हिन्दी टाकीज: कोई भी फ़िल्म चुपचाप नहीं आती थी-विष्णु बैरागी


हिन्दी टाकीज-२७
विष्णु बैरागी रतलाम में रहते हैं.विष्णु बैरागी हों गए हैं और ब्लॉग की दुनिया में सक्रिय हैं.उनके दो ब्लॉग हैं-एकोऽहम् और मित्र-धन ,इसके अलावा विष्णु एजेंट हैं जीवन बीमा निगम के.अपने बारे में वे लिखते हैं....कुछ भी तो उल्लेखनीय नही । एक औसत आदमी जिसे अपने जैसे सड़कछापों की भीड़ में बड़ा आनन्‍द आता है । मैं अपने घर का स्वामी हूं लेकिन यह कहने के लिए मुझे मेरी पत्नी की अनुमति की आवश्यकता होती है पूरी तरह अपनी पत्नी पर निर्भर । दो बच्चों का बाप । भारतीय जीवन बीमा निगम का पूर्णकालकि एजेण्ट । इस एजेन्सी के कारण धनपतियों की दुनिया में घूमने के बाद का निष्कर्ष कि पैसे से अधिक गरीब कोई नहीं । पैसा, जो खुद अकेले रहने को अभिशप्त तथा दूसरों को अकेला बनाने में माहिर ।


ईशान अभी ग्यारह वर्ष का नहीं हुआ है। छठवीं कक्षा में पढ़ रहा है। चुप बिलकुल ही नहीं बैठ पाता। 'बाल बिच्छू' की तरह सक्रिय बना रहता है। उसे पूरे शहर की खबर रहती है। मैं उसके ठीक पड़ौस में रहता हूँ-एक दीवाल की दूरी पर। आज सवेरे उससे कहा - 'स्लमडाग करोड़पति लगे तो मुझे कहना। देखने चलेंगे।' सुनकर उसने मुझे आश्चर्य और मेरे प्रति दया भाव से देखा। बोला -' अरे ! दादाजी, वह तो आकर चली भी गई।'


धक्का लगा। इसलिए नहीं कि मैं वह फिल्म नहीं देख पाया। इसलिए कि जिस फिल्म का डंका पूरे देश में बज रहा है, जिसकी 'जय हो' से गली-गली गुंजायमान है, जिसे oscar मिलने की कल्पना मात्र से देश का आभिजात्य वर्ग ही नहीं, 'आॅस्कर' का अर्थ न समझने वाला मध्य वर्ग भी पुलकित हो रहा है, वह फिल्म मेरे कस्बे में कब आई और कब चली गई, पता ही नहीं लगा! हाथी गली मे होकर निकल गया और पत्ता भी नहीं खड़का? वह भी तब, जबकि (जिसमें लगी थी, वह) सिनेमा घर मेरे निवास से तीन सौ मीटर दूर भी नहीं? सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट वाले इस समय का एक अर्थ कहीं 'सम्वादशून्यता' बनकर तो सामने नहीं आ रहा?


मुझे मेरे स्कूली दिनों वाला मेरा पैतृक गाँव मनासा और वहाँ का 'जगदीश टाकीज' याद आ गया। 'नगर सेठ भैया साहब झँवर' उसे चलाते थे। तब जनसंख्या यही कोई नौ-दस हजार रही होगी मेरे मनासा की। 'श्री बद्री विशाल मन्दिर' के बाद गाँव का सबसे बड़ा आकर्षण यह 'जगदीश टाकीज' ही था। अल्हेड़ दरवाजे और बस स्टैण्ड के बीचों-बीच। आस-पड़ौस के गाँवों के प्रवासी यात्री, अपना सामान अपने साथ वाले के जिम्मे कर, भरी-दोपहर में यह टाकीज देखने आते। सन्नाटा होता था उस समय टाकीज के प्रांगण में। और तो और, उसमें लगी होटल भी सुनसान रहती। फिर भी लोग आते, टाकीज के बरामदे में लगे, 'चालू फिल्म' के पोस्टर और 'स्टिल्स' देखते और अपने गाँव जाकर, 'अनूठी उपलब्धि' की तरह इस 'टाकीज-दर्शन' का बखान किसी परी कथा की तरह करते।

