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फिल्‍म समीक्षा : बेबी

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समझदार और रोमांचक  -अजय ब्रह्मात्‍मज  स्टार: चार लंबे समय के बाद... जी हां, लंबे समय के बाद एक ऐसी फिल्म आई है, जो हिंदी फिल्मों के ढांचे में रहते हुए स्वस्थ मनोरंजन करती है। इसमें पर्याप्त मात्रा में रहस्य और रोमांच है। अच्छी बात है कि इसमें इन दिनों के प्रचलित मनोरंजक उपादानों का सहारा नहीं लिया गया है। 'बेबी' अपने कथ्य और चित्रण से बांधे रखती है। निर्देशक ने दृश्यों का अपेक्षित गति दी है, जिससे उत्सुकता बनी रहती है। 'बेबी' आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म है। ऐसी फिल्मों में देशभक्ति के जोश में अंधराष्ट्रवाद का खतरा रहता है। नीरज पांडे ऐसी भूल नहीं करते। यह वैसे जांबाज अधिकारियों की कहानी है, जिनके लिए यह कार्य किसी कांफ्रेंस में शामिल होने की तरह है। फिल्म के नायक अजय (अक्षय कुमार) और उनकी पत्नी के बीच के संवादों में इस कांफ्रेंस का बार-बार जिक्र आता है। पत्नी जानती है कि उसका पति देशहित में किसी मिशन पर है। उसकी एक ही ख्वाहिश और इल्तजा है कि 'बस मरना मत'। यह देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का आतुर ऐसे वीरों की कहानी है, जो देश के लिए ज

परसेप्शन बदले आतंकवाद का-नीरज पाण्डेय

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- अजय ब्रह्मात्मज             नीरज पाण्डेय की ‘ बेबी ’ लागत और अप्रोच के लिहाज से उनकी अभी तक की बड़ी फिल्म है। उनके चहेते हीरो अक्षय कुमार इसके नायक हैं। फिल्म फिर से आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर है। ‘ बेबी ’ एक मिशन का नाम है , जिस में अक्षय कुमार अपनी टीम के साथ लगे हैं। नीरज पाण्डेय की खूबी है कि उनकी फिल्मों के विषय और ट्रीटमेंट अलग और आकर्षक होते हैं। - हिंदी फिल्मों के ढांचे के बाहर के विषयों के प्रति यह आकर्षण क्यों है और आप का ट्रीटमेंट भी अलहदा होता है ? 0 बाकी काम जो लोग सफल तरीके से कर रहे हैं , उसमें जाकर मैं क्या नया कर लूंगा ? विषय चुनते समय मैं हमेशा यह खयाल रखता हूं कि क्या मैं कुछ नया कहने जा रहा हूं ? कुछ नया नहीं है तो फिल्म बनाने का पाइंट नहीं बनता। कहानियों की कमी नहीं है। पुरानी कहानियों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकते हैं। मेरी कोशिश रहती है कि हर बार कुछ नया करूं। एक फिल्म में दो-ढाई साल लग जाते हैं। मुझे लगता है कि अगर कुछ नया न हो तो कैसे काम कर पाएंगे। - आप की सोच और परवरिश की भी तो भूमिका होती है विषयों के चुनाव में ? 0 हो सकता है। पहली

फिल्‍म समीक्षा : एंटरटेनमेंट

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कौए क किलकारी  -अजय ब्रह्मात्‍मज          फरहाद-साजिद ने रोहित शेट्टी की फिल्में लिखी हैं। अब्बास-मस्तान की तरह वे दोनों भी सहोदर भाई हैं। वे लतीफों को दृश्य बनाने में माहिर हैं, जिन्हें रोहित शेट्टी रोचक, रंगीन और झिलमिल तरीके से चित्रित करते हैं। 'गोलमाल' से 'चेन्नई एक्सप्रेस' तक के कामयाब सफर वे इस प्रकार के मनोरंजन में सिद्धहस्त हो गए हैं। फरहाद-साजिद ने रोहित शेट्टी के काम को करीब से देखा है, क्योंकि वे उस टीम का अविभाज्य हिस्सा हैं। फिल्मों से जुड़े सभी व्यक्तियों की अंदरूनी ख्वाहिश रहती है कि वह किसी दिन निर्देशक की कुर्सी पर बैठे। फरहाद-साजिद की इस ख्वाहिश को अक्षय कुमार ने हवा दी। फरहाद-साजिद ने सीने से लगा कर रखी स्क्रिप्ट निकाली और नतीजा 'एंटरटेनमेंट' के रूप में सामने आया। 'एंटरटेनमेंट' देखते हुए लग सकता है कि यह रोहित शेट्टी और साजिद खान की शैली की किसी पुरानी फोटोस्टेट मशीन से मिश्रित जेरोक्स कॉपी है, जिसमें स्याही की काली लकीर आ गए हैं और कुछ टेक्स्ट गायब हैं। यह अखिल की कहानी है। वह अपने बीमार पिता के इलाज और आजीविक

