूफ़ान से, ... निकाल के.. सँभाल के... क... क... क... क१... क२... क३.. गुड्डो मौसी! दोहा अलाउड है न! चल ठीक है, इस बार अलाउड! काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब; पर में परलय होएगी, बहुरि करैगो कब्ब ब...ब....ब... ब१, ब२, ब३.... समस्या गहन है। विमर्श हो रहा है। घडी की सूई टिक-टिक बढ रही है। पेशानियों पर बल गहराते जा रहे हैं। एक जोडी होंठ केवल मुस्करा रहे हैं। गिनती गिनने वाले का भी कलेज़ा काँप रहा है - अगर उसने ना बोला, तो मैं क्या बोलूँगा! ब६, ब७, ब८, ब९.... बूढा स्वर,,, रुको! .. सब के सब नालायक! इतना भी नही जानते... बताओ ना नानी! बताओ ना! बहू बेगम! सब आश्चर्यचकित! ये क्या है! नानी का डेक्लरेशन --- अब से फ़िल्म का नाम भी अलाउड! तालियाँ.. और जाने कितने घण्टे बरबाद! ऐसा ही कुछ रहा होगा मेरा हिन्दी फ़िल्मों से परिचय! नोट करने वालों ने ध्यान दिया होगा कि फ़िल्मों का इस्तेमाल तो था, लेकिन खुलेआम नही। फ़िल्में प्रशंसित थीं पर परमिटिड नहीं (दौर भी तो लैसंस-राज का था)।

सबसे पहला सिनेमाहाली लम्हा जो याद है, वो है - दीवाली के आसपास समोसे खाने के चक्कर में मम्मीपापा के साथ जाने के लिये, परम-प्रिय नानी को छोडने को तैयार होना - समोसा मिला और साथ में एक गाना भी याद हो गया - पडोसी देखें बाजा कैसे बजे, कैसे बजे, कै-ए से-ए बजे, पडोसी देखे बाजा कैसे बजे! अब पता है कि उस सीन में प्रेमी और प्रेमिका अपनी मज़बूरी बयान कर रहे थे कि पडोसियों के देखते हुए वो 'बाजा कैसे बजाऎं' मुझे याद है कि मुझे समझ नहीं आता था कि पडोसी के देखते बाजा बजाने में क्या दिक्कत है?

उसके बाद याद है कि अजय मामा के साथ उनकी कपडो की दुकान को नौकर के भरोसे छोड कर सायकिल के डण्डॆ पर बैठ कर द्रुत गति से प्रभा सिनेमा की ओर लगभग पलायन - अजय मामा की जबरदस्त हँफाई की आवाज़ और अँधेरे कमरे में मिथुन दा की 'जाल' देखने के लिये प्रवेश। इस फ़िल्म में मिथुन दा कालेज के बास्क्टबाल कोर्ट पर करतब दिखाते हैं। एक मैच था जिसे जीतना हिरोइन के लिये अति-आवश्यक था। तब मिथुन दा ने शुद्ध साइंस का सहारा लेते हुए 'स्प्रिंग वाले जूते' नाम का एक यंत्र अपने बैग से निकाला। इस यंत्र का कमाल ये था कि इस से कोई भी पप्पू ८ से १० फ़ीट की छलाँग आसानी से लगा सकता था। अब बस हो गया काम! लेकिन इस सीन के बाद (और शायद पहले भी) मुझे पिच्चर खास समझ नहीं आई। लेकिन मुझे इस पिच्चर से ज़बरदस्त फ़ूड फ़ॉर थॉट मिला था। बहुत बाद जब आई आई टी की तैयारी का समय आया, तो मैने बाकायदा कोशिश की कि यदि एक स्प्रिन्ग वाला जूता बनाया जाये तो उसके लिये लगने वाले स्प्रिन्ग का स्प्रिन्ग कन्स्टेन्ट कितना होना चाहिये। आगे यदि मैं मटीरियल साइंस की पढाई करता तो ज़रूर ऐसा जूता तैयार करने की कोशिश करता। हिन्दी टाकीज़ लिखने वालों में से शायद मै सबसे बोरिंग और 'नर्डी' हूँ। मुझे फिल्मो का भूत चढता ही नहीं था।

