हिन्दी टाकीज:सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था-सुयश सुप्रभ

हिन्दी टाकीज-२९
सुयश सुप्रभ ...ऐसा लगता है की दो नाम हैं.हिन्दी फिल्मों का सन्दर्भ लें तो कोई जोड़ी लगती है,जैसे सलीम-जावेद,कल्याणजी-आनंदजी.सुयश सुप्रभ एक ही व्यक्ति हैं.दिल्ली में रहते हैं और स्वतंत्र रूप से कई काम करते हैं,जिनमें अनुवाद खास है,क्योंकि वह आजीविका से जुड़ा है.पिछले दिनों चवन्नी दिल्ली गया था तो सुयश से मुलाक़ात हुई.यह संस्मरण सुयश उस मुलाक़ात से पहले चवन्नी के आग्रह पर भेज चुके थे.सुयश अपनी दुनिया या अपनी देखि दुनिया की बातें बातें दुनिया की ब्लॉग में लिखते हैं.उनका एक ब्लॉग अनुवाद से सम्बंधित है.उसका नाम अनुवाद की दुनिया है। सुयश को दुनिया शब्द से लगाव है।सुयश ने सिनेमा की अपनी दुनिया में झाँकने का मौका दिया है. हिन्दी टाकीज का सिलसिला चल रहा है.रफ्तार थोड़ी धीमी है।

सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था और आज भी लगता है। दूरदर्शन के ज़माने में रविवार की फ़िल्मों को देखकर जितना मज़ा आता था, उतना मज़ा आज मल्टीप्लेक्स में भी नहीं आता है। उस वक्त वीसीआर पर फ़िल्म देखना किसी उत्सव की तरह होता था। मोहल्ले के लोग एक-साथ बैठकर वीसीआर पर फ़िल्म देखते थे। कुछ 'अक्खड़' किस्म के लोगों के यहाँ जाने में संकोच भी होता था, लेकिन फ़िल्म देखने की ललक के आगे यह संकोच टिकता नहीं था। बचपन में एक बार मेरी तबियत खराब होने पर मेरे घरवालों ने मुझे पड़ोसी के घर में रंगीन टीवी पर फ़िल्म दिखाने की व्यवस्था की थी। जहाँ तक मुझे याद है, इसके बाद मेरी तबियत ठीक हो गई थी!
मेरे शहर दरभंगा में उस वक्त कुल मिलाकर छह सिनेमा घर थे - पूनम, उमा, नेशनल, लाइट हाउस, कल्पना और सोसाइटी। इन सिनेमा घरों की सबसे ख़ास बात यह थी कि इनमें हर वर्ग के लोग फ़िल्म देखने जाते थे। आज मल्टीप्लेक्सों में जाने वाले दर्शकों में अधिकतर लोग मध्य या उच्च वर्ग के होते हैं। टिकटों की कीमत आज की तुलना में बहुत कम थी। वैसे इन सिनेमा घरों में कुछ कमियाँ भी थीं। हिट फ़िल्मों की टिकटें प्राय: ब्लैक में मिलती थीं। लोग सीट या सीढ़ियों पर पान की पीक फेंकते और यह सब बिल्कुल सामान्य माना जाता था।
इन सिनेमा घरों में अपनी सीट खोजना आसान नहीं होता था। सीट दिखाने वाला आदमी अंधेरे में टॉर्च से सीट पर लाइट मारता और हमारे पास उसका निर्देश समझने के लिए सिर्फ़ कुछ सेकंड होते। भीड़ अधिक होने पर वह टॉर्च और सीट के बीच कोई-न-कोई आ जाता। दूसरी बार पूछने पर टॉर्च वाले से डाँट सुनने को मिलती। "एक बार में समझ में नहीं आता है", "दिमाग कहाँ रहता है", "जब बता रहे थे तो कहाँ देख रहे थे"...। अंधेरे में अगर गलती से भी 'लेडीज़' से टकरा जाता तो गाली सुनने के लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना पड़ता।
टिकट के लिए अकसर मारपीट हो जाती थी। कुछ लोग अपनी अद्भुत कला का प्रदर्शन करते। जब भीड़ बहुत अधिक होती तो ये लोगों के कंधों पर इस तरह 'तैरते' चले जाते कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब उनके ऊपर से एक इंसान आगे चला गया और टिकट लेने में कामयाब भी हो गया। लाइन में लगना मेरे जैसे कमज़ोर लोगों का काम था।
मैंने बचपन में माँ के साथ बहुत सारी फ़िल्में देखी हैं। मेरी माँ को विजया शांति की तेजस्विनी फ़िल्म बहुत अच्छी लगती है। इसमें एक औरत के संघर्ष और विजय की कहानी है। आज भी माँ इस फ़िल्म को फ़िर से देखना चाहती हैं।
पहले किसी एक फ़िल्म को देखने के बाद कई दिनों तक उसका असर दिलोदिमाग पर छाया रहता था। उस वक्त अनिल कपूर की फ़िल्में हिट हो रही थीं। बच्चों के रखवाले के रूप में अनिल कपूर की कुछ फ़िल्में आई थी, जिनमें मि. इंडिया, रखवाला आदि मुझे आज भी याद हैं। मैं बहुत दिनों तक अनिल कपूर के इन चरित्रों से प्रभावित रहा।
अमिताभ बच्चन की गंगा जमुना सरस्वती सरस्वती, शंहशाह आदि फ़िल्में फ़्लॉप हो रही थीं। लेकिन उनकी पुरानी हिट फ़िल्मों का नशा लोगों के सिर से उतरा नहीं था। मैं दीवार, जंजीर आदि फ़िल्मों में उनके अभिनय से बहुत प्रभावित था और आज भी मेरी नज़र में उनसे बड़ा स्टार भारत में नहीं है।
बड़े होने पर मॉर्निंग शो के बारे में पता चला। इसका रहस्य दोस्तों से मालूम हुआ था। इसकी टिकट लेने वाले अपना मुँह छिपाने की नाकाम कोशिश करते थे। उन्हें यह डर लगता था कि जान-पहचान का आदमी उनके घरवालों को यह न बता दे कि उनका सुपुत्र मॉर्निंग शो देखने जैसी 'गिरी हरकत' कर रहा है। कभी-कभी दिलचस्प नज़ारा देखने को मिलता। मॉर्निंग शो देखकर निकलने वाले लोग इतनी तेज़ी से निकलते कि उनका चेहरा तक नहीं दिखता। कम उम्र के लड़के सहमे हुए निकलते। कुछ लोग लंबे कद के लोगों के पीछे छिपने की नाकाम कोशिश करते दिखते।
'दीवार' में अमिताभ बच्चन के मरने पर मुझे इतना दुख हुआ था कि कई दिनों तक किसी काम में मेरा मन नहीं लगा। मेरी माँ को ऐसी फ़िल्में बिल्कुल पसंद नहीं हैं जिनमें हीरो मर जाता है। उन्हें महमूद, असरानी जैसे हास्य अभिनेताओं की फ़िल्में बहुत अच्छी लगती हैं। मैं आज तक उन्हें आनंद फ़िल्म देखने के लिए राजी नहीं कर पाया हूँ।
कभी-कभी फ़िल्म देखते वक्क्त कुछ दर्शक चिल्लाते, "जियो जवानी", "टंच माल है" ...। परिवार के साथ फ़िल्म देखते वक्त उनकी ये बातें बुरी लगतीं। फ़िल्म में प्रणय या अंग प्रदर्शन के दृश्यों के दौरान परिवार के सभी लोग सिनेमा घर की छत, जमीन, सीट आदि देखने लगते और मेरी तो यह हालत होती थी कि मैं जमीन के फटने और उसमें समा जाने की कामना करने लगता था। एक बार हमारे शहर में मैथिली फ़िल्म लगी थी। इस फ़िल्म को देखने के लिए लोग गाँवों से ट्रैक्टर पर चढ़कर आते थे। कुछ सदाबहार फ़िल्में हर साल सिनेमाघरों में लगती थीं। इन फ़िल्मों में मदर इंडिया, शोले, दो बदन, नदिया के पार आदि शामिल हैं।
वक्त बीता और केबल का ज़माना आया। लेकिन सिनेमा घरों का आकर्षण अभी बरकरार था और आज भी यही स्थिति है। बड़े पर्दे पर फ़िल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है।
आज इंटरनेट व पत्र-पत्रिकाओं से विश्व सिनेमा के बारे में अच्छी जानकारी मिल जाती है। ईरान, इटली आदि की फ़िल्मों को देखने के बाद मैंने यह जाना कि सिनेमा सिर्फ़ बॉलीवुड या हॉलीवुड तक सीमित नहीं है। विदेशी भाषा की फ़िल्मों से हम दूसरे देश की संस्कृति, रहन-सहन आदि के बारे में जानते हैं।