अनसुलझी पहेली है हिट फिल्‍म का फार्मूला : अक्षय कुमार

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अपने दम पर इंडस्ट्री में स्टार कद हासिल करने वाले अक्षय कुमार अब ‘एंटरटेनमेंट’ लेकर आए हैं। फिल्म आउट एन आउट कॉमेडी है। इससे पहले उनकी ‘हॉलीडे’ सफल रही थी। अक्षय का फलसफा यह रहा है कि वे जो भी फिल्म हाथ में लेते हैं, उसे पूरा होने तक पूरा साथ देते हैं। बीच मझदार में नहीं छोड़ते। -अजय ब्रह्मात्मज ‘एंटरटेनमेंट’ पूरी तरह एंटरटेनिंग फि ल्म है। इसकी कहानी मेरे दिल के काफ ी करीब है। ऐसा लगता है, जैसे अभी कुछ दिनों पहले की ही मैंने इसकी कहानी सुनी है। मुझे याद है इस फि ल्म के निर्देशक फरहाद-साजिद मुझे ध्यान में रखकर कई कहानियां सुनाने के इरादे से मेरे पास आए थे। उन्होंने उस पिटारे में से सबसे अच्छी कहानी बाहर निकाल ‘एंटरटेनमेंट’ की कहानी सुनाई। यह अच्छी कॉमेडी फिल्म है।     मुझे एक चीज हमेशा से परेशान करती रही है कि हमारे यहां कॉमेडी फिल्मों को दोयम दर्जे का क्यों माना जाता है? आज भी जब अवार्ड नाइट होते हैं तो कहा जाता है बेस्ट हीरो इन कॉमेडी रोल। यह क्या बात हुई भई। यही बात जब रोमांटिक फि ल्मों से किसी हीरो को बेस्ट एक्टर का अवार्ड दिया जाता है तो क्यों नहीं कहा जाता कि बेस्ट हीरो इन रोमां

फिल्‍म समीक्षा : हॉलीडे

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हालांकि मुरूगादास ने तमिल में 'थुपक्की' बना ली थी, लेकिन यह फिल्म हिंदी में सोची गई थी। मुरूगादास इसे पहले हिंदी में ही बनाना चाहते थे। अक्षय कुमार की व्यस्तता कमी वजह से देर हुई और तमिल पहले आ गई। इसे तमिल की रीमेक कहना उचित नहीं होगा। फिल्म के ट्रीटमेंट से स्पष्ट है कि 'हॉलीडे' पर तमिल फिल्मों की मसाला मारधाड़, हिंसा और अतिशयोक्तियां का प्रभाव कम है। 'हॉलीडे' हिंदी फिल्मों के पॉपुलर फॉर्मेट में ही किया गया प्रयोग है। विराट फौजी है। वह छुट्टियों में मुंबई आया है। मां-बाप इस छुट्टी में ही उसकी शादी कर देना चाहते हैं। वे विराट को स्टेशन से सीधे साहिबा के घर ले जाते हैं। विराट को लड़की पसंद नहीं आती। बाद में पता चलता है कि साहिबा तो बॉक्सर और खिलाड़ी है तो विराट अपनी राय बदलता है। विराट और साहिबा की प्रेम कहानी इस फिल्म की मूलकथा नहीं है। मूलकथा है एक फौजी की चौकसी, सावधानी और ड्यूटी। मुंबई की छुट्टियों के दौरान विराट का साबका एक 'स्लिपर्स सेल' से पड़ता है। (स्लिपर्स सेल आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न ऐसे व्यक्ति

