मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था-नवाजुद्दीन सिद्दिकी


 
-अजय ब्रह्मात्मज
    (कई सालों तक नवाजुद्दीन सिद्दिकी गुमनाम चेहरे के तौर पर फिल्मों में दिखते रहे। न हमें उनके निभाए किरदार याद रहे और न वे खुद कभी लाइमलाइट में आए। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाने की लंबी राह पकड़ी थी। शोहरत तो आंखों से ओझल रही। वे अपने वजूद के लिए पगडंडियों से अपनी राह बनाते आगे बढ़ते रहे। उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे अनवरत चलते रहे। और अब अपनी खास शख्सियत और अदाकारी से नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने सब कुछ हासिल कर लेने का दम दिखाया है। पिछले पखवाड़े कान फिल्म फेस्टिवल में उनकी दो फिल्में ‘मिस लवली’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ प्रदर्शित की गई। इंटरनेशनल फेस्टिवल में मिली सराहना से उनके किसान माता-पिता और गंवई घरवालों का सीना चौड़ा हुआ होगा।)
    दिल्ली से तीन घंटे की दूरी पर मुजफ्फरनगर जिले में बुढ़ाना गांव है। वहीं किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। घर में खेती-बाड़ी का काम था। पढ़ाई-लिखाई से किसी को कोई वास्ता नहीं था। अपने खानदान में मैंने पहली बार स्कूल में कदम रखा। उन दिनों जब पिता से पांच रुपए लेकर पेन खरीदा तो उनका सवाल था कि इसमें ऐसा क्या है कि पांच रुपए खर्च किए। मैंने उन्हें पेन खोलकर उसके पांच हिस्से दिखाए। लिखकर बताया। उस समय गांव में बिजली का नाम-ओ-निशान नहीं था। अभी भी बमुश्किल घंटे-दो घंटे के लिए बिजली आती है। अंधेरे में पूरा गांव सोता और जागता था। आज भी मेरे माता-पिता और दो भाई बुहाना में ही रहते हैं। बाकी भाई देहरादून शिफ्ट कर गए हैं।
    गांव से इंटरमीडिएट करने के बाद मैंने हरिद्वार के साइंस कॉलेज से बीएससी की डिग्री ली। यह 1990 की बात है। उसके बाद नौकरी की तलाश में बड़ौदा पहुंच गया। बड़ौदा में एक पेट्रोकेमिकल कंपनी में चीफ केमिस्ट की नौकरी मिल गई। क्रूड ऑयल के इलेक्ट्रिकल टेस्ट का काम था। काम करने के दौरान एक बार मुझे डर लगा कि थोड़ा भी ध्यान बंटा तो इलेक्ट्रिक शॉक लग सकता है। घबराहट में मैंने नौकरी छोड़ दी। पता नहीं था कि आगे क्या करना है? दोस्तों की संगत में खाली समय में नाटकों में रुचि जगी। थिएटर का सिलसिला आरंभ हुआ। एक साल तक नाटक देखने और फिर उनमें काम करना जारी रहा। दो-ढाई सौ नाटक देखने और दर्जन भर नाटक करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हिंदी थिएटर में बड़ौदा में कोई फ्यूचर नहीं है। दोस्तों ने सलाह दी कि दिल्ली चले जाओ। दिल्ली आने पर साक्षी ग्रुप से रिश्ता बना।
