संवाद और संवेदना की रेसिपी और लंचबॉक्स :सुदीप्ति

यह सिर्फ 'लंचबॉक्स' फिल्म की समीक्षा नहीं है. उसके बहाने समकालीन मनुष्य के एकांत को समझने का एक प्रयास भी है. युवा लेखिका सुदीप्ति ने इस फिल्म की संवेदना को समकालीन जीवन के उलझे हुए तारों से जोड़ने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है. आपके लिए- जानकी पुल.से साभार और साधिकार
===========================================
पहली बात: इसे‘लंचबॉक्स’ की समीक्षा कतई न समझें. यह तो बस उतनी भर बात है जो फिल्म देखने के बाद मेरे मन में आई.

अंतिमबात यानी कि महानगरीय आपाधापी में फंसे लोगों से निवेदन:इससे पहले कि ज़िंदगी उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ खुशियों का टिकट वाया भूटान लेना पड़े, कम-से-कम ‘लंचबॉक्स’ देख आईये.

अंदर की बात:दरअसल कोई भी फिल्म मेरे लिए मुख्यत: दृश्यों में पिरोयी गई एक कथा की तरह है.माध्यम और तकनीक की जानकारी रखते हुए किसी फिल्म का सूक्ष्म विश्लेषण एक अलग और विशिष्ट क्षेत्र है,जानती हूँ. फिर भी कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं,जिन्हें देख आप जो महसूस करते हैं उसे ज़ाहिर करने को बेताब रहते है. ऐसी ही एक फिल्म है ‘लंचबॉक्स’.

‘लंचबॉक्स’ में तीन मुख्य किरदार हैं- मि.साजन फर्नांडिस(इरफ़ान खान), इला(निमरत कौर) और शेख(नवाजुद्दीन सिद्दीकी). तीनों की तीन कहानियां हैं और ये मुख्य कथा में जीवन के प्रति अपना भिन्न दृष्टिकोण लेकर आते हैं. मि.फर्नांडिस अपने अकेलेपन में स्वनिर्वासन झेल रहे हैं. उम्मीद, हंसी और अपनत्व से रहित उनका जीवन डब्बे के बेस्वाद खाने की तरह है. जब वो दूसरी बार इला का भेजा लंचबॉक्स खा चिट्ठी का जवाब ‘द फ़ूड वाज साल्टी टुडे’ भेजते हैंतो यह जैसे उनके जीवन में नमक और लावण्य का प्रवेश है.

इला अपनी चिट्ठियों में मुखर और खुली हुई है क्योंकि “चिट्ठियों में तो कोई कुछ भी लिख सकता है.”आरम्भ से ही वह अपनी उदासी छिपाने की कोशिश नहीं करती. पति लंच सफाचट कर नहीं भेजता और उसे परवाह भी नहीं- यह बात पहली चिट्ठी में ही लिखने से नहीं झिझकती. अपनी ओर से वह पति के साथ संवाद बढ़ाने को प्रयासरत है. व्यवहार में आए ठंडेपन को मसालों के स्वाद से छूमंतर कर देना चाहती है. तभी तो रेडियो पर रोज़ नई रेसेपी सुनना, पूरे मनोयोग से लंच तैयार करना और देशपांडे आंटी से नुस्खे लेना उसकी कोशिशों में शामिल है.पर ये सब काम नहीं आता, बावजूद इसके कि आंटी मैजिक होने का भरोसा देती हैं.

शेख अनाथ है. उसकी जिजीविषा काबिले-तारीफ है.उसकी कहानी फिल्म को हंसी से सराबोर करती है, सहज बनाती है. लोकल ट्रेन में सब्जी काटने से लेकर नौकरी जाने के भय, मि.फर्नांडिस द्वारा बचाये जाने और उसके खिलंदड़े स्वभाव के लौटने के बीच हास्य के कई दृश्य हैं.

फिल्म का मेरा पहला पसंदीदा दृश्य है— मि.फर्नांडिस जब गलती से मिले सही डब्बे को खोलते हैं, डब्बा सर्विस के खाने से ऊब चुके व्यक्ति के नीरस जीवन में नई खुशबू, नया स्वाद आ जाता है. उनके पूरे शरीर में उत्सुकता की लहर दौड़ पड़ती है. बार-बार रोटियों को उलटते-पलटते वह चावल-सब्जी के डब्बों को सूंघते  हैं. उनके चारों ओर देखिये तो सभी किसी-न-किसी के साथ बैठे हैं, पर वे अकेले हैं, निपट अकेले. इस अकेलेपन ने उनके स्वभाव को रुखा बना दिया है.मोहल्ले के बच्चों और सहकर्मियों से उनके व्यवहार को देख, उनके बारे में प्रचलित धारणाओं को जान हमें आभास हो जाता है कि मि. फर्नांडिस महानगरीय जीवन की एकरसता में डूबे एकाकीपन का प्रतिनिधि चरित्र है. वाकई सभी कहीं पहुँचने की ऐसी जिद्द में हैं कि अपने को ही खो देते हैं. जो इस भागमभाग में नहीं हैं, वे दूसरोंकी भाग-दौड़ में पीछे और अकेले छूट जाते हैं. इससे पहले कि हम बिलकुल अकेले पड़ जाएँ यह फिल्म मौका देती है ठहर कर सोचने का कि आखिर सारी भाग-दौड़ का हासिल क्या?