अक्षय कुमार से अजय ब्रह्मात्‍मज की बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज     अक्षय कुमार हाल ही में इस्तांबुल से नीरज पांडे की फिल्म ‘बेबी’ की शूटिंग से लौटे हैं। मुंबई आते ही वे अपनी अगली फिल्म ‘हॉलीडे’ के प्रचार में जुट गए हैं। अमूमन बाकी पापुलर स्टार अपनी फिल्मों के धूआंधार प्रचार में कम से कम दो महीने लगाते हैं। अक्षय कुमार उन सभी से अलग तरीका अपनाते हैं। - ‘हॉलीडे’ क्या है? 0 इस फिल्म में मुर्गोदास ने एक नए विषय को टच किया है। यह फिल्म सिलीपर सेल के बारे में है। 26 11 को ताज और ओबेराय में जो आतंकवादी गतिविधियां हुई थी उन्हें सिलीपर सेल ही ने की थी। अमेरिका में 9 11 भी इन्हीं लोगों ने किया था। ऐसे लोग बहुत पहले से किसी देश में चले जाते हैं। वहां के नागरिक बन कर रहते हैं। परिवार बसा लेते हैं, लेकिन बीवी तक को पता नहीं रहता कि वे कौन हैं? इस फिल्म का संदेश है कि अपनी आंखें खुली रखें। लोगों से मिलते-जुलते समय सावधान रहें। अभी कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया है। मुझे यह विषय अनोखा लगा। अभी तक के फिल्मों में टेररीज्म की बातें एक ही तरीके से दिखाई जाती है। - लेकिन इसमें तो आप सेना के जवान बने हुए हैं? 0 हां, मैं फौज में हूं। लंबे समय की

फिल्‍म समीक्षा : बॉस

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हंसी पर हावी हिंसा  -अजय ब्रह्मात्‍मज  एक्शन के साथ कॉमेडी हो तो दर्शकों का भरपूर यानी पैसा वसूल मसाला मनोरंजन होता है। 'गजनी' से आरंभ यह सोच हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कभी एक्शन, कभी कॉमेडी और कभी दोनों के घोल से बह रही है। हर पॉपुलर स्टार कामयाबी की इस बहती गंगा में गोते लगा रहा है। अक्षय कुमार 'राउडी राठौड़' और 'खिलाड़ी 786' की सफलता के बाद 'बॉस' में और तीव्रता के साथ एक्शन एवं कॉमेडी लेकर लौटे हैं। वे इस फिल्म में निस्संकोच अंदाज में सब कुछ करते हैं ...भद्दे मजाक, फूहड़ संवाद और हास-परिहास। एक्शन फिल्मों में इन दिनों मंथर गति के शॉट से प्रभाव बढ़ाने की कोशिश रहती है। कैमरे ओर लैंस का यह कमाल है कि पांव रखने से उड़ी धूल भी बवंडर लगती है। कांच तो पहले भी टूटता था, लेकिन उनके टूटने की ऐसी खनकदार आवाज और बूंदों की तरह टूटे कांचों का बिखरना कहां सुनाई-दिखाई देता था? 'बॉस' में इन सारी तरकीबों का इस्तेमाल किया गया है। ऐसी फिल्में किसी फैंटेसी की तरह वर्क करती है। यह भी एक फैंटेसी है। हरियाणवी रंग में रंगी। 'बॉस' में कहानी,

लडते रहेंगे तो जीत मिलेगी-अक्षय कुमार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  अक्षय कुमार की फिल्‍में लगातार प्रदर्शित हो रही हैं। खान त्रयी के अलावा चंद पाॅपुलर हीरो में उनका नाम शामिल है। अभिनय के लिहाज से उनकी यादगार फिल्‍में कम हैं,लेकिन आम दर्शकों के मनोरंजन में वे माहिर हैं। एक्‍शन फिल्‍मों के इस दौर के पहले ही वे एक्‍शन कुमार के नाम से मशहूर रहे हैं। पिता से उनका खास लगाव है। यहां वे 'बॉस' के बारे में बता रहे हैं। फिल्‍म कल रिलीज हो रही है। - ‘बॉस’ का विचार कहां से आया? 0 हमने एक मलयाली फिल्म ‘पोकिरी राजा’ देखी थी। वह मुझे बहुत अच्छी लगी थी। मैंने तभी तय कर लिया था कि हिंदी में इसकी रीमेक बनाऊंगा। अश्विन वर्दे के साथ मिलकर मैंने इस फिल्म की प्लानिंग की। निर्देशन के लिए टोनी (एंथनी डिसूजा) को चुना। यह एक परिवार के पिता और दो बेटों की कहानी है। दोनों बेटों के साथ उनके अलग रिश्ते और रवैए हैं। - ‘पोकिरी राजा’ में ऐसी क्या खास बात लगी थी कि आपने रीमेक के बारे में सोचा? 0 मुझे बाप-बेटे की कहानी हमेशा प्रभावित करती है। मैंने खुद ऐसी कई फिल्मों में काम किया है। कुछ निर्माण भी किया है। ‘वक्त’, ‘एक रिश्ता’ और ‘जानवर’ में बाप-बेटे