कुछ जानने वाले मुझे पार्शियल लोनर भी कहते हैं। शायद इसकी नींव भी फ़िल्मों के कारण ही पडी। ऐसा नहीं कि देवदास देख कर दुखी मन से नकटिया नाले के किनारे घूमते घूमते मैं लोनर में विकसित हो गया। मेरे साथ कुछ ऐसा था कि दूरदर्शन पर आने वाली संडे शाम की पिच्चर मेरे ७ या ८ साल के दिमाग को इतनी बोरिंग लगती थी (चवन्नी पर ही महेश भट्ट का लेख बाल-फ़िल्मों पर उल्लेखनीय) कि मैंने एक दिन ऐसी ही एक पिक्चर देखते हुए ये फ़ैसला लिया कि अब मैं इन्हें देखूँगा ही नहीं - ये क्षण था जब परदे पे गाना चल रहा था - तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना ~~~~~ आ आ ~~~~ आ आ ~~~~~~ आ आअ ````` इस आ आ की सीरीज़ ने इतना परेशान किया कि मुझ से रहा नहीं गया और मेरी संडे की शाम बदल गयी। इन पिक्चरो से भाग निकलने के लिये जब मैंने दोस्त ढूँढना शुरु किये तो पता चला कि साले सब के सब टीवी से चिपक गये है - लिहाज़ा मेरा लोनर पैदा होना शुरु हो गया। हाँ, कभी कभार एक आतंकवादी भी पैदा होता था जो सबसे कमीनी आंटी की घण्टी बजा कर भागने में माहिर था। कुछ ऐसा था कि फ़िल्मों का भूत चढता ही नहीं था - हाँ, रामलीला देखने के लिये मारा मारी करने को भी मैं तैयार रहता था।

फिर भी, एक शुद्ध हिन्दुस्तानी की तरह मैने भी स्कूल से भाग कर एक पिक्चर देखी। मैं और संजय तिवारी, जिसकी मैं बहुत इज़्ज़त करता था क्योंकि उसकी साइकिल बहुत मेन्टेण्ड रहती था, साथ साथ एक साजिश में शामिल हुए। हमने स्कूल से भागकर पिच्चर देखने का फ़ैसला किया। उस चक्कर में करीब तीन हफ़्ते लगे। सोचा गया कि बालकनी में देखी जाएगी, और मार्केट रिसर्च के तौर पर एक एक बार सारे हॉलों के दाम पता किये गये। तीन हफ़्ते तक पैसे बचाने पर हम लोग शहर के सबसे अच्छे सिनेमा प्रभा सिनेमा में पिच्चर देख सकते थे। तीन हफ़्ते पूरे होने पर पता लगा कि खाने पीने का पैसा जोडना तो भूल ही गये थे। उसे सम्मिलित करने पर हिन्द टाकीज़ का ही फ़्न्ड बच पाया था। प्रभा का सपना सपना ही रह गया। यहाँ क्योंकि पिच्चर देखना ही महत्वपूर्ण था, इस बात का कोई मतलब नहीं था कि पिच्चर है कौन सी। लिहाज़ा हिन्द टाकीज़ के बैक-स्टाल (हाय बाल्कनी) में बैठ कर करीब १० से १२ दर्शकों के साथ पिक्चर देखी गयी - हत्यारिन!

