फिल्‍म समीक्षा : मद्रास कैफे

-अजय ब्रह्मात्‍मज
         हमारी आदत ही नहीं है। हम सच को करीब से नहीं देखते। कतराते हैं या नजरें फेर लेते हैं। यही वजह है कि हम फिल्मों में भी सम्मोहक झूठ रचते हैं। और फिर उसी झूठ को एंज्वॉय करते हैं। सालों से हिंदी सिनेमा में हम नाच-गाने और प्रेम से संतुष्ट और आनंदित होते रहे हैं। सच और समाज को करीब से दिखाने की एक धारा फिल्मों में रही है, लेकिन मेनस्ट्रीम सिनेमा और उसके दर्शक ऐसी फिल्मों से परहेज ही करते रहे हैं। इस परिदृश्य में शूजीत सरकार की 'मद्रास कैफे' एक नया प्रस्थान है। हिंदी सिनेमा के आम दर्शकों ने ऐसी फिल्म पहले नहीं देखी है।

        पड़ोसी देश श्रीलंका के गृह युद्ध में भारत एक कारक बन गया था। मध्यस्थता और शांति के प्रयासों के विफल होने के बावजूद इस गृह युद्ध में भारत शामिल रहा। श्रीलंका के सेना की औपचारिक सलामी लेते समय हुए आक्रमण से लेकर जानलेवा मानव बम विस्फोट तक भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसके एक कोण रहे। 'मद्रास कैफे' उन्हीं घटनाओं को पर्दे पर रचती है। हम थोड़ा पीछे लौटते हैं और पाते हैं कि फैसले बदल गए होते तो हालात और नतीजे भी बदल गए होते। शूजीत सरकार ने 'मद्रास कैफे' में सभी व्यक्तियों और संगठनों के नाम बदल दिए हैं। विवादों और मुश्किलों से बचने के लिए उन्होंने ऐसा किया होगा। श्रीलंका-भारत संबंध, श्रीलंका के गृहयुद्ध, वी प्रभाकरन और राजीव गांधी के फैसलों से विरोध या सहमति हो सकती है। स्वतंत्र होने की कोशिश में 'मद्रास कैफे' वैचारिक और राजनीतिक पक्ष नहीं लेती।
'मद्रास कैफे' पॉलिटिकल थ्रिलर है। हिंदी फिल्में पड़ोसी देशों की राजनीति और उसके प्रभाव को टच नहीं करतीं। ले-देकर एक पाकिस्तान को आतंकवाद से जोड़कर अंधराष्ट्रवाद से प्रेरित फिल्में बनती रहती हैं। उनमें भी वास्तविक घटनाएं नहीं होतीं। शूजीत सरकार और जॉन अब्राहम ने इस लिहाज से साहसिक कदम उठाया है। उन्होंने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में श्रीलंका के गृहयुद्ध को रखने के साथ राजीव गांधी के हत्या तक के प्रसंग चुने हैं। उन्होंने अपनी फिल्म के लिए कहानी के अनुरूप ही रंग और टेक्सचर का चुनाव किया है। इस फिल्म के छायांकन में कमलजीत नेगी ने भी कहानी का जरूरत का खयाल रखा है। हम शुरू से अंत तक गति, ऊर्जा और गृहयुद्ध की विभीषिका का सलेटी रंग देखते हैं।
      फिल्म के लेखकों की मेहनत ही दस्तावेजी विषय को एक रोचक फिल्म में बदलती है। यह फिल्म अगर कुछ दृश्यों में डॉक्यूमेंट्री का एहसास देती है तो यह विषय की शिल्पगत चुनौतियों के कारण हुआ है। विदेशों में जरूर ऐसी फिल्में बनती रही हैं और मुमकिन है कि 'मद्रास कैफे' की दृश्य रचना उनसे प्रभावित भी हो, लेकिन भारतीय संदर्भ में यह पहली ईमानदार कोशिश है। हां, इस फिल्म के लिए खुद को तैयार करना पड़ेगा और अपेक्षित मानसिक तैयारी के साथ थिएटर में घुसना होगा। हिंदी फिल्मों को कथित एंटरटेनमेंट यहां नहीं है, फिर भी 'मद्रास कैफे' एंटरटेन करती है। निकट अतीत के कालखंड से परिचित कराती है।
    शूजीत सरकार ने इस फिल्म में सीमित रेंज के अभिनेता की क्षमताओं का सुंदर इस्तेमाल किया है। जॉन अब्राहम ने किरदार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश की है। निर्देशक की अपारंपरिक कास्टिंग से फिल्म की विश्वसनीयता बढ़ गई है। राशि खन्ना, दिबांग, सिद्धार्थ बसु, प्रकाश बेलवाड़ी, पियूष पांडे और अजय रत्नम आदि ने अपने किरदारों को जीवंत कर दिया है। नरगिस फाखरी फिल्म में अंग्रेजी जर्नलिस्ट की भूमिका में हैं।
    जॉन अब्राहम और नरगिस फाखरी की बातचीत में अंग्रेजी-हिंदी का फर्क क्यों रखा गया है? दोनों ही उन दृश्यों में किसी एक भाषा हिंदी या अंग्रेजी का इस्तेमाल कर सकते थे। कमियां कुछ और भी हैं, लेकिन अपने ढंग की पहली कोशिश 'मद्रास कैफे' की तारीफ करनी होगी कि यह हिंदी फिल्मों की जमीन का विस्तार करती है।
अवधि-130 मिनट
**** चार स्‍टार

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