फिल्‍म समीक्षा : वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा

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नहीं बनी बात  -अजय ब्रह्मात्‍मज  मिलन लुथरिया अपनी पहचान और प्रयोग के साथ बतौर निर्देशक आगे बढ़ रहे थे। 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा' से उन्हें झटका लगेगा। यह उनकी कमजोर फिल्म है। पहली कोशिश में मिलन सफल रहे थे, लेकिन दूसरी कोशिश में पहले का प्रभाव नहीं बनाए रख सके। उन्होंने दो अपराधियों के बीच इस बार तकरार और तनाव के लिए प्रेम रखा, लेकिन प्रेम की वजह से अपराधियों की पर्सनल भिड़ंत रोचक नहीं बन पाई। पावर और पोजीशन के लिए लड़ते हुए ही वे इंटरेस्टिंग लगते हैं। शोएब और असलम अनजाने में एक ही लड़की से प्रेम कर बैठते हैं। लड़की जैस्मीन है। वह हीरोइन बनने मुंबई आई है। आठवें दशक का दौर है। तब फिल्म इंडस्ट्री में अंडरव‌र्ल्ड की तूती बालती थी। जैस्मीन की मुलाकात अंडरव‌र्ल्ड के अपराधियों से होती है। कश्मीर से आई जैस्मीन का निर्भीक अंदाज शोएब को पसंद आता है। वह जैस्मीन की तरफ आकर्षित होता है, लेकिन जैस्मीन तो शोएब के कारिंदे असलम से प्रेम करती है। आखिरकार मामला आमने-सामने का हो जाता है। लेखक-निर्देशक ने इस छोटी सी कहानी के लिए जो प्रसंग और दृश्य रचे हैं, वे बा

फिल्‍म समीक्षा : खिलाड़ी 786

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  एक्शन से हंसाता -अजय ब्रह्मात्‍मज सलमान खान की तरह अक्षय कुमार ने भी मनोरंजन का मसाला और फार्मूला पा लिया है। लग सकता है कि वे सलमान खान की नकल कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि अभी हर स्टार और डायरेक्टर एक-दूसरे की नकल से कामयाबी हासिल करने की जल्दबाजी में हैं। इस दौर में मुख्यधारा की फिल्मों में मौलिकता की चाह रखेंगे तो थिएटर के बाहर ही रहना होगा। आशीष आर. मोहन की 'खिलाड़ी 786' की प्रस्तुति में हाल-फिलहाल में सफल रही मसाला फिल्मों का सीधा प्रभाव है। जैसे कोई पॉपुलर लतीफा हर किसी के मुंह से मजेदार लगता है, वैसे ही हर निर्देशक की ऐसी फिल्में मनोरंजक लगती हैं। 'खिलाड़ी 786' का लेखन हिमेश रेशमिया ने किया है। वे इसके निर्माताओं में से एक हैं। सेकेंड लीड में वे मनसुख भाई के रूप में भी दिखाई पड़ते हैं। पिछली कुछ फिल्मों में दर्शकों द्वारा नापसंद किए जाने के बाद पर्दे पर आने का उन्होंने नया पैंतरा अपनाया है। फिल्म के प्रचार में दावा किया गया कि यह अक्षय कुमार की 'खिलाड़ी' सीरिज की फिल्म है, लेकिन यह दावा फिल्म के टायटल और एक संवाद तक ही सीमित है। '