Comments

mamta said…
बड़े पर्दे पर फ़िल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है।

सोलह आने सच कहा है ।
बहुत खूब, भारत में हिन्दी फ़िल्मों के साथ-साथ मर्निंग शो भी जमकर चलता है. बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक तिरछी आंखों से सिनेमा हाल के बाहर लगे गरमागरम पोस्टर देख गरम होते हैं. बच्चे को बुजुर्ग से डर और बुजुर्ग को बच्चे से शर्मिंदगी उठाने का डर बना रह्ता है.हिन्दी टाकिज के आगामी लेखक इस ओर अवश्य ध्यान देंगे.
रांची में एक टॉकिज है सुजाता। उसी के साथ एक और नाम जुड़ा है मिनी सुजाता। हमलोग हिन्दी अनुवाद करके इसे छोटका सिनेमा कहते। बाद में दोस्तों की सर्किल के बीच छोटका सिनेमा का मतलब ही हो गया, अश्लील सिनेमा जबकि आम आदमी छोटका सिनेमा माने टेलीविजन समझ बैठते।
chavannichap said…
chhote shahron aur kasbon ke morning shows par apne anubhav aur sansmaran post karen.swagat hai sabhi ka...
vastav men anubhav to chhote shahron ke hi hote the , jahan usa samay sinema dekh kar aane par 'story' bhi bade chav se sunai jati thi aur eka eka seen ka maja lete hue sunate aur sunaye jaate the.
अरे!...आपने तो अपने बहाने मेरी भी कहानी कह दी
Anonymous said…
अच्छा है ...... दरभंगा में सिनेमा को लेकर बात हुई तो अपने एक शिक्षक में याद आई ...... नाम था १.९० (एक नब्बे ).... यानी उन दिनों लाइट हाउस में सबसे अगली पंक्ति (फर्स्ट क्लास) का टिकट ... हाँ, वे इसी नाम से जाने जाते थे..... एम एल अकादमी में पढ़े लोगो में से किसी को उनका असली नाम याद है ? ....एक बात और ... स्कूल में उन दिनों जब किसी लड़की के प्रेम सम्बन्ध के बारे में दोस्तों में विवाद होता, यह एक अकाट्य तर्क था कि वह अपने तथाकथित प्रेमी के साथ 'लाइट हाउस' में सिनेमा देखती पाई गई थी ....

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम