फिल्म समीक्षा के भी सौ साल

100 years of film review-अजय ब्रह्मात्‍मज 
पटना के मित्र विनोद अनुपम ने याद दिलाते हुए रेखांकित किया कि भारतीय सिनेमा के 100 साल के आयोजनों में लोग इसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि फिल्म समीक्षा के भी 100 साल हो गए हैं।
दादा साहेब फालके की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की रिलीज के दो दिन बाद ही बॉम्बे क्रॉनिकल में 5 मई, 1913 को उसका रिव्यू छपा था। निश्चित ही भारतीय संदर्भ में यह गर्व करने के साथ स्मरणीय तथ्य है। पिछले 100 सालों में सिनेमा के विकास के साथ-साथ फिल्म समीक्षा और लेखन का भी विकास होता रहा है, लेकिन जिस विविधता के साथ सिनेमा का विकास हुआ है, वैसी विविधता फिल्म समीक्षा और लेखन में नहीं दिखाई पड़ती। खासकर फिल्मों पर लेखन और उसका दस्तावेजीकरण लगभग नहीं हुआ है।
इधर जो नए प्रयास अंग्रेजी में हो रहे हैं, उनमें अधिकांश लेखकों की कोशिश इंटरनेशनल पाठकों और अध्येताओं को खुश करने की है। हिंदी फिल्मों की समीक्षा के पहले पत्र-पत्रिकाओं ने उपेक्षा की। कला की इस नई अभिव्यक्ति के प्रति सशंकित रहने के कारण यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों का स्थान न देने की नीति बनी रही।
दरअसल, समाज में सिनेमा की जो स्थिति रही है, वही भाव पत्र-पत्रिकाओं में भी दिखा। अगर आरंभ से ही इस तरफ ध्यान दिया जाता तो निश्चित ही अभी तक एक परंपरा बनी रहती। हिंदी में लिखने-पढ़ने वाले अधिकांश व्यक्तियों का रिश्ता साहित्य से आरंभ होकर साहित्य की सीमा में ही घुट जाता है। जब भी फिल्मों की बात होती है तो एक हेय दृष्टि के साथ उस पर नजर डाली जाती है। रघुवीर सहाय के नेतृत्व में अवश्य ही कुछ बेहतरीन प्रयास हुए, लेकिन उस दौर के ज्यादातर समीक्षकों ने एक विशेष प्रकार के सिनेमा को ही विमर्श के काबिल समझा। उन्होंने मेनस्ट्रीम और लोकप्रिय सिनेमा को अछूत बना दिया। चूंकि आरंभिक प्रस्थान ही भटक गया, इसलिए अभी तक फिल्म समीक्षा और फिल्म लेखन भटकाव का शिकार नजर आता है।
समस्या यह भी है कि विमर्श के लिए स्थान नहीं है। फिल्मों की ऐसी गंभीर पत्रिकाएं और जर्नल नहीं निकलतीं, जहां कोई कुछ लिख सके। पत्र-पत्रिकाओं में शब्दों की सीमा और तात्कालिकता के दबाव में नियमित समीक्षक पूरी बात रख नहीं पाते। मैं अपने अनुभवों की बात करूं तो दैनिक जागरण जैसे अखबार में समीक्षा लिखते समय मेरा पहला दायित्व होता है निश्चित शब्द सीमा में हर उम्र और तबके के पाठकों तक फिल्म का मुख्य भाव और अभिप्रेत रख सकूं। निर्णायक समीक्षा लिखने से बेहतर है कि आप अपनी राय रख दें। उसके बाद पाठक तय करें कि उन्हें उससे क्या मिला? कुछ लोगों को लगता है कि अखबारों के रिव्यू दबाव में लिखे जाते हैं। अन्य अखबारों के बारे में नहीं मालूम, लेकिन दैनिक जागरण में कभी इस प्रकार का दबाव नहीं रहा।
मेरी स्पष्ट धारणा है कि फिल्मों की जानकारी और सूचना देना फिल्म पत्रकारिता का हिस्सा है। वहां संबंधित व्यक्तियों के नजरिए से प्रशंसा हो सकती है। फिल्म समीक्षा एक प्रकार का क्रिएटिव लेखन है, जिसमें समीक्षक के संस्कार, परिवेश, ज्ञान और जानकारी का पता चलता है।
हिंदी में ब्लॉग की लोकप्रियता के बाद फिल्मों पर बहुत अच्छा लिखा जा रहा है। सभी लेखकों को समीक्षक मान लेना उचित नहीं होगा, लेकिन अगर उन सभी ब्लॉग को संकलित किया जाए तो पाठकों की सहज प्रतिक्रिया से फिल्म की समझ बढ़ सकती है। हिंदी में फिल्मों पर लेखन को अधिक बढ़ावा नहीं दिया जाता। यही कारण है कि हिंदी में मौलिक लेखक और समीक्षक फिल्मों के अनुपात में बहुत ही कम हैं।
इसके साथ ही हमें ध्यान देने की जरूरत है कि फिल्मों के बारे में निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीशियन खुद कितनी बातें और तथ्य शेयर करना चाहते हैं। अमूमन ज्यादातर प्रचारात्मक सामग्रियां उपलब्ध करवाई जाती हैं। होड़ और प्रतियोगिता में सभी लेखक और समीक्षक एक-दूसरे की नकल करते रहते हैं। जरूरत है कि हम फिल्मों पर भावात्मक, साहित्यिक और एकांतिक लेखन करने की बजाय फिल्मों के सामाजिक संदर्भ के साथ सौंदर्यबोध की दृष्टि से उसकी समीक्षा करें।

Comments

सच है, फिल्मों को सही सन्दर्भों में देखने की आवश्यकता सदा से ही है।
BS Pabla said…
सही है, हिंदी में मौलिक लेखक और समीक्षक फिल्मों के अनुपात में बहुत ही कम हैं

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