इस पिक्चर से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। मुझे स्टोरी बहुत जानदार लगी थी और हिन्दे फ़िल्मों की ओर फ़िर से रुचि बढी। देखिये, तीन बिज़्नस पार्टनर थे, जिनमें से दो ने मिल कर तीसरे के साथ धोखा किया था और उसे ही नहीं, उसकी पत्नी को भी निपटा दिया। पत्नी भूत बन गयी और बदला लेने पर उतारू हो गयी। लास्ट में तांत्रिक वगैरह की मदद से भूत को शान्त किया गया, लेकिन क्योंकि हिरोइन भूत थी, उसका बदला पूरा होने पर ही वो शान्त हो सकी। सीधी से स्टोरी है लकिन क्या क्रिएटिव मोडस ओपरॉण्डी था उसका। मिसाल के तौर पर - बेईमान बिज़नस पार्टनर के बिगडे बेटे की शादी है। वो दारू के नशे में धुत्त सुहाग रात मनाने पहुँचता है और कुछ ऐसे डायलाग बोलता है जिससे कि दर्शकों के उससे रही बची सहानुभूति भी खत्म हो जाती है, जैसे - अरे मेरी अनारकली! कब से तेरे पकने का इंतज़ार कर रहा था, आज हाथ आई है तो शर्माती है। इसके जवाब में उसकी नवविवाहिता पत्नी कुछ नहीं बोलती है। तब ये बिगडा लडका कहता है कि ज़रा घूँघट तो उठा दो। ठीक इसी समय दर्शकों में रेप सीन की संभावना के चलते हलचल मचती है। पत्नी कहती कुछ नहीं, सिर्फ़ सिर होरिज़ेन्ट्ली हिला कर ना कहती है। तब बिगडा लडका रेपिस्ट वाली हँसी हँसता है और कहता है - तब क्या मैं ही उठा दूँ। इस बार पत्नी वर्टिकली सिर हिला का हामी भरती है। रेप-सीन की आशा में सधे दर्शक निराश होते हैं लेकिन 'सीन' की आशा अभी भी बरकरार रहती है। एक एक कदम घिसक कर लडका अपनी नवविवाहिता के पास पहुँचता है। उसका हाथ घूँघट की तरफ़ बढता है - और जैसे ही घूँघट हटता है, विशालकाय परदे पर सिर्फ़ भूतनी का चेहरा और स्पीकरों से बिगडे लडके की चीखें। हर बार हत्यारिन ऐसे ही कोई क्रिएटिव तरीका इख्त्यार करती थी। मैं हत्यारिन की भूतनी का फ़ैन हो कर लौटा था और मुझे तब से ले कर आज तक हीरो या हिरोएन द्वारा विलेन से लिये गये बदले मे रामलीला और हत्यारिन का मिक्स मज़ा आता है। इस फ़िल्म से मेरे जीवन में दो फ़र्क आये - एक तो मैं कभी बाल लेने के लिये पुराने मकान में नहीं गया, और दूसरा मुझे फ़ुल्लड भैया से अपना बार्न्विटा शेयर करते रहना पडा क्योंकि वो उस दिन 'हिन्द' में ही थे।

इसके बाद जीवन कतई बदल गया। मेर दाखिला सैनिक स्कूल में हो गया। वहाँ तमाम पाबंदियाँ थीं। बहुत सुबह उठना और बहुत जल्दी सोना पडता था। रैगिंग के मामले में आज के इन्जीनियरिंग कॉलेज उसका क्या मुकाबला करेंगे। पहले दिन दो सीनियर आये और पूछा - बता, हम में से बेहतर कौन है? अब तो पिटना ही था तो तगडे वाले को बेहतर बता कर कमज़ोर वाले के झापड खा लिये। इन सब पाबंदियों के बावजूद वहाँ कुछ ऐसा था जिससे मेरे जीवन में फ़िल्मों को ले कर बदलाव आने वाला था। वहाँ एक ५०० सीटों वाला आडिटोरियम था जिसका नाम था रतनदीप और हर हफ़्ते वहाँ कमपलसरी फ़िल्म शो भी होता था। बडे फ़ौज़ी स्टाइल में - सबकी सीटें फ़िक्स थीं। जूनियर आगे बैठते थे और सीनियर पीछे। एक होस्टल सुपरिण्टेन्डेन्ट थे जिनका नाम लड्को ने दुधारी रखा था। वोही फ़िल्म आपरेट करते थे। हर शनिवार को दो शो होते थे - ३:३० बजे स्टाफ़ के लिये, और फ़िर ७ बजे स्टुडेन्ट्स के लिये। मैने धीरे धीरे दुधारी सर से दोस्ती कर ली और स्टाफ़ शो के दौरान फिल्म रूम में जाना शुरु कर दिया। यहाँ से शायद पहली बार फिल्मों ने मुझे प्रभावित करना शुरु किया। हर फ़िल्म मैं दो बार देखता था। स्टाफ़ शो में दुधारी सर कोई सीन नही काटते थे लेकिन स्टुडेन्ट सो में उनकी हथेली लेन्स के आगे आ कर बॉयज़ को निराश करती। यहाँ सबसे मज़ेदार बात ये थी कि हर दो हिन्दी फ़िल्मों बाद एक इंगलिश फ़िल्म आती थी और उस उम्र और समाज़ के उस हिस्से में जहाँ से मैं आया था, ये एक्स्पोज़र ज़बर्दस्त था - ओमार द डेसर्ट लायन, द लास्ट एम्पेरर, कुनैन द बारबेरियन, कुनैन द डेस्ट्रोयर, से ले कर होम अलोन, वहाँ से सलाम बाम्बे जैसे पिक्चरों से ले कर के हार्डकोर बालीवुड जैसे नैना, रिशि कपूर की 'औरत नरक का द्वार है' वाले पिक्चर, दामिनी (जिसने मुझे हिला कर रख दिया था) से होते हुए डाई हार्ड, स्पीड जैसी ज़बरदस्त ऐक्शन फिल्मों तक का सफ़र मुझे बहुत उत्तेजित करता था। शायद जाने अन्जाने यहीं थियेटर के लिये लगाव पैदा हुआ। कभी कभी आप कुछ पसन्द करने लगते है, आपको पता भी नही होता कि उसका नाम क्या है - वही हुआ। बहुत बाद में पता लगा कि मैं थियेटर करना चाहने लगा था।