फिल्‍म समीक्षा : ओह माय गॉड

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प्रपंच तोड़ती, आस्था जगाती -अजय ब्रह्मात्मज परेश रावल गुजराती और हिंदी में 'कांजी वर्सेस कांजी' नाट सालों से करते आए हैं। उनके शो में हमेशा भीड़ रहती है। हर शो में वे कुछ नया जोड़ते हैं। उसे अद्यतन करत रहते हैं। अब उस पर 'ओह माय गॉड' फिल्म बन गई। इसे उमेश शुक्ला ने निर्देशित किया है। फिल्म की जरूरत के हिसाब से स्क्रिप्ट में थोड़ी तब्दीली की गई है। नाटक देख चुके दर्शकों को फिल्म का अंत अलग लगेगा। वैसे नाटक में इस अंत की संभावना जाहिर की गई है। उमेश शुक्ल के साथ परेश रावल और अक्षय कुमार के लिए 'ओह माय गॉड' पर फिल्म बनाना साहसी फैसला है। धर्मभीरू देश केदर्शकों के बीच ईश्वर से संबंधित विषयों पर प्रश्नचिह्न लगाना आसान नहीं है। फिल्म बड़े सटीक तरीके से किसी भी धर्म की आस्था पर चोट किए बगैर अपनी बात कहती है। फिल्म का सारा फोकस ईश्वर के नाम पर चल रहे ताम-झाम और ढोंग पर है। धर्मगुरू बने मठाधीशों के धार्मिक प्रपंच को उजागर करती हुई 'ओह माय गॉड' दर्शकों को स्पष्ट संदेश देती है कि ईश्वर की आराधना की रुढि़यों और विधि-विधानों से निकलने की जरूरत है।

ईश्वर है तो झगड़े-फसाद क्यों?

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-अजय ब्रह्मात्मज भावेश मांडलिया के नाटक ‘कांजी वर्सेज कांजी’ नाटक पर आधारित उमेश शुक्ला की फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में परेश रावल और अक्षय कुमार फिर से साथ आ रहे हैं। दोनों ने अभी तक 32 फिल्मों में एक साथ काम किया है। दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती है। ‘ओह माय गॉड’ के संदर्भ में अक्षय कुमार ने स्वयं परेश रावल से इस फिल्म के बारे में बात की। कुछ सवाल परेश ने भी अक्षय से पूछे। अक्षय- परेश, आप को इस नाटक में ऐसी क्या खास बात दिखी कि आपने इसके इतने मंचन किए और अब फिल्म आ रही है? परेश-बहुत कम मैटेरियल ऐसे होते हैं, जो सोचने पर मजबूर करते हैं। मनोरंजन की दुनिया में हमलोग लोगों को हंसाने-रूलाने का काम करते रहते हैं। यह नाटक और अब फिल्म लोगों को उससे आगे जाकर सोचने पर मजबूर करेगी। इस नाटक के मंचन में मैंने हमेशा कुछ नया जोड़ा है। अभी पिछले शो में एक महत्वपूर्ण दर्शक ने कहा कि मंदिर का मतलब क्या होता है? जो मन के अंदर है, वही मंदिर है। अक्षय- सही कह रहे हो। जो मन के अंदर है वही मंदिर है। भगवान तो हमारे अंदर बैठा हुआ है। परेश, आप का नाटक देखने के बाद मैंने भगवान को ज्यादा अच्छी तरह समझा। अ

फिल्‍म समीक्षा : जोकर

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प्रिय शिरीष, आप धन्य हैं, साथ ही अक्षय कुमार और यूटीवी भी धन्य है, क्योंकि उन्होंने आप की विचित्र कल्पना में निवेश किया। अक्षय कुमार तो आप की फिल्म के हीरो भी हैं। हालांकि रिलीज के समय उन्होंने फिल्म से किनारा कर लिया, लेकिन कभी मिले तो पूछूंगा कि उन्होंने इस विचित्र फिल्म में क्या देखा था? बहरहाल, आप ने अक्षय कुमार और सोनाक्षी सिन्हा को कामयाबी की हैट्रिक नहीं लगाने दी। हाउसफुल-2 और राउडी राठोड़ के बाद अक्षय कुमार को झटका भारी पड़ेगा। वहीं सोनाक्षी सिन्हा दबंग और राउडी राठोड़ के बाद नीचे उतरेंगी। ताश की गड्डी के जोकर को फिल्म के कंसेप्ट में बदल देना और फिर उस पर पूरी फिल्म रचना। आप की कल्पना की उड़ान की दाद देनी पड़ेगी। पगलापुर भारत के नक्शे पर हो न हो, आप के दिमाग में जरूर रहा होगा। और उसका संपर्क किसी और इंद्रिय से नहीं रहा होगा। आजादी के 65 सालों के विकास से कटे गांव के अक्षय कुमार का नासा पहुंच जाना भी विचित्र घटना है। और फिर उसका भारत लौटना। पगलापुर को ध्यान में लाने के लिए एलियन की कहानी बुनना। लॉजिक तो हिंदी फिल्मों में आम तौर पर नहीं मिलता, लेकिन आप