    साक्षी में तब सौरभ शुक्ला और मनोज बाजपेयी आदि सीनियर एक्टर थे। उनके साथ मैंने काम शुरू किया। दो सालों के अभ्यास और अनुभव के बाद एनएसडी में एडमिशन मिल गया। 1993 में एनएसडी में दाखिला मिला। वहां तीन सालों में थिएटर की सभी बारीकियां सीखीं। गांव से आने की वजह से लड़कियों-लडक़ों से मिलने में झेंप होती थी। वह टूटा। फिर एक रूसी निर्देशक पेपलेकोव से मुलाकात हुई। थर्ड इयर में उनका वर्कशॉप किया। उन्होंने मु़झे जीरो लेवल पर लाकर खड़ा कर दिया। फिर एक्टिंग के बारे में समझाना शुरू किया। उनके साथ नाटक करने के दौरान अपने अंदर के एक्टर से परिचय हुआ। तब तक मैं कामेडी रोल में पॉपुलर और स्टीरियोटाइप था। उन्होंने मुझे उससे निकाला और चुनौतियों के लिए प्रेरित किया। फिर मुझे किरदारों को जीने-निभाने के तरीके मिल गए।
    एनएसडी से निकलने के बाद मैं रेपटरी नहीं गया। मैं नहीं चाहता था कि वहां एक्टरों की तरह छोटी सुविधाओं और पैसों के पीछे भागूं। फ्रीज, गाड़ी और बाकी सुविधाओं से आगे सोचता था मैं। दिल्ली में तीन सालों तक अलग-अलग लोगों के साथ थिएटर, वर्कशॉप और ट्रेनिंग करता रहा। इस वजह से मैं निगेटिविटी से बच गया। गाइड करने वाला कोई नहीं था। सब कुछ अंदर से प्रस्फुटित हो रहा था। पेपलेकोव ने समझाया था कि फोकस और ध्यान कभी नहीं भटकना चाहिए। मैं उनसे बहुत मुतासिर और प्रेरित हुआ। एक्टिंग के प्रति ईमानदार हो गया। दिल्ली में पैसे कमाए। अपनी जिंदगी चलती रही। लगभग संतुष्ट था, लेकिन भागादौड़ी बहुत होती थी। तब तक फिल्म का कोई खयाल नहीं आया था। घरवाले समझते नहीं थे कि मैं क्या कर रहा हूं। उन्हें लगता था कि खाता-कमाता रहे। एक दिन अचानक लगा कि मैं कर क्या रहा हूं? दिन-रात की भागदौड़ और खाने के नाम पर चाय-बिस्किट या बिस्किट-चाय ़ ़ ़ फिर मैंने दिल्ली छोडऩे का निर्णय लिया और मुंबई आ गया।
    मुंबई यह सोच कर आया कि सीनियर लोग आते ही गले मिलेंगे और काम मिलना शुरू हो जाएगा। कुछ दोस्त थे अपने बैच के। तब सारे लोग गोरेगांव ईस्ट के वनराई में रहते थे। चार लोग एक साथ रूम शेयर करते थे। 1200 रुपए के कमरे में अपना शेयर भी जुटाना मुश्किल होता था। फिर फिल्मों में छोटे-मोटे काम शुरू किया। दिल्ली में रहते हुए मुझे ‘सरफरोश’ फिल्म में एक झलक दिखाने का मौका मिला था। फिल्म के आखिरी दृश्य में एक मिनट के लिए आया था। यहां आने के बाद एपिसोडिक टीवी सीरियल किए। तब तक एकता कपूर को सीरियलों का दौर आ गया और हमारे जैसे एक्टर निकम्मे हो गए।
    उन्हीं दिनों मुझे इरफान के निर्देशन में बनी इकलौती छोटी फिल्म ‘अलविदा’ में काम करने का मौका मिला। वह स्टार बेस्टसेलर में आया था। उससे बहुत तारीफ मिली। उसके बाद अनुराग कश्यप से मुलाकात हुई। उनकी ‘ब्लैक फ्रायडे’ मिली। उसमें टाइगर मेनन का एकाउंटेंट मुकादम बना था। ‘बाईपास’, ‘अलविदा’ और ‘ब्लैक फ्रायडे’ के बाद लगा कि काम मिल सकता है। उनके वीएचएस लोगों को दिखाने लगा था। मेरे कुछ दोस्त निराश होकर लौट गए। मैं वापस नहीं जा सकता था। सोचता था कि क्या मुंह लेकर जाऊंगा? दिल्ली भी नहीं जा सकता था। शर्म होती थी। माता-पिता की उम्मीद नहीं तोड़ सकता था। मैं भाई-बहनों में सबसे बड़ा हूं। उसका प्रेशर था। सात भाई और दो बहनें हैं मेरी। घर में कमाने वाला कोई नहीं था। लौटता तो भाइयों पर क्या असर होता?