इसके बाद तमाम उथल पुथल हुई जीवन में, और फ़ाइनली, तमाम मिडिल क्लासी होनहारों की भाँति मैं भी दिल्ली चला गया - आई आई टी के तैयारी करने। मुझे दिल्ली बहुत भयावह मालूम पडती थी।एक ही शहर में एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिये एक से दो घन्टे लगना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। ऊपर से कोचिंगो की लूट खसोट, तैयारी के नाम पर अभिभावकों से पैसों के बंडल ऐंठ कर होस्टलों के नाम पर ऐसे बेस्मेंटों में स्टुडेन्टों को टिकाना जो गैरकानूनी होने के साथ साथ सीवर से लीक होते पानी के अनौपचारिक तालाब भी होते हैं। लिहाज़ा लीवर एन्लार्ज्मेण्ट, समथिंग क्लोज़ टू हेपेटाइटिस, से ग्रसित हो कर जल्द ही स्वास्थ लाभ के लिये वापस घर जाना पडा। दो महीने बिस्तर पर रहने के बाद वापस आने पर एक ही सहारा रह गया था, ये सहारा तीन अक्षरों का था - पी वी आर! इस सहारे में रोज़ दो से तीन घन्टे लगते थे, और कुछ महीनों के प्रयास पर इस सहारे ने एक पूरा सपोर्ट ग्रुप ही तैयार कर दिया था। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ उन टिकटों की जो पी वी आर के दो फ़्रंट रो के होते थी और सरकार के आदेशानुसार सिर्फ़ सात रुपैये में मिलते थे, जिनके लिये लोग तीन तीन घन्टा पहले लाइन लगाते थे, और जिन्हें पाकर लगभग आई आई टी के सेलेक्शन जितनी खुशी पाते थे।

मेरा एक मित्र जो मेरे साथ आई आई टी की तैयारी करता था और आई आई टी में भी साथ था, कई वर्षों बाद मिला। उसने एक किस्सा बताया कि एक दिन मैने उसे तनाव मुक्ति के लिये नेशनल म्यूज़ियम घूमने और फ़िल्म देखने का मशविरा दिया और ये सात रुपैये वाला राज़ बताया। वो बेचारा टिकट लेने पहुँचा तो देखता है कि इतनी लम्बी लाइन है और उस पर भी हर कोई कह रहा है कि मेरे आगे १० है, मेरे आगे १५ हैं। मुझे ये कुछ जँचा नहीं, मैं अगली बार उसके साथ गया, तो मुझे देखते ही लाइन में आगे से दूसरे या तीसरे नंबर पर शामिल कर लिया गया और दोस्त के पूछने पर ये बताया गया कि ये पर्मानेन्ट लाइन में रहते हैं और जिन पन्द्र्ह की बात आपसे की थी, उनमें से ये एक हैं। मुझे वो दिन याद आया और ये भी याद आया कि उस दिन पहली बार लगा था कि शायद दिल्ली का कुछ हिस्सा मेरा भी है। माँ कसम, मैनें शायद ही तैयारी के दिनों में कोई भी पिक्चर छोडी हो। मैं बाकायदा फ़िजिक्स की किताब ले कर लाइन में दो से तीन घण्टा पहले लग कर पढाई भी करता रहता था और पढाई के लिये स्वयं को पुरस्कृत भी। सच है कि यदि पी वी आर ना होता तो मैं उतना कभी नहीं पढ पाता।

