दरअसल : भारतमाता का संरक्षण

-अजय ब्रह्मात्‍मज
हालांकि यह तात्कालिक जीत है, लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व है। भारतमाता सिनेमा को चालू रखने के लिए मराठी समाज की एकजुटता उल्लेखनीय है। पिछले कुछ सालों से आई मल्टीप्लेक्स लहर में बड़े शहरों के सिंगल स्क्रीन और छोटे-मझोले सिनेमाघर टूट रहे हैं। उन्हें बचाने की कोई केंद्रीय या प्रादेशिक नीति नहीं है। देखते ही देखते सिंगल स्क्रीन थिएटरों के आंगन और भवनों में मल्टीप्लेक्स चलने लगे हैं। सरकारी सुविधाओं और टैक्स रियायतों की वजह से थिएटर मालिक भी मल्टीप्लेक्स को बढ़ावा दे रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में मुंबई के लालबाग में स्थित भारतमाता सिनेमा को बंद करने के फैसले से मराठी फिल्मों के प्रेमियों को जबरदस्त धक्का लगा है।
सात साल से एनटीसी और भारतमाता सिनेमा के बीच विवाद चल रहा है। भारतमाता सिनेमा की लीज समाप्त हो चुकी है। एनटीसी चाहती है कि भारतमाता जमीन खाली कर दे। कानूनी तौर पर भारतमाता सिनेमा की जीत अनिश्चित लगती है। फिर भी भारतमाता सिनेमा से स्थानीय दर्शकों और मराठी फिल्म इंडस्ट्री का भावनात्मक लगाव है। लगभग सत्तर साल पुराने इस थिएटर में पिछले कुछ सालों से केवल मराठी फिल्में रिलीज हो रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने यह प्रावधान किया है कि प्रांत के मल्टीप्लेक्स थिएटर भी मराठी फिल्में दिखाएं। मल्टीप्लेक्स मालिक इस प्रावधान का औपचारिक पालन करते हैं। कुछ सिंगल स्क्रीन और पुराने थिएटरों में ही नियमित रूप से मराठी फिल्में दिखाई जाती हैं। उनमें से भारतमाता सिनेमा प्रमुख है, क्योंकि यहां केवल मराठी फिल्में ही दिखाई जाती हैं।
कोर्ट ने एनटीसी के समर्थन में भारतमाता सिनेमा के खिलाफ फैसला सुनाया है। इस फैसले के क्रियान्वयन के पहले मराठी बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और फिल्मप्रेमी एकजुट हो गए हैं। वे सभी प्रदेश की सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि भारतमाता सिनेमा में फिल्मों का प्रदर्शन चलता रहे। भारतमाता सिनेमा मराठी संस्कृति की अस्मिता से जुड़ गया है। कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि भारतमाता सिनेमा बंद होने पर मराठी फिल्मों के प्रदर्शन की वैकल्पिक व्यवस्था की जाएगी। मराठी समाज इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं है। भारतमाता सिनेमा के आसपास निम्न आय समूह के लोग रहते हैं। इन मराठीभाषी मुंबईकरों के लिए 25-30 रुपये का टिकट जेब पर भारी नहीं पड़ता। अगर भारतमाता सिनेमा बंद होता है, तो वे मराठी फिल्मों से वंचित होंगे। उनके लिए यदि मराठी फिल्मों के प्रदर्शन की वैकल्पिक व्यवस्था हो भी गई, तो टिकट के ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। दरअसल, मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने सिंगल थिएटर के दर्शकों को सिनेमाघरों से दूर किया है। ऊंची कीमत के टिकट नहीं खरीद पाने की स्थिति में मेट्रो शहरों के चवन्नी छाप दर्शक पाइरेटेड डीवीडी पर जल्दी से जल्दी फिल्में देखते हैं। सभी शहरों में स्थानीय प्रशासकों ने सिंगल स्क्रीन तोड़ने और मल्टीप्लेक्स के निर्माण की सुविधा देते समय निम्न आय के दर्शकों का खयाल नहीं किया है। मुंबई के पश्चिमी उपनगर में अब गिनती के सिंगल थिएटर बचे हैं और वे अपने इलाके के सारे दर्शकों को समेट नहीं पाते। मुंबई जैसी ही स्थिति दूसरे शहरों की भी है। हिंदी सिनेमा के आम दर्शकों को लगातार वंचित किया जा रहा है, जबकि फ‌र्स्ट डे फ‌र्स्ट शो देखने का उसे भी लोकतांत्रिक अधिकार है। अपनी गरीबी और सिंगल स्क्रीन थिएटर नहीं होने के कारण दर्शकों का महत्वपूर्ण समूह पाइरेटेड डीवीडी मार्केट में मददगार हो जाता है। निश्चित ही स्थानीय प्रशासकों का इन वंचित दर्शकों का खयाल रखना चाहिए और भारतमाता सिनेमा जैसे सिनेमाघरों के संरक्षण का रास्ता निकालना चाहिए।

Comments

बढ़िया आलेख!
सुन्दर प्रस्तुति!!
सर, ये लेख पढ़कर एक बात याद आ गई, किसी न कहा था कि किसी भी नई व्यवस्था की उम्र १०० साल होती है. भूमंडलीकरण के इस प्रभाव से बन रहा ये सपनों का महल भी ढहेगा क्योंकि इसमें आम जनता के लिए जगह न के बराबर है. ये पूंजीवाद की समर्थक है और भारत की दशा दिशा उस सोच को जमीनी तौर पर नकार देती है.

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