ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : बहुरुपिया का माडर्न अवतार आमिर खान

देशप्रेम को नए अर्थ दिए हैं आमिर खान नेचाचा नासिर खान ने पूत के पांव पालने में ही देख लिए होंगे, तभी तो यादों की बारात में उन्होंने अपने बेटे मंसूर खान के बजाय आमिर खान को पर्दे पर पेश किया। बाद में उसी आमिर को उन्होंने कयामत से कयामत तक में बतौर हीरो हिंदी दर्शकों को भेंट किया। इस फिल्म के डायरेक्टर मंसूर खान थे। पहली फिल्म के लिए चुने जाने का भी एक किस्सा है। आमिर कॉलेज में थे। शौक था कि नाटकों में काम करें, लेकिन किसी भी डायरेक्टर को वे इस योग्य नहीं लगते थे।

विफलता की कसक

आखिरकार महेन्द्र जोशी ने उन्हें मराठी नाटक के एक समूह दृश्य के लिए चुना और मिन्नत करने पर एक पंक्ति का संवाद भी दे दिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं दोस्तों के साथ सबसे पहले रिहर्सल पर पहुंचता था और सबके जाने के बाद निकलता था। हम रोज रिहर्सल करते थे। इसी बीच शिव सेना ने एक दिन मुंबई बंद का आह्वान किया। अम्मी ने उस दिन घर से निकलने नहीं दिया। अगले दिन रिहर्सल पर जवाबतलब हुआ। मेरे जवाब से असंतुष्ट होकर महेन्द्र जोशी ने मुझे नाटक से निकाल दिया। मैं रोनी सूरत लिए बाहर आ गया। बाहर बैठा बिसूर रहा था कि मेरा दोस्त निरंजन थाडे आया। उसने पूछा, क्या कर रहे हो? दो दिन खाली हो क्या? पूना में एक डिप्लोमा फिल्म में छोटा सा काम है। मैंने हां कह दिया और उसके साथ चला गया.., यादों में खोए हुए से बताते हैं आमिर खान।

पूना की उस ट्रिप में आमिर ने पहले इंद्रजीत सिंह बंसल और फिर राजीव सिंह की डिप्लोमा फिल्में कीं। इन दोनों फिल्मों में उनके काम को केतन मेहता ने देखा और अपनी फिल्म होली का ऑफर दिया। होली में आमिर खान के अभिनय से भाई मंसूर खान और चाचा नासिर खान को लगा कि कयामत से कयामत तक के हीरो के रूप में उन्हें पेश करने का रिस्क लिया जा सकता है। फिल्म आई और अद्भुत रूप से सफल रही। हिंदी फिल्मों को एक नया सितारा मिल गया, लेकिन तब भी किसे पता था कि वह ऐसा देदीप्यमान होगा कि 21 साल बाद भी उसकी चमक बरकरार रहेगी। वह फिल्मों को नई दिशा देगा।

सफल फिल्मों का दौर शुरू

1988 में आई कयामत से कयामत तक के बाद के दस सालों में आमिर ने दूसरे फिल्म स्टारों की ही तरह फॉम्र्युला फिल्में कीं। उनमें से कुछ सफल रहीं तो कुछ पिट गई। फ्लॉप फिल्मों में आशुतोष गोवारीकर की दो फिल्में भी थीं, जिनके साथ आमिर ने लगान की। दस साल पहले 2001 में आई लगान हिंदी फिल्मों के इतिहास में में एक माइलस्टोन है। इस फिल्म ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बडी तब्दीली ला दी और आमिर पर दूरगामी प्रभाव डाला। इस फिल्म के दौरान ही उन्होंने अपनी सोच पर अमल किया और फिल्म मेकिंग में योजना और अनुशासन की मिसाल पेश की। आमिर की परफेक्ट सोच का अंकुरण गुलाम के समय ही हो गया था। विशेष फिल्म्स की इस फिल्म की शूटिंग के आरंभ में ही आमिर और महेश भट्ट की बकझक हुई थी। महेश भट्ट के कैजुअल एटीट्यूड को देखते हुए आमिर ने स्टैंड लिया कि उन्हें फिल्म का निर्देशन किसी और को सौंप देना चाहिए। महेश भट्ट की अराजक मेधा को किसी ने पहली बार चुनौती दी थी। हम सभी जानते हैं कि गुलाम का निर्देशन विक्रम भट्ट ने किया था। इस फिल्म में सिद्धू की भूमिका ने उस स्पार्क का परिचय दिया था, जो बाद की उनकी फिल्मों में मिला।