२००१ में मैने आई आई टी खडगपुर ज्वाइन किया। उस समय शायद ही किसी कालेज होस्टल में क्म्प्यूटर नेट्वर्क और इन्टरनेट की सुविधा हो। इस सुविधा और पियर टू पियर डाउनलोड नाम के अस्त्र के चलते मैं वर्ल्ड सिनेमा की बेहद पोषक डाइट पर पलने लगा। टोरेन्टिनों से मुलाकात हुई, गुड बैड अग्ली रूपी गुग्ली खायी, कास्ट अवे, ग्रीन माइल, फ़िलेडेल्फ़िया, और फ़ोरेस्ट गम्प ने दिमाग के परखच्चे उडा दिये, और पल्प फ़िक्शन ने मरहम लगाने के बजाय खून खच्चर कर डाला। जिस दिन वनेला स्काई देख कर रुलाई छूट गयी थी, उस दिन देखा कि मैं अकेला नहीं हूँ, सब के सब रो रहे थे। डेविल्स एड्वोकेट पर अपने रेस्पान्स को तो आज तक नहीं समझ पाया हूँ। फ़िर इस मिक्स्चर के ऊपर ७० के दशक के क्लासिक रॉक म्यूज़िक की गार्निशिंग हुई और एक जबर्दस्त चीज़ हाथ लगी - गाँजा। काफ़ी दिन तक फ़िल्म, म्यूज़िक, थियेटर और गाँजे के सेवन के बाद एक पिक्चर देखी - रेक्वीम फ़ॉर अ ड्रीम, इसी समय इश्क भी हो रहा था। इश्क और रेक्वीम बाकी सब पर भारी पडी और उसका नतीज़ा ये हुआ कि मुझे कॉलेज से निकाल कर फेंक नहीं दिया गया, बल्कि मैं बाइज़्ज़्त डिग्री ले कर पास हुआ। वैसे जिन मोहतरमा के चलते हम रास्ते पर आये, वो अक्सर बिलखते हुए फोन करतीं हैं, तो हम पूछ्ते है आज कौन सी देख ली!

हिंदी फ़िल्मों को दुख के साथ अंग्रेज़ी सिनेमा से अपने पर्सनल स्कोर बोर्ड पर हारते हुए देखते रहे, और एक दोस्त ने हृशीकेष मुखर्जी से परिचय करवाया। फ़िर कई दोपहरें होस्टल के कमरे में खूबसूरत, छोटी से बात, अंगूर देखते हुए बीतीं। रंग दे बसंती वो पहली फिल्म थी जिसने कोलकाता भेजा सिर्फ़ फ़िल्म देखने के उद्देश्य से - और शायद यहाँ से ही हिन्दी फ़िल्मों से आशा भी जगनी शुरु हुई। (लगान भी अच्छी लगी थी मगर महज़ एक स्टोरी की तरह, और उसके प्रोडक्शन के लिये ज़बरदस्त इज़्ज़त है मन में, लेकिन दिमाग में आग लगा दे ऐसा उसमें कुछ नहीं था।) इसके बाद सिर्फ़ वो ही फ़िल्में देखता था जिनसे आशा होती थी और सुपरस्टार फ़िल्मों से लगभग किनारा ही कर लिया था - कहीं ना कहीं ऐसा लगता था कि सुपर स्टार फ़िल्म का मतलब ही है कि ज़रूर बकवास होगी। उसके बाद ब्लैक देखी - सिनेमाटोग्राफ़ी पर वाह वाह कर उठे, लेकिन मूल रूप से अमिताभ के चरित्र से घृणा ही हुई क्योंकि वो मार पीट इत्यादि का सहारा लेते दिखाय गये थे, बल्कि गलोरिफ़ाई भी किये गये थे। लेकिन फ़िर भी कभी ना कभी कुछ ना कुछ मिलता रहा है हिन्दी फ़िल्मों से - सज्जनपुर, तारे ज़मीं पर, कमीने, ओमकारा जैसी फ़िल्में आती हैं, तो मन मचल उठता है देखने के लिये।