फिल्म का बदलना तब पूरे गाँव की बड़ी घटना होता था। तीन-चार दिन पहले ही पता हो जाता था कि फलाँ फिल्म लगने वाली है। 'नई' फिल्म के पोस्टर चिपकेे बोर्ड, गाँव की गली-गली में घुमाए जाते। लकड़ी की फ्रेम पर, जूते गाँठने वाली बारी किलों से ठुके टाट पर चूना पोतकर इबारत की जमीन बनाई जाती और उस पर नीले, लाल, काले रंगों से फिल्म के नाम तथा अन्य ब्यौरे लिखे जाते। बोर्ड का आकार सामान्यतः 4 गुणा 4 होता। उन दिनों कोई भी फिल्म, रीलीज होने के बरसों बाद ही मेरे गाँव जैसे 'सेण्टर' तक आ पाती थी (तब किसी फिल्म की की रीलीज के समय 10 प्रिण्ट जारी करना 'धमाका खबर' होता था)। सो, तब तक फिल्म की 'सफलता और हैसियत' सबको मालूम हो चुकी होती थी। बोर्डों की और इबारत के रंगों की संख्या का निर्धारण, फिल्म की इसी सफलता और हैसियत के अनुसार होता।


इन बोर्डों की संख्या सामान्यतः दो ही होती। प्रत्येक बोर्ड को दो बच्चे उठाए होते। मुफ्त में फिल्म देखना इन बच्चों का पारिश्रमिक होता। बोर्ड उठाने के लिए बच्चों में मानो होड़ लगी रहती। ऐसे बच्चे अगले दिन अतिरिक्त गौरव-भाव से फिल्म की 'स्टोरी' सुनाते। बोर्ड उठाने को 'गिरी हैसियत' का काम समझा जाता। मैंने एक-दो बार कोशिश की तो मुझे भगा दिया गया, यद्यपि हमारा परिवार रोटियाँ माँगता था।
फिल्म की हैसियत के अनुसार ही बोर्डों को गलियों में घुमाया जाता। सामान्यतः दो-दो बोर्ड चुपचाप घुमा दिए जाते। कोई ठीक-ठीक फिल्म होती तो बोर्डों के आगे 'मोहम्मद हुसैन बा साहब के बैण्ड' का एक ट्रम्पेट वादक और एक ड्रमर चल रहा होता। 'हिन्दुस्तान के शहरों में कामयाबी के झण्डे गाड़ने वाल' फिल्म होती तो बोर्डों की संख्या ही नहीं, बोर्डों का आकार भी बढ़ जाता और बैण्ड के सदस्यों की संख्या भी। लाउडस्पीकर का चलन उन दिनों नहीं था। बोर्डों के ठीक पीछे एक उद्घोषक चल रहा होता जिसके पास, टीन का बना भोंपू होता। वह अपनी पूरी ताकत से फिल्म की खूबियाँ बखान करता । जैसे कि 'हिमालय के सच्चे सीनों से भरपूर, महान् धार्मिक फिल्म.....' या 'मार-धाड़ से भरपूर, किंगकांग और दारासिंह की दिल हिला देने वाली कुश्तियाँ.....' या 'नाच-गाने से भरपूर, माँ-बहनों के साथ देखने वाली शानदार सामाजिक फिल्म.....' आदि-आदि। उन दिनों फिल्में 'श्वेत श्याम' ही हुआ करती थीं और 'रंगीन' की शुरुआत हुई ही थी। कुछ गीतों का फिल्मांकन रंगीन हुआ करता था। ऐसे 'रंगीन गीत' फिल्म का विशेष आकर्षण होता और उद्घोषक को याद रख कर अलग से कहना पड़ता - 'तीन रंगीन पार्ट सहित...'।


जिस दिन फिल्म बदलती उस दिन पहला शो, अपने निर्धारित समय शाम 6 बजे से कोई आधा घण्टा देर से शुरु होता। फिल्म का प्रिण्ट इन्दौर से आता। इन्दौर से चलकर रामपुरा जाने वाली बस शाम कोई 6 बजे मेरे गाँव पहुँचती। बस के आने से काफी पहले ही लोग बस स्टैण्ड पहुँच जाते। टाकीज का कर्मचारी सबसे बाद में पहुँचता। वह किसी नायक की तरह प्रकट होता और ऐसे व्यवहार करता मानो कोई चमत्कार करने वाला हो। फिल्म का प्रिण्ट, टीन के बक्से (पेटी) गोल डिब्बों में बन्द होता। जितने गोेल डिब्बे होते, फिल्म उतनी ही 'रीलों' वाली होती। फिल्म प्रिण्ट के आने को 'फिल्म की पेटी' आना कहा जाता।