फिल्म के प्रति गंभीरता

एक बातचीत के दौरान आमिर ने कहा था, मुझे गुलाम के दौरान साफ लगने लगा था कि हम जिस तरह से फिल्में बनाते हैं, वह रवैया गलत है। फिल्म और किरदार पर एकाग्रता की जरूरत महसूस हुई। मेरी फिल्मों में जो भिन्नता दिखाई पडती है, उसकी शुरुआत इसी फिल्म से हुई। आमिर की राय से गुलाम के संवाद लेखक ईशान त्रिवेदी भी सहमत दिखते हैं, जो बताते हैं, उस समय के प्रचलन के मुताबिक गुलाम को बनने में चार साल लगे थे। उस दरम्यान मैं आमिर से मिलता-जुलता रहा। मुझे अनुभव हुआ कि हिंदी फिल्मों का यह स्टार अपनी जमात से अलग है और सिनेमा के प्रति सीरियस है। आमिर छोटी-छोटी बातों का खयाल रखते हैं। उनके निरीक्षण में बारीकी है और व्यवहार में भी.. वे लगातार सवाल पूछते हैं और नासमझ लोगों को यही उनका हस्तक्षेप लगता है। आमिर की याद्दाश्त जबरदस्त है और वे इसका इस्तेमाल फिल्म-मेकिंग के साथ निजी व्यवहार में भी करते हैं।

देश और जनता से सरोकार

गुलाम के बाद आई सरफरोश ने आमिर को अलग लीग में ला दिया। इस फिल्म को जॉन मैथ्यू मथान ने निर्देशित किया था। फिल्म में अजय सिंह राठौर मेडिकल की पढाई कर रहा है। एक आतंकवादी हमले में उसके भाई की मौत हो जाती है और पिता जख्मी हो जाते हैं। वह भारतीय पुलिस सेवा में आ जाता है। मुंबई के क्राइम ब्रांच में काम करते हुए वह एक मामले के सिलसिले में राजस्थान पहुंचता है। वहां उसे मालूम होता है कि वह जिस पाकिस्तानी गायक का मुरीद था, वह तो आतंकवादी गतिविधियों में शामिल है। राठौर अपनी जान पर खेल कर गायक की करतूतों का पर्दाफाश करता है। यह फिल्म संयमित तरीके से नायक के राष्ट्रप्रेम को दर्शाती है। इसके बाद आई आमिर खान की लगान ने तो हिंदी फिल्मों के इतिहास में नए अध्याय की शुरुआत की। हिंदी की यह पहली फिल्म थी, जो एक ही शेड्यूल में सुनिश्चित स्क्रिप्ट के साथ पूरी की गई। लगान का नायक भुवन अपने गांववासियों को लगान से मुक्त कराने के लिए उनके साथ क्रिकेट खेलने की चुनौती स्वीकार करता है। वह अंगे्रजों के खिलाफ ग्रामीणों को लामबंद करता है। उनके ही खेल में उन्हें हरा कर वह चंपानेर के लोगों को लगान से मुक्ति दिलाता है। लगान में वह सब कुछ था, जो उन दिनों हिंदी फिल्मों में स्वीकार नहीं किया जाता था। लगान की स्क्रिप्ट और उसके डायरेक्टर आशुतोष गोवारीकर में आमिर के भरोसे ने ही एक क्लासिक फिल्म को संभव बनाया। यह फिल्म देश-विदेश के दर्शकों का दिल जीतने के साथ विदेशी भाषा की फिल्म की श्रेणी में ऑस्कर में नामांकित हुई। फिल्म को मिले सम्मान ने निर्माता आमिर को आत्मविश्वास दिया कि मन की फिल्म बना कर आय और प्रतिष्ठा दोनों अर्जित की जा सकती है।