कुल मिला कर फ़िल्मों का जीवन पर बहुत असर पडा है, और कहीं ना कहीं ऐसी इच्छा है कि एक दिन कंधे पर कैमरा होगा और मेरा बनाया भी कोई देखेगा।

दस पसंदीदा हिन्दी फ़िल्में - रंग दे बसंती, तारे ज़मीं पर, मिली, छोटी सी बात, अंगूर, मुन्नाभाई, ओंमकारा, गाइड, नमकहलाल, दिल से और स्वदेश (शाहरुख के बावज़ूद)

Comments

sushant jha said…
बेहतरीन...ये कहानी सिर्फ आपकी नहीं...पूरे हिंदी पट्टी के युवाओं की लगती है। हमने भी तो अंतराक्षरी में ही गाने गाए थे...वैसे गाते कहां
Ruchi Singh said…
bahut hi badhiyaaa.............i like the way u write,its very interesting:)
bahut achchha laga sinema ke saath saath bahut kuchh bata diya ki coaching karate samay bachche kya karate hain, aap to nikal gaye aur kai to isi chakkar men apane lakshy ko paane men asaphal rah jate hain. chhoti jagah se aakar hi coaching bade shahron men karane aate hain.
Swapnil said…
@सुशान्त:धन्यवाद! कुछ तो मस्ती है लेकिन हिन्दी सिनेमा में, भले ही मैं पूरा फ़ैन नहीं हूँ!

@Ruchi Singh: Thanks a lot! You've done a dangerous deed by encouraging me!

@रेखा श्रीवास्तव: धन्यवाद आपका! हर ऐसे स्टुडेन्ट की अपनी एक अलग कहानी होती है। बारीकी ये है कि सीमित सीटों के लिये होने वाली प्रतियोगिता में कुछ सहसवार तो पार नहीं ही लगेंगे - गणित है सीधा। लेकिन जीवन में सफ़ल होना ऐसी टुच्ची प्रतियोगिताओं में सफ़ल या असफ़ल होने से एकदम अलग है। दिक्कत ये है कि ज्यादातर परिवार और अभिभावक (और इसीलिये उनके नौनिहाल भी) सिर्फ़ इन्जीनियर या डॉक्टर बनने को ही 'जीवन' में सफ़ल होना मानते हैं। मेरा भाई एक बार सातवीं में और एक बार बारहवीं में फ़ेल हुआ और एक बार नवीं में फ़ेल होते होते बचा ~ आज वो एक साहसिक कार्य करवाने वाली कंपनी में मार्केटिंग हेड है, अपनी बुलट एन्फ़ील्ड पर ३००० से ५००० कि.मी. तक लम्बे लम्बे टूर लगाता है ~ फोटोग्राफी करता है, और तथाकथित सफ़ल आई-आई-टी और एम-बी-ए ग्रेजुएट्स को प्रशिक्षित करता है। सबसे बडी बात - एकदम खुश है।

इसलिये पिक्चर ज़रूर देख लेनी चाहिये जब मौका मिले, लेकिन लाइन में अगर तीन घन्टे खडा होना हो तो पढने के लिये किताब साथ में ले जाने में कोई हर्ज़ नहीं है।

बहुत बहुत धन्यवाद फ़िर से - बारीके से पढने और मेरी दुखती रग पर हाथ रखने के लिये!
आप तो जबर्दस्त किस्सागो निकले. एक सांस में पढ़ गया हिन्दी टॉकीज का यह एपीसोड. मुझे लगता है कि आपकी फ़िल्म पहली फ्रेम से आखिरी तक ऐसी ही दर्शकों को चिपका लेगी - सांस लेने की फुर्सत नहीं देगी.
आपकी फ़िल्म का इंतजार रहेगा... शुभकामनाएँ :)
चवन्नी चैप को द्वितीय सीरिज की शुरुआत के लिए शुभकामनाएं। स्वपनिल इतनी सजींदगी से अपनी बात और अपनी याद रखते हैं,इसका अंदाजा हमें उनकी पहली ही मुलाकात से हो गया था। बहुत-बहुत बधाई और हां,अब आपकी कीबोर्ड रुके नहीं।..

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को