आज के इस इंसान को ये क्या हो गया - प्रदीप

प्रदीप के लिखे इस गीत को आज संतोष कुमार पांडेय ने रेखांकित किया। गीत सुनने के बाद इसे शब्‍दों में लिख देना उचित लगा। मशहूर कवि आलो धन्‍वा कहते हैं कि गर आप किसी गीत को बार-बार पढ़ें तो उसके अर्थ की नई छवियों से परिचित होंगे। आप देखना चाहें तो इस गीत को देख भी सकते हैं। नीचे लिंक दे रहा हूं। 1961 में आई अमर रहेये प्‍यार के लिए यह गीत लिखा गया था।

आज के इस इंसान को ये क्या हो गया
इसका पुराना प्यार कहाँ पर खो गया
कैसी यह मनहूस घडी है, भाईओं में जंग छिड़ी है
कहीं पे खून कहीं पर जवाला, जाने क्या है होने वाला
सब का माथा आज झुका है, आजादी का जलूस रुका है
चरों और दगा ही दगा है, हर छुरे पर खून लगा है
आज दुखी है जनता सारी, रोते हैं लाखों नर नारी
रोते हैं आँगन गलिआरे, रोते आज मोहल्ले सारे
रोती सलमा रोती है सीता, रोते हैं कुरान और गीता
आज हिमालय चिल्लाता है, कहाँ पुराना वो नाता है
डस लिया सारे देश को जेहरी नागो ने,
घर को लगादी आग घर के चिरागों ने
अपने देश था वो देश था भाई, लाखों बार मुसीबत आई
इंसानों ने जान गवाई, पर बहनों की लाज बचाई
लेकिन अब वो बात कहाँ है, अब तो केवल घात यहाँ है
चल रहीं हैं उलटी हवाएं, कांप रहीं थर थर अबलायें
आज हर एक आँचल को है खतरा, आज हर एक घूँघट को है खतरा
खतरे में है लाज बहन की, खतरे में चूड़ीया दुल्हन की
डरती है हर पाँव की पायल, आज कहीं हो जाए ना घायल
आज सलामत कोई ना घर है, सब को लुट जाने का डर है
हमने अपने वतन को देखा, आदमी के पतन को देखा
आज तो बहनों पर भी हमला होता है,
दूर किसी कोने में मजहब रोता है
किस के सर इलज़ाम धरें हम, आज कहाँ फ़रिआद करें हम
करते हैं जो आज लड़ाई, सब के सब हैं अपने ही भाई
सब के सब हैं यहाँ अपराधी, हाय मोहोब्बत सबने भुलादी
आज बही जो खून की धारा, दोषी उसका समाज है सारा
सुनो जरा ओ सुनने वालो, आसमान पर नज़र घुमा लो
एक गगन में करोडो तारे, रहते हैं हिलमिल के सारे
कभी ना वो आपस में लड़ते, कभी ना देखा उनको झगड़ते
कभी नहीं वो छुरे चलाते, नहीं किसी का खून बहाते
लेकिन इस इंसान को देखो, धरती की संतान को देखो
कितना है यह हाय कमीना, इसने लाखों का सुख छीना
की है जो इसने आज तबाही, देगें उसकी यह मुखड़े गवाही
आपस की दुश्मनी का यह अंजाम हुआ,
दुनिया हसने लगी देश बदनाम हुआ
कैसा यह खतरे का पहर है, आज हवाओं में भी ज़हर है
कहीं भी देखो बात यही है, हाय भयानक रात यही है
मौत के साए में हर घर है, कब क्या होगा किसे खबर है
बंद है खिड़की, बंद है द्वारे, बैठे हैं सब डर के मारे
क्या होगा इन बेचारों का, क्या होगा इन लाचारों का
इनका सब कुछ खो सकता है, इनपे हमला हो सकता है
कोई रक्षक नज़र ना आता, सोया है आकाश पे दाता
यह क्या हाल हुआ अपने संसार का,
निकल रहा है आज जनाजा प्यार का
- प्रदीप

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