निजी जीवन की उलझनें

लगान के बाद आमिर के जीवन में भारी उथल-पुथल रही। पत्नी रीना से अलगाव और फिर तलाक हुआ। 21 वर्ष की आयु में आमिर ने अपनी पडोसी रीना से विवाह कर लिया था। यह लडकपन का प्रेम था, जो सालों बाद टूट गया। इस भावनात्मक झटके ने आमिर को एकाकी और टची बना दिया था। इस दौर में मीडिया से भी उनकी तनातनी हुई।

भावनात्मक वैक्यूम से निकलने में उन्हें काफी वक्त लगा। अगली फिल्म द राइजिंग आने में चार साल का अंतराल इसी वजह से रहा। इस फिल्म के लिए आमिर ने लंबी मूछों और लंबे बालों का लुक लिया था। मंगल पांडे के किरदार में वे दर्शकों को पसंद आए थे। इस फिल्म का घोषित स्वर अंगे्रजों के खिलाफ था। भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी का किरदार निभाते समय आमिर ने स्वाधीनता आंदोलन की घटनाओं और साम्राज्यवादी ताकतों की साजिशों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि डेढ सौ साल पहले के अंग्रेजी साम्राज्यवाद और 20 वीं-21वी सदी के अमेरिकी साम्राज्यवाद में अधिक फर्क नहीं है। दोनों का उद्देश्य पराधीन या निर्भर देशों का आर्थिक शोषण ही है।

फिल्मों का प्रभाव

अगली फिल्म राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती थी। क्रांतिकारी जोश से भरपूर इस फिल्म की कथा-भूमि आज की थी। निर्देशक ने प्रतीकात्मक रूप से बताया था कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की कुर्बानियां बेकार गई, क्योंकि आजाद भारत का भ्रष्ट तंत्र अंगे्रजों के कुटिल शासन से कम नहीं है। इस फिल्म में दलजीत उर्फ डीजे की यंग भूमिका में आमिर नौजवानों की पसंद बन गए थे। रंग दे बसंती ने भारतीय समाज के उदासीन और एक्टिव युवकों पर व्यापक असर डाला। फिल्म की थीम को अपनाते हुए युवक सडकों पर उतरे और उन्होंने जेसिका लाल हत्याकांड में अपराधियों को सजा दिलवाने में अहिंसात्मक दबाव डाला। स्वत:स्फूर्त तरीके से जन अभियान चल पडा। आमिर अपनी फिल्म और व्यक्तित्व के इस सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव से पहली बार दो-चार हुए।

राष्ट्रीय ओज का स्वर

पिछले दशक में आई तीनों फिल्मों लगान, द राइजिंग और रंग दे बसंती का स्वर राष्ट्रीय ओज का था। उल्लेखनीय है कि इस दशक में किसी और स्टार ने इतने संयत तरीके से लोकप्रिय फिल्मों में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र निर्माण की बात नहीं कही। लगान के साथ आई गदर में पाकिस्तान विरोध से प्रेरित अंध-राष्ट्रवाद की झलक मिली थी। उसके प्रभाव में कई फिल्मों में संकीर्ण राष्ट्रवाद का नारा गूंजा। कहीं न कहीं यह आमिर की पसंद और कोशिशों का नतीजा था कि हमने हिंदी फिल्मों में राष्ट्रीय महत्व के विषयों को मनोरंजक शिल्प में देखा। अपने प्रयोगों के बावजूद आमिर मानते हैं कि सिनेमा का मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना है। वे सिनेमा में भारतीय परंपरा के हिमायती हैं, जिसमें नाच-गाना, रोमांस और एक्शन सब कुछ रहता है। वे स्पष्ट कहते हैं कि हम समाज सुधारक नहीं हैं और न राजनीति से प्रेरित फिल्में बनाते हैं। विचारों से मानवतावादी आमिर खुद को गांधीवाद के करीब पाते हैं। उनकी स्पष्ट राय है कि देश का भविष्य गांधीवादी विचारों में है। इस दौर में बनी उनकी फिल्मों की थीम के मद्देनजर दैनिक जागरण के एक पाठक ने उनसे पूछा था कि क्या वे अपनी हर फिल्म में अंग्रेजों को ही भगाते रहेंगे? इस पर आमिर ने माना कि देश की समस्याएं उन्हें प्रभावित करती हैं और वे एक नागरिक के तौर पर कंसर्न महसूस करते हैं, फिर भी वे खुद को एंटरटेनर से अधिक नहीं मानते।

