दरअसल : महत्वपूर्ण फिल्म है रोड टू संगम


-अजय ब्रह्मात्‍मज

पिछले दिनों मुंबई में आयोजित मामी फिल्म फेस्टिवल में अमित राय की फिल्म रोड टू संगम को दर्शकों की पसंद का अवार्ड मिला। इन दिनों ज्यादातर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों की रुचि और पसंद को तरजीह देने के लिए आडियंस च्वॉयस अवार्ड दिया जाता है। ऐसी फिल्में दर्शकों को सरप्राइज करती हैं। सब कुछ अयाचित रहता है। पहले से न तो उस फिल्म की हवा रहती है और न ही कैटेगरी विशेष में उसकी एंट्री रहती है।

रोड टू संगम सीमित बजट में बनी जरूरी फिल्म है। इसके साथ दो अमित जुड़े हैं। फिल्म के निर्माता अमित छेड़ा हैं और फिल्म के निर्देशक अमित राय हैं। यह फिल्म अमित राय ने ही लिखी है। उन्होंने एक खबर को आधार बनाया और संवेदनशील कथा गढ़ी। गांधी जी के अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियां अनेक कलशों में डालकर पूरे देश में भेजी गई थीं। एक अंतराल के बाद पता चला था कि गांधी जी की अस्थियां उड़ीसा के एक बैंक के लॉकर में रखी हुई हैं। कभी किसी ने उस पर दावा नहीं किया। अमित राय की फिल्म में उसी कलश की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित करने की घटना है।

गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित की गई थीं। अस्थि कलश को जिस गाड़ी से ले जाया गया था, वह इलाहाबाद के एक संग्रहालय में है। वर्षो बाद फिर से अस्थियां प्रवाहित करने की योजना बनती है, तो उसी गाड़ी के इस्तेमाल की बात सोची जाती है। समस्या यह है कि सालों से बंद होने के कारण वह गाड़ी खराब हो गई है। इलाहाबाद के मेकेनिक हशमत उल्लाह को गाड़ी ठीक करने का काम सौंपा जाता है। उनके अलावा और कोई उसे ठीक नहीं कर सकता। हशमत बड़े मनोयोग से यह काम शुरू करते हैं। बाद में उन्हें पता चलता है कि इस गाड़ी से गांधी जी की अस्थियां ले जाई जाएंगी, तो उनका मनोबल बढ़ जाता है। इस बीच शहर में दंगा होता है। कुछ मुसलिम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है। उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ मुसलिम नेता लामबंद होते हैं और वे फतवा जारी करते हैं कि उनके नेताओं की रिहाई तक इलाके की सभी दुकानें बंद रहेंगी। मजबूरन हशमत को अपना गैरेज बंद रखना पड़ता है। मामला लंबा ख्िाचता है, तो हशमत चिंतित होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर समय पर गाड़ी ठीक नहीं हुई, तो उस महान आत्मा के साथ नाइंसाफी होगी। वे फतवे के विरुद्ध हो जाते हैं, गैरेज खोलते हैं और शांतिपूर्ण तरीके से अपना काम करते हैं। उनकी ईमानदारी और सादगी का प्रभाव इतना प्रबल है कि धीरे-धीरे दूसरे लोगों का नैतिक सहयोग उन्हें मिलने लगता है। आखिरकार गाड़ी ठीक हो जाती है और उसी गाड़ी से अस्थियां प्रवाह के लिए ले जाई जाती हैं।

हिंदी फिल्मों में मुसलिम किरदारों को पेश करने के निश्चित प्रारूप हैं। वे या तो त्याग करते हैं या फिर आतंकवादी होते हैं। हमारे फिल्मकारों ने मुसलिम समाज की दुविधा और व्यथाओं को व्यक्त ही नहीं किया है। उनके जीवन के हर्ष-विषाद भी हम नहीं जानते। रोड टू संगम में एक छोटे शहर का समाज है। फिल्म के किरदार वास्तविक और पड़ोसी लगते हैं।

च् अमित राय ने देश के मुसलमान और उनकी भावनाओं को नए तरीके से दर्शकों के सामने रखा है। देश के ज्यादातर मुसलमान हशमत की तरह सोचते हैं, लेकिन वे कट्टरपंथी नेताओं के आगे खड़े नहीं हो पाते। उन्हें अपनी बिरादरी से निष्कासन और हुक्का-पानी बंद होने का डर रहता है। हशमत के तर्क और सवाल देश के मुसलमान मन को अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। फिल्म सादगी के साथ अपना मंतव्य रखती है। फिल्म में कोई स्टार नहीं है। फिल्म के मुख्य कलाकार परेश रावल, ओम पुरी, पवन मल्होत्रा और जावेद शेख हैं।


Comments

क्या यह पुरानी फिल्मों का मुकाबला कर पायेगी!
amit said…
Ajay ji dhanyawad ...kitni yaadien taaza ho gai ...

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