फ़िल्म समीक्षा:8x10 तस्वीर

भेद खुलते ही सस्पेंस फिस्स
नागेश कुकुनूर ने कुछ अलग और बड़ी फिल्म बनाने की कोशिश में अक्षय कुमार के साथ आयशा टाकिया को जोड़ा और एक नई विधा में हाथ आजमाने की कोशिश की। इस कोशिश में वे औंधे मुंह तो नहीं गिरे, लेकिन उनकी ताजा पेशकश पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर रही। कहा जा सकता है कि कमर्शियल कोशिश में वे कामयाब होते नहीं दिखते। नागेश वैसे निर्देशकों के लिए केस स्टडी हो सकते हैं, जो अपनी नवीनता से चौंकाते हैं। उम्मीदें जगाते हैं, लेकिन आगे चलकर खुद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कोल्हू में जुतने को तैयार हो जाते हैं। अपनी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज से उन्होंने प्रभावित किया था। डोर तक वह संभले दिखते हैं। उसके बाद से उनका भटकाव साफ नजर आ रहा है।
8/10 तस्वीर में नागेश ने सुपर नेचुरल शक्ति, सस्पेंस और एक्शन का घालमेल तैयार किया है। जय पुरी की अपनी पिता से नहीं निभती। वह उनके बिजनेश से खुश नहीं है। पिता-पुत्र के बीच सुलह होने के पहले ही पिता की मौत हो जाती है। जय को शक है कि उसके पिता की हत्या की गई है। जय अपनी सुपर नेचुरल शक्ति से हत्या का सुराग खोजता है। उसके पास अद्भुत शक्ति है। वह तस्वीर के जरिए बाद की घटनाओं को देख सकता है। नागेश ने जय की पिता की हत्या के पहले खींची तस्वीर में मौजूद चारों व्यक्तियों के जरिए घटनाओं को जोड़ते हुए सस्पेंस बढ़ाया है। जय को लगता है कि वह हत्यारे तक पहुंच रहा है, लेकिन जब हत्यारे का पता चलता है तो हंसी आती है। नागेश ने फिल्म में लंबे समय तक सस्पेंस बनाए रखा है। सस्पेंस खुलता है तो फिल्म अचानक लड़खड़ा जाती है। सस्पेंस फिल्मों के साथ दर्शकों की जिज्ञासा तभी जुड़ी रहती है, जब कातिल भी दृश्यों में मौजूद हो और उस पर शक नहीं कर पा रहे हों।
नागेश ने शिल्प में आधुनिक तकनीक व स्पेशल इफेक्ट का सुंदर उपयोग किया है। अक्षय के एक्शन दृश्य हैरतअंगेज तो नहीं हैं, लेकिन वे किरदार से मेल खाते हैं। फिल्म का लोकेशन कहानी के उपयुक्त है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी पटकथा है। चूंकि नागेश ने खुद फिल्म लिखी है, इसलिए कह सकते हैं कि लेखक नागेश ने निर्देशक नागेश का साथ नहीं दिया। अंतिम बीस मिनट में फिल्म सपाट हो जाती है। तब तक बना रोमांच काफूर हो जाता है। फिल्म में अक्षय कुमार निराश नहीं करते। वह एक्शन दृश्यों में सहज रहते हैं। आयशा टाकिया को दो दृश्य मिले हैं। उन दृश्यों को वह निभा ले जाती हैं। जावेद जाफरी ने जटिल किरदार निभाया है और उसे कामिकल नहीं होने दिया है। शर्मिला टैगोर समेत बाकी कलाकार सामान्य हैं।
रेटिंग : **

Comments

Aapne suspence barkarar rakhte hue acchi saminsha likhi.
RAJNISH PARIHAR said…
aapne bta kar achha kiya...varna hum nahak hi bor hote...
Unknown said…
फिल्म देखते हैं आपकी समीक्षा पढ़कर देखने का मन हुआ है ।
sameeksha to achchhi rahi ....nagesh ji to waise achchhe director hain ....
मुझे तो कहानी ही अविश्‍सनीय लगी

कैसे कोई आदमी तस्‍वीर में जाकर भूतकाल देख सकता है। अब जादूटोना ही दिखाना था तो उसके खत्‍म होते ही मेडिकल साइंस का सहारा क्‍यूं लिया गया। दोनों चीजें एक साथ दिखाई गई यह बहुत ही मूर्खतापूर्ण था।
दूसरा
जब एक बच्‍चा खो गया तो मां बाप ने उसे खोजा ही नहीं।

तीसरी बात
जिसे बच्‍चा मिला वो उसे पीटता क्‍यूं हैं, जीत अपने ही परिवार से किस बात का बदला लेना चाहता है यह कारण साफ नहीं हुआ।

कुल मिलकार वही बात कि पटकथा ही कमजोर थी

वैसे मैंने भी कुछ लिखने का प्रयास किया है
आप जितना अच्‍छा नहीं लिख पाया पर फिर भी आप एक नजर डालें तो मजा आ जाएगा

http://shuruwat.blogspot.com/2009/04/blog-post_04.html

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