     यहां रहकर फिल्में करता रहा। एक सीन भी कर लेता था कि अगली फिल्म में दो सीन मिलेंगे। एक-एक सीन की कई फिल्में हो गईं, लेकिन दूसरा सीन नहीं मिला। ‘सरफरोश’, ‘शूल’, ‘जंगल’, ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ जैसी फिल्में कीं। एक एड फिल्म में बस में बैठने का काम मिला। निर्देशक ने कहा कि सब कोई न कोई एक्टिविटी करे। मैंने कहा कि मैं सो जाता हूं। शाम में सोने के पैसे मिल गया। एक और एड फिल्म की, जिसमें कैमरा सामने आने पर मुंह घूमा लेता था।
    मुंबई डराती बहुत थी, लेकिन मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था। मैं निडर हो गया था। चार सालों तक गड़बड़ हालत रही। अनुराग कश्यप हमेशा भरोसा देता था कि अभी मेरी कोई औकात नहीं है, लेकिन किसी दिन कुछ लायक हुआ तो तुम्हें फिल्म दूंगा। उन दिनों मैंने एक्टरों को ट्रेंड किया। राजीव खंडेलवाल और रणवीर सिंह को ट्रेनिंग दी। ‘अभय’ और ‘हे राम’ के समय कमल हासन का डायलॉग निर्देशक था। उनके संवाद लिखे। पैसे कमाता रहा,लेकिन फिल्में नहीं थीं। फिर कबीर खान की ‘न्यूयार्क’ मिली। उस फिल्म के बाद लगा कि मैं टाइपकास्ट हो रहा हूं। मैं रोता अच्छा हूं तो टार्चर के सीन के लिए गरीब आदमी के लिए मुझे बुला लेते हैं। मैंने तय किया कि अब खुद का इस्तेमाल नहीं होने दूंगा। वैसे ही काम की वजह से ‘ए वेडनेसडे’ के लिए मना किया।
    बीच में ‘पीपली लाइव’ , ‘पान सिंह तोमर’ और ‘कहानी’ आ गई। मैं दावे के साथ कहता हूं कि एक्टिंग के क्राफ्ट पर मेरी इतनी मेहनत कम एक्टरों ने की होगी। मैं मनोज बाजपेयी का लोहा मानता हूं। उनकी तरह मैं खुद को एक्सप्लोर करता हूं। एक्टिंग की एक्सरसाइज करता हूं। मैं मोटी बुद्धि का अभिनेता हूं। स्मार्ट एक्टर नहीं हूं। अभी तक स्टेज पर नहीं बोल पाता। भीड़ में कोने में घुसने की कोशिश करता हूं। फिर भी मेरे मन में कभी कोई बदगुमानी नहीं हुई। शुरू में कुछ एक आदर्श थे। अभी कोई नहीं है। मुझे अच्छे दोस्त मिले हैं। अनुराग कश्यप ने हमेशा कहा कि छोड़ के जाना मत। हम लड़ेंगे और जीतेंगे। वापस जाओगे तो वहां कौन सी जिंदगी अच्छी हो जाएगी। मैं डटा रहा।
    अब ऐसा लग रहा है कि मेरा नंबर आ गया है। लोग पहचान रहे हैं। लेकिन अभी भी लंबी लड़ाई है। यहां केंद्रीय भूमिका में आना मुश्किल है। वह लगातार मिले तो हम अपनी प्रतिभा दिखा सकते हैं। स्थिति तो यह है कि जिन्हें दो करोड़ दिए जा रहे हैं, वे एक्टर ही नहीं हैं। हम एक्टर हैं, लेकिन हमारे लिए दो लाख भी महंगा हो जाता है। मन में विश्वास है कि मेरे दिन भी बदलेंगे। उम्मीद जाग रही है।
(2012 नवाजुद्दीन सिद्दिकी का साल कहा जा रहा है। उनकी ‘तलाश’,‘मिस लवली’,‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’,‘पतंग’,‘चिटगांव’ और ‘लायर्स डाइस’ इस साल रिलीज होंगी।)



Comments

priyambada said…
very nice article sir....
नवीन said…
salaam siddiqi sahab !!!!!!!!!!
आनंद said…
आपकी लगन देखकर बहुत अच्‍छा लगा सिद्दिकी जी, आप बेहतरीन एक्‍टर हैं, और इंडस्‍ट्री को एक्‍टरों की बहुत जरूरत है, इस विश्वास को बनाकर आगे बढ़ते रहें। शुभकामनाएँ।
- आनंद
Anonymous said…
Was very impressed with your work in Kahaani. Came back and googled you up. Keep it up. Its actors like you who make a compelling movie. Great work....
Anonymous said…
There is no doubt about your potential... I have seen your good work in your strugling days in Manorama six feet under and New york and with Kahani you have arrived and after Gangs of Waseypur... you will be on top... Best of luck
Seema Singh said…
कहते हैं- कि पत्थर को पानी काट नहीं पता किन्तु यदि उसपर लगातार पानी कि धार गिरती रहे तब एक दिन ऐसा आता है कि पत्थर खंड -खंड हो ही जाता है -किन्तु इंसानी सूरत में यह सब्र -शरीक होता नहीं और जिसमें होता वह -किस्मत पे हथौड़ा बजाने की स्थिति में भी पहुंच जाता है सो -ऐसा अवसर आप के सामने भी जल्द आए.........!
sanjeev5 said…
After seeing your film GOWP in Sydney Film Festival I can say that after the film ends the only characters that stayed with me are Yours, Tigmanshu's and Manoj Bajpai's characters. Your arrival should worry Irfaan Khan because you are both master of the craft. In this film you have surpassed all expectations and it is commendable. More credit to Anurag Kashyap for having faith in you and hope he plans more films with you, Irfaan, Manoj and Tigmanshu. Amazing work that needs to be applauded. Your time has come because Anurag is going to go great guns....
dilnawaz said…
Nawazuddin Saheb aapne to kamaal kiya hai.bahut Himmat aur sabr dikhya hai.

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