दर्शकों की पसंद हूं मैं-सोनाक्षी सिन्हा

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-अजय ब्रह्मात्मज     सोनाक्षी सिन्हा की अभी तक दो ही फिल्में रिलीज हुई हैं, लेकिन दोनों ही सुपरहिट रही हैं। ‘दबंग’ और ‘राउडी राठोड़’ की जबरदस्त सफलता ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की टॉप हीरोइनों में शामिल कर दिया है। हालांकि दोनों ही फिल्मों की कामयाबी का श्रेय उनके हीरो सलमान खान और अक्षय कुमार को ही मिला। फिर भी कामयाब फिल्म की हीरोइन होने के हिस्से के रूप में सोनाक्षी सिन्हा भी सफल मानी जाएंगी। अब उनकी तीसरी फिल्म ‘जोकर’ रिलीज होगी। इसमें भी उनके हीरो अक्षय कुमार हैं। सोनाक्षी सिन्हा से एक बातचीत ़ ़ ़ - दो-दो फिल्मों की कामयाबी से आप ने इतनी जल्दी ऐसी ऊंचाई हासिल कर ली है। बात कहां से शुरू करें? 0 कहीं से भी शुरू करें। इतनी छोटी जर्नी है मेरी कि न तो आप ज्यादा कुछ पूछेंगे और न मैं ज्यादा बता पाऊंगी। खुश हूं कि मेरी दोनों फिल्में दर्शकों को पसंद आई। पसंद आने की एक वजह तो मैं हूं ही। - आप की तीसरी फिल्म शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ होगी। उसके बारे में बताएं? 0 ‘जोकर’ वैसे मेरी दूसरी फिल्म है। ‘दबंग’ के बाद मैंने ‘जोकर’ ही साइन की थी और उसकी शूटिंग भी आरंभ हो गई थी। यह बहुत ही स्पेशल फिल्म

क्या खूब लौटे हैं अक्षय कुमार

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज             सराहना और विवेचना से अधिक श्रद्धांजलि लिखने में सक्रिय फिल्म पत्रकारों ने अक्षय कुमार के करिअर का अंत कर दिया था। उनके अनुसार खिलाड़ी अक्षय कुमार की वापसी असंभव है। उनकी फिल्में लगातार पिट रही थीं। उसी दरम्यान एक-एक कर सारे लोकप्रिय स्टार की फिल्में 100 करोड़ क्लब में पहुंच रही थीं। सलमान खान , आमिर खान , अजय देवगन और शाहरुख खान के बाद सीधे रितिक रोशन , रणबीर कपूर , इमरान खान और इमरान हाशमी का जिक्र किया जाने लगा था। निरंतर असफलता के बावजूद अक्षय कुमार में कटुता नहीं आई थी। वे खिन्न जरूर रहने लगे थे। इस खिन्नता में उन्होंने अपने आलोचकों को आड़े हाथों लिया। अपनी बुरी फिल्मों की बुराई भी उन्हें पसंद नहीं आई। यह स्वाभाविक था। स्टार एक बार फिसलता है तो रुकने-थमने और फिर से उठने तक वह यों ही अपनी नाकामी पर चिल्लाता है। अक्षय कुमार अपवाद नहीं रहे।             एक अच्छी बात रही कि फिर से शीर्ष पर आने की बेताबी में उन्होंने ऊलजलूल फिल्म नहीं कीं। वे अपनी सीमाओं और खूबियों को अच्छी तरह जानते हैं। देश का आम दर्शक उन्हें पसंद करता है। प्रशंसक और दर्

