फिक्शनल बॉयोपिक है विभु पुरी की ‘हवाईजादा’


-अजय ब्रह्मात्मज
    ‘हवाईजादा’ के निर्देशक विभु पुरी एफटीआईआई के ग्रेजुएट हैं। उनकी शॉर्ट फिल्म ‘चाभीचाली पाकेट वाच’ 2006 में स्टूडेंट ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी। एफटीआआई के दिनों में ही संजय लीला भंसाली उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने साथ काम करने का ऑफर दिया। पुणे से निकलने के बाद विभु पुरी उनके सहयोगी लेखक और सहनिर्देशक रहे। ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ में दोनों का क्लोज एसोसिएशन रहा। उम्मीद थी कि संजय लीला भंसाली के प्रोडक्शन से ही विभु की पहली फिल्म आएगी,मगर ऐसा हो नहीं सका। बहरहाल,इस महीने 30 जनवरी को उनकी फिल्म ‘हवाईजादा’ आ रही है। इसमें आयुष्मान खुराना और पल्लवी शारदा के साथ मिथुन चक्रवर्ती भी हैं।
    विभु पुरी के शब्दों में कहें तो वे दिल्ली में पले,बढ़े और बिगड़े। बचपन दिल्ली के पहाडग़ंज की रिफ्यूजी कॉलोनी में बीता। उनके दादा-दादी पार्टीशन के समय पाकिस्तान से भारत माइग्रेट किए थे। रात में सोने सेे पहले परिकथाओं की जगह विभु ने पार्टीशन की कहानियां सुनीं। बंटवारे की उन कहानियों में दादाजी हमेशा आजादी की बातें करते थे। सब कुछ छोड़ कर शरणार्थी की तरह भारत आए दादाजी को कोई मलाल नहीं था। अपने वजूद की लड़ाई लड़ते हुए भी उनके पास खूबसूरत कहानियां थीं। अफसोस इस बात का था कि दोस्त छूट गए। मध्यवर्गीय संस्कारों और आर्थिक सीमाओं में ही विभु बड़े हुए। परिवार का मंत्र ‘थोड़ा है,थोड़े की जरूरत है’ रहा। दोस्तों की अमीरी का कोई रंज नहीं रहा। विभु अपने दादाजी की शिक्षाओं और कहानियों के एहसानमंद हैं। उन्हें अपनी शिक्षिका मधुबाला श्रीवस्जव भी याद हैं,जिन्होंने इतिहास के अध्यायों को कहानियों में तब्दील कर दिया था।
    दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज से मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी करने के बाद विभु ने जामिया से मीडिया का कोर्स किया। इस कोर्स के दौरान ही उन्हें लगा कि अपनी जमीन पाने के लिए उन्हें कहीं और निकलना पड़ेगा। वे एफटीआईआई पुणे आ गए। इंस्टीट्यूट में 2002 से 2006 की पढ़ाई के दरम्यान विश्व सिनेमा से परिचय हुआ। विभु इन चार सालों का अपने बचपन की तरह खास मानते हैं कि क्योंकि ढलने की प्रक्रिया यहीं आरंभ हुई। पुणे में ही विभु ने स्वयं को पाया। पसंद-नापसंद और अच्छे-बुरे की समझ के साथ यह भी समझदारी आई कि वे किन चीजों से जुड़े और किन चीजों से अलग हैं। संजय लीला भंसाली से पुणे में ही मुलाकात हुई। भंसाली ने प्रोत्साहित करने के साथ ऑफर दिया कि पढ़ाई के बाद तुम मेरे साथ काम करोगे। वे शिक्षक बने। उन्होंने सिनेमा की दुनिया का दर्शन करवाया और दिशा दी। संजय के साथ काम करते-करते विभु को एहसास हुआ कि अगर मुझे भी बरगद बनना है तो सबसे पहले बरगद की छांव से निकलना होगा। नई और अपनी जमीन की तलाश में वे संजय को छोड़ कर निकले। एहसान और सृजनात्मक ऋण के साथ विभु अपने आसमान की खोज में निकले। उसी तलाश में विभु की मुलाकात शिवकर बापूजी तलपडे से हो गई। उन्होंने मानव सभ्यता के इतिहास में पहला विमान उड़ाया था।
    विभु को लगा यह बात सच नहीं हो सकती,क्योंकि हम सभी को यही बताया और पढ़ाया गया है कि राईट बंधुओं ने पहला विमान उड़ाया था। अनियोजित पड़ाई के क्रम में विभु पुरी ने शिवकर के बारे में कहीं पढ़ा था। रुचि बढ़ी तो और भी सामग्रियां मिलीं। दरअसल,विभु जेआरडी टाटा के बारे में शोध कर रहे थे। उसी शोध में एक संकेत शिवकर बापूजी तलपडे का मिला। 2011 की  जनवरी में विभु के जहन में शिवकर आए और अब चार सालों के बाद उनकी जीवन और मिशन पर्दे पर आ रहा है। चार सालों तक विभु और शिवकर का साथ रहा। शिवकर के बारे में विभु को विरोधी साक्ष्य मिले। कोई उन्हें जीनियस बता रहा था तो कोई उनकी उपलब्धि को मनगढ़ंत किस्सा कह रहा था। इससे विभु की जिज्ञासा और बढ़ी। उन्हें लगा कि शिवकर की स्टोरी सभी को बताई जानी चाहिए। कहानी में कल्पना से काम लिया गया और किरदार को रोचक बनाने के साथ साकार किया गया। कोशिश की गई है कि हर तबके के दर्शक इसे देख सकें। विभु पुरी ‘हवाईजादा’ को फिक्शनल बॉयोपिक कहना चाहते हैं। हॉलीवुड में इस जोनर में अनेक फिल्में बनी हैं।
    इस कहानी का मूल है कि इंसानी रिश्ते ही काम करते हैं। उपलब्धि से अधिक रोचक संघर्ष होता है। यह शिवकर के सपनों की कहानी है। इस सपने को पूरी करने की कोशिश है। ‘हवाईजादा’ में राष्ट्रीय भावना भी है। यह बताने और दिखाने की कोशिश की गई है कि उस समय का कैसा माहौल था। जाहिर सी बात है कि फिल्में में कहानी का समाज और तत्कालीन राजनीति तो आ ही जाएगी। हिंदी फिल्मों ने विषयों की सीमा तय कर दी है। एक नया समाज गढ़ दिया है। निर्देशक और दर्शकों की आंखों पर ब्लाइंडर लगा हुआ है। विभु ने खोजबीन करने पर पाया कि तलपडे का वंशवृक्ष 1950 के आसपास समाप्त हो गया। अपने दूर-दराज के रिश्तेदारों के लिए वह एक किंवदंती बन गए। उनकी जिंदगी की घटनाओं में किस्से -कहानी जुड़ते गए। ऐसा लगता है कि शिवकर जैसा समझदार व्यक्ति अपने समय की राजनीति से परिचित होगा। तभी विभु ने उनके संवाद में वंदे मातरम का इस्तेमाल किया। विभु तैयार हैं कि इस पर बहस होगी तो वे तर्क देंगे।
   

Comments

कोड में खाज वाली बातहै ।
एक तो ये सरकार कम थी ऊपर से सिनेमा भी आ कूदा अगर किताबो में सब लिखा था तो इतनी सदियों तक काहे इन्तजार किया ? अंग्रेज तो अभी आये न ? उस से पहले किसी को वो किताबे समझ न आई ? सौ साल बाद कोई ये फिल्म भी बना देगा कि टीवी नेट फ़ोन सब हमने ही बनाये अपनी किताबो से देख देख

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