प्रयोगधर्मिता व विविधता

आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्मों पर गौर करें तो उनमें विविधता और प्रयोगधर्मिता नजर आती है। सारी फिल्में एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन सभी में आमिर का स्पर्श है। दबी जुबान में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कहा जाता है कि आमिर में कुछ बात तो है ही। उसकी सारी फिल्में दर्शक पसंद करते हैं। वे किसी भी फिल्म के प्रति दर्शकों की जिज्ञासा बढा देते हैं और उन्हें सिनेमाघरों की ओर खींच लाते हैं। फिल्म अध्येता और ट्रेड पंडित दोनों ही मानते हैं कि आमिर स्पर्श ने ही पीपली लाइव, धोबी घाट और डेल्ही बेली के लिए दर्शक जुटाए। इनके अलावा तारे जमींपर जैसी फिल्म के निर्माण और निर्देशन के साथ स्टारडम दांव पर लगाकर उसमें अभिनय करने का साहस आमिर ने दिखाया। आमिर मानते हैं उन्हें इस फिल्म ने सबसे अधिक संतुष्टि दी। उन्होंने महसूस किया कि इस फिल्म के बाद देश के अभिभावकों ने अपनी संतानों की क्षमताओं का नए ढंग से आकलन करना सीखा। उन्हें अपने बच्चों की खूबियां पता चलीं और पढाई एवं ग्रेड सिस्टम के प्रति उनका नजरिया भी बदला। तारे जमीं पर के केंद्र में बच्चे थे तो 3 इडियट्स में उच्च शिक्षा के दबाव में जूझते युवकों की व्यथा थी। रैंचो समर्पण नहीं करता, विरोध में खडा होता है। इन फिल्मों ने शिक्षा के प्रति भारतीय समाज के दृष्टिकोण व रवैये को बदलने में बडी भूमिका निभाई है। यह आमिर के मनोरंजक व्यक्तित्व का सामाजिक सरोकार है।

बहुरूपिये का मॉडर्न रूप

उनके परफेक्शन की बात सभी करते हैं। पिछले दिनों मैं उनके साथ पांडिचेरी में था। वहां वे रीमा कागटी की फिल्म धुआं की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने बताया कि वे अपनी अगली फिल्म धूम 3 की अभी से मानसिक-शारीरिक तैयारी कर रहे हैं। इसकी शूटिंग जनवरी में आरंभ होगी।

वास्तव में आमिर का समर्पण और कार्य के प्रति एकाग्रता ही उन्हें परफेक्ट करती है। वे किसी पेंटर या लेखक की तरह रचना के मूर्त रूप लेने से पहले दिमाग में उसका ब्लू प्रिंट तैयार कर चुके होते हैं। सच तो यह है कि लगान के भुवन के लिए उन्हें महज 48 घंटे की मोहलत मिली और तारे जमीन पर के निर्देशन की कमान संभालने में तीन दिनों का समय मिला। अपनी हर फिल्म में उनकी संलग्नता का यही स्तर होता है। वे घोर प्रतिभाशाली अभिनेता नहीं हैं और न ही उनकी अभिनय शैली में कोई मेथड है।

ऊपरी तौर पर हम उन्हें हिंदी समाज में कभी प्रचलित रहे बहुरूपिये का मॉडर्न अवतार कह सकते हैं। वे शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन की तरह हर फिल्म में एक ही लुक और हाव-भाव नहीं रखते। उनके अभिनय में बाह्य रूप का भी अप्रतिम योगदान है। वे किरदार के रंग-रूप पर बहुत अधिक मेहनत करते हैं और एक बात उन्होंने कही थी कि हर किरदार के खडे होने का अपना अलग अंदाज होता है। अगर आप उस किरदार में स्थिर खडे रह सकते हैं तो उसे निभा भी सकते हैं। यह बात आमिर पर पूरी तरह सच साबित होती है।

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