मेनस्ट्रीम सिनेमा को ट्रिब्यूट है ‘राउडी राठोड़'-संजय लीला भंसाली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अक्षय कुमार और सोनाक्षी सिन्हा की प्रभुदेवा निर्देशित ‘राउडी राठोड़’ के निर्माता संजय लीला भंसाली हैं। ‘खामोशी’ से ‘गुजारिश’ तक खास संवेदना और सौंदर्य की फिल्में निर्देशित कर चुके संजय लीला भंसाली के बैनर से ‘राउडी राठोड़’ का निर्माण चौंकाता है। वे इसे अपने बैनर का स्वाभाविक विस्तार मानते हैं।   - ‘राउडी राठोड़’ का निर्माण किसी प्रकार का दबाव है या इसे आपकी मुक्ति समझा जाए?  0 इसे मैं मुक्ति कहूंगा। मेरी सोच, मेरी फिल्म, मेरी शैली ही सब कुछ है ... इन से निकलकर अलग सोच, विषय और विचार से जुडऩा मुक्ति है। मैं जिस तरह की फिल्में खुद नहीं बना सकता, वैसी फिल्मों का बतौर प्रोड्यूसर हिस्सा बनना अच्छा लग रहा है। मैं हर तरह के नए निर्देशकों से मिल रहा हूं। ‘माई फ्रेंड पिंटो’, ‘राउडी राठोड़’,  ‘शीरीं फरहाद की तो निकल पड़ी’ ऐसी ही फिल्में हैं।   - आप अलग तरह के सिनेमा के निर्देशक रहे हैं। खास पहचान है आपकी। फिर यह शिफ्ट या आउटिंग क्यों? 0 ‘गुजारिश’ बनाते समय अनोखा अनुभव हुआ। वह फिल्म मौत के बारे में थी, लेकिन उसने मुझे जिंदगी की पॉजीटिव सोच दी। उसने मुझे निर्भीक बना

फिल्‍म समीक्षा देसी ब्‍वॉयज

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-अजय ब्रह्मात्‍मज न्यूयार्क के फिल्म स्कूल से निर्देशन की पढ़ाई कर चुके डेविड धवन के बेटे रोहित धवन ने देसी ब्वॉयज की फिल्म के चारों मुख्य कलाकारों को स्क्रिप्ट के नाम पर क्या सुनाया होगा? और फिर स्क्रिप्ट सुनने-समझने के बाद हां करने के लिए मशहूर कलाकारों को इस स्क्रिप्ट में क्या उल्लेखनीय लगा होगा। पुरूषों का अंग प्रदर्शन, स्ट्रिपटीज, पोल डांस, लंदन, ट्रिनिटी कॉलेज, नायिकाओं के लिए डिजायन कपड़े, दो-तीन गाने और संजय दत्त का आयटम अपीयरेंस.. देसी ब्वॉयज में यह सब है। बस कहानी नहीं है,लेकिन इमोशनल पंच हैं। मां-बेटा, बाप-बेटी, दोस्त, टीचर-स्टूडेंट के अनोखे संबंधों के साथ जब जीरो दिया मेरे भारत ने सरीखा राष्ट्रप्रेम भी है। ऐसा लगता है कि रोहित धवन और उनके सहयोगी लेखक मिलाप झावेरी को पुरानी हिंदी फिल्मों के जो भी पॉपुलर (घिसे पिटे पढ़ें) सीन याद आते गए, उनकी चिप्पी लगती चली गई। ऊपरी तौर पर यह दो दोस्तों निक और जेरी की कहानी है। मंदी की वजह से दोनों की बदहाली शुरू होती है। मजबूरी में वे पुरूष एस्कॉर्ट का काम स्वीकार करते हैं, लेकिन अपनी नैतिकता के दबाव में कुछ रूल बनाते हैं। नि