बस आती। दूर से, बस की छत पर रखी 'फिल्म की पेटी' देखने की कोशिश शुरु हो जाती।बस आकर, स्टैण्ड पर व्यवस्थित खड़ी होने के लिए रिवर्स होती। बस का खलासी, चलती बस की पिछली फाटक खोल कर तेजी से उतरता और बस के पिछवाड़े, ड्रायवर साइड जाकर 'आने दो, आने दो' की आवाज लगा कर बस को खड़ी करवाता। खलासी जब अपना यह काम कर रहा होता तो बीसियों बच्चे उसकी आवाज में आवाज मिला रहे होते। उस समय लगता, 'आने दो, आने दो' की नारेबाजी हो रही हो।


बस रुकते ही खलासी छत पर चढ़ता। बाकी सवारियों के सामान की अनदेखी कर, सबसे पहले 'फिल्म की पेटी' ठेलता। तब तक टाकीज का कर्मचारी भी बस के पीछे, सीढ़ियों के ठीक नीचे आ खड़ा होता। लेकिन पेटी को झेलना उस अकेले की बस के बाहर होता। सो, कोई एम हम्माल उसकी मदद पर आ जाता। दोनों मिल कर पेटी उतारते। ठेला तैयार ही रहता। पेटी ठेले पर रखी जाती। टाकीज के कर्मचारी से पहले, वहाँ जुटे लोग उचक-उचक कर, पेटी पर चिपका लेबल देखते। जो सबसे पहले देख लेता, जोर से चिल्लाता - '16 रील की है।' पेटी को जुलूस की शकल में टाकीज तक लाया जाता। उसके बाद शो की तैयारी शुरु होती। लेकिन, बस स्टैण्ड से टाकीज तक की लगभग एक सौ कदमों की दूरी तय कर (वह भी ठेले के पहियों पर चलकर) पेटी टाकीज तक पहुँचती उससे पहले पूरे गाँव को मालूम हो चुका होता कि 'फिल्म 16 रील की है।'


मेरे गाँव के टाकीज में आने वाली प्रत्येक 'नई' फिल्म इसी तरह आती। यह क्रम मेरे गाँव की जिन्दगी का स्थायी हिस्सा बना रहा। कोई भी फिल्म, कभी भी चुपचाप नहीं आई। जो भी आई, अपनी हैसियत के मुताबिक धूम धड़ाके से आई। और केवल आने पर ही चर्चित नहीं रही। जाने के बद भी उसकी चर्चा होती रहती। तब मेरे गाँव में, सेठों के यहीं टेलफोन होता था। सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए हर कोई एक दूसरे पर निर्भर था। पोस्ट कार्ड तीसरे ही दिन अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता था। तब भी पूरे गाँव को मालूम होता था कि 'नई फिल्म' कौन सी आ रही है और कब आ रही है।

आज दुनिया एक गाँव में बदल गई है। अंगुलियों की पोरों की एक हरकत सारी दुनिया की नवीनतम जानकारी, कम्प्यूटर के पर्दे के जरिए घर-घर में, एक पल में पहुँच रही है। अखबार छपने से पहले ही बासी होने लगे हैं। ऐसे 'जीवन्त समय' में, 'स्लगडाग करोड़पति' मेरे कस्बे में, मेरे घर से तीन सौ मीटर दूर स्थित सिनेमा घर में लग कर उतर गई और मुझे भनक तक नहीं पड़ी! यकीनन यह मेरी असावधानी तो है ही किन्तु फिल्मों के प्रति हमारे सार्वजनिक व्यवहार का परिचायक भी है।
bairagivishnu@gmail.com

Comments

बैरागी जी आपने बहुत सुंदर लिखा है. हमारे यहा भी इशी तरह की कहानी दोराही जाती थी....
...........हाल के सुनहरे परदे पर देखीये राज कपूर का कमाल ,महमूद का धम्माल."
बचपन का वो जमाना याद आया।
अब कहाँ वो नजारे जब उठते जागते अपने छोटे से शहर की रक्त-शिराएँ बने इन टाकीजों के इर्द-गिर्द ज़िन्दगी मटकती थी..
फिल्म से ज्यादा दिलचस्प तो आपका कहने का अंदाज लगा हमें ......पुराणी यादो में गोता आप लगा रहे थे .ओर दिखाई हमें दे रहा था
dipankar giri said…
great..ye to cinema paradiso se bhi interesting....kaafi visually likha hai...door se hi bus ki chhat par rakhi film ki peti nazar aati thi aur..bachhe saath me naara lagataa the..aane aane do..jitna sundar anubhav utna hi pyaara lekh..badhaai..
haan!main Dr. anuraag ji ke kathan se sahmat hoon aap to bahut achha likhte hain , sab jaise aankhon ke saamne chal raha tha kisi rochak film ki tarah. yaddon me shamil karne ke liye dhanyavaad
आपका कहने का अंदाज़ बहुत भा गया

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Manjit Thakur said…
शानदार पोस्ट...

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