फिल्‍म समीक्षा : थैंक यू

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टाइमपास कामेडी -अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियदर्शन और डेविड धवन की तरह अनीस बजमी का भी एक फार्मूला बन गया है। उनके पास कामेडी के दो-तीन समीकरण हैं। उन्हें ही वे भिन्न किरदारों और कलाकारों के साथ अलग-अलग फिल्मों में दिखाते रहते हैं। थैंक यू में अनीस बज्मी ने नो एंट्री की मौज-मस्ती और विवाहेतर संबंध के हास्यास्पद नतीजों को कनाडा की पृष्ठभूमि में रखा है। वहां फ्लर्ट स्वभाव के पतियों को रास्ते पर लाने के लिए सलमान खान थे। यहां अक्षय कुमार हैं। नो एंट्री में बिपाशा बसु का आयटम गीत था। थैंक यू में मलिका सहरावत रजिया की धुनों पर ठुमके लगाती दिखती हैं। अनीस बज्मी की फिल्में टाइमपास होती हैं। डेविड धवन के विस्तार के रूप में उन्हें देखा जा सकता है। उनकी फिल्में लिखते-लिखते अनीस बज्मी निर्देशन में उतरे और फिर आजमाए फार्मूले से कमोबेश कामयाब होते रहे हैं। थैंक यू में तीन दोस्त हैं। उनकी फितरत में फ्लर्टिग है। मौका मिलते ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते हैं। अपनी बीवियों को दबा, समझा और बहकाकर उन्होंने अय्याशी के रास्ते खोज लिए हैं। बीवियों को शक होता है तो उन्हें रास्ते पर लाने के ल

फिल्म समीक्षा:पटियाला हाउस

-अजय ब्रह्मात्मज परगट सिंह कालों उर्फ गट्टू उर्फ काली.. एक ही किरदार के ये तीन नाम हैं। इस किरदार को पटियाला हाउस में अक्षय कुमार ने निभाया है। अक्षय कुमार पिछली कई फिल्मों में खुद को दोहराते और लगभग एक सी भाव-भंगिमा में नजर आते रहे हैं। निर्देशक भले ही प्रियदर्शन, साजिद खान या फराह खान रहे हों, लेकिन उनकी कामेडी फिल्मों का घिसा-पिटा फार्मूला रहा है। पटियाला हाउस में एक अंतराल के बाद अक्षय कुमार कुछ अलग रूप-रंग में नजर आते हैं। उनके प्रशंसकों को यह तब्दीली अच्छी लग सकती है। निर्देशक निखिल आडवाणी ने इस फिल्म में मसालों और फार्मूलों का इस्तेमाल करते हुए एक नई छौंक डाली है। उसकी वजह से पटियाला हाउस नई लगती है। परगट सिंह कालों साउथ हाल में पला-बढ़ा एक सिख युवक है। क्रिकेट में उसकी रुचि है। किशोर उम्र में ही वह अपने टैलेंट से सभी को चौंकाता है। इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में उसका चुना जाना तय है। तभी एक नस्लवाली हमले में साउथ हाल के सम्मानीय बुजुर्ग की हत्या होती है। प्रतिक्रिया में परगट सिंह कालों के बातूनी फैसला सुनाते हैं कि वह इंग्लैंड के लिए नहीं खेलेगा। परगट सिंह कालों अब सिर्

फिल्‍म समीक्षा : हाउसफुल

-अजय  ब्रह्मात्‍मज सचमुच थोड़ी ऐसे या वैसे और जैसे-तैसे साजिद खान ने हाउसफुल का निर्देशन किया है। आजकल शीर्षक का फिल्म की थीम से ताल्लुक रखना भी गैर-जरूरी हो गया है। फिल्म की शुरुआत में साजिद खान ने आठवें और नौवें दशक के कुछ पापुलर निर्देशकों का उल्लेख किया है और अपनी फिल्म उन्हें समर्पित की है। इस बहाने साजिद खान ने एंटरटेनर डायरेक्टर की पंगत में शामिल होने की कोशिश कर ली है। फिल्म की बात करें तो हाउसफुल कुछ दृश्यों में गुदगुदी करती है, लेकिन जब तक आप हंसें, तब तक दृश्य गिर जाते हैं। इसे स्क्रीनप्ले की कमजोरी कहें या दृश्यों में घटनाक्रमों का समान गति से आगे नहीं बढ़ना, और इस वजह से इंटरेस्ट लेवल एक सा नहीं रहता। दो दोस्त, दो बहनें और एक भाई, दो लड़कियां, एक पिता, एक दादी और एक करोड़पतियों की बीवी़, कामेडी आफ एरर हंसने-हंसाने का अच्छा फार्मूला है, लेकिन उसमें भी लाजिकल सिक्वेंस रहते हैं। हाउसफुल में कामेडी के नाम पर एरर है। सारी सुविधाओं (एक्टरों की उपलब्धता और शूटिंग के लिए पर्याप्त धन) के बावजूद लेखक-निर्देशक ने कल्पना का सहारा नहीं लिया है। कुछ नया करने की कोशिश भी नहीं