दूसरा दृश्य ठीक इसके बाद का है. इला डब्बे के लौटने के बेसब्र इंतजार में है और दरवाजे पर आहट पाते ही लपक कर डब्बा उठाती है. हिलाने-डुलाने से उसे लगता है कि आज तो चमत्कार हो गया. खोलकर देखने पर उमंग-उछाह से भर वह देशपांडे आंटी को बताने पहुँच जाती है कि आज डब्बा चाट-पोंछकर खाया गया है. आंटी भी चहककर जवाब देती हैं कि “मैंने कहा था न, ये नुस्खा काम करेगा.” पति के आने पर उससे कुछ सुनने की आस लगायी हुई इला निराश हो, खुद ही लंच के बारे में पूछती है. पति ‘अच्छा था’ का नपा-तुला जवाब देता है. नाप-तौल से वस्तु-विनिमय तो होता है, भाव-विनिमय नहीं होता. इला कुछ और सुनना चाहती है. बेरुखी को दरकिनार कर बात पगाने का फिर प्रयास करती है, बेपरवाह पति डब्बे में ‘आलू-गोभी’ होने की बात कह वहां से चला जाता है.
संवादहीनता का आलम यह है कि इला पति को बता भी नहीं पाती कि उसका बनाया लंचबॉक्स उसे मिला ही नहीं है.भारतीय समाज के बहुतेरे परिवारवादी, नैतिकतावादी यह कह सकते हैं कि देखो ‘बेचारा’ पति पत्नी और बच्चों के लिए इतनी मेहनत करता है, मुंह अँधेरे उठकर जाता है, देर रात को आता है और यह औरत बता भी नहीं रही कि उसकी गाढ़ी मेहनत की कमाई से बनाया लंच किसी और ने खाया होगा. अब ऐसी कमाई किस काम की कि परिवार से दो बातें करने भर की मोहलत ना हो! औरत तो कह भी रही है कि अब हमारे पास कितना कुछ है. सामान बढ़ाते जाने का क्या लाभ जब उसे भोगने का वक्त नहीं? पर ध्यान कौन देता है. परवाह किसको है घर में बंधी औरत का!

ऐसे पति को क्या सजा नहीं मिलनी चाहिए जिसे शादी के छह-सात साल बाद भी अपनी पत्नी के हाथ के बने खाने का स्वाद तक की पहचान नहीं? खैर, इस गफलत से ही सही, गलत ट्रेन के दो तनहा मुसाफिर सही तरीके से एक दूसरे की ज़िंदगी में शामिल हो जाते हैं. चिट्ठी पहले इला ही भेजती है. अपनेपन से भरी औपचारिक चिट्ठी कैसे लिखी जाती है, यह इला की पहली चिट्ठी से पता चलता है.
एक दृश्य है जिसमें शेख मि.फर्नांडिस के पास आकर कहता है कि “सब कहते हैं आप मुझे कभी नहीं सिखाएंगे. मैं अनाथ हूँ. बचपन से सबकुछ अपने-आप सीखा है. यह भी सीख लूँगा.”यहीं से वह दुर्गम किले से दिखनेवाले फर्नांडिस के जीवन में घुसपैठ कर लेता है. ट्रेन की उनकी यात्राएँ और ‘पसंदा’ खिलाने घर ले जाना सब एक क्रम में होता है. पहली बार जब शेख फर्नांडिस को घर बुलाता है तब लगता है कि यह काम निकालने की तरकीब है, लेकिन दफ्तर, लंचटाइम और रेलयात्रा के एक जैसे लगते कई दृश्यों से उन दोनों का एक सहज संबंध विकसित होता है. यह भी साफ़ हो जाता है कि शेख निश्छल स्वभाव का, लेकिन चतुर और आशावादी व्यक्ति है. आज की मतलबी दुनिया में ऐसे लोग कम ही है.

‘लंचबॉक्स’ में चार स्त्री किरदार हैं— इला, देशपांडे आंटी, इला की माँ और मि.फर्नांडिस की मर चुकी पत्नी. मि.फर्नांडिस की मृत पत्नी एक जीवित पात्र की तरह फिल्म में मौजूद है. एक पूरा दृश्य उसके साथ मि.फर्नांडिस के संबंध पर केंद्रित है. मरी हुई पत्नी से उन्हें जितना लगाव है, उतना इला के पति को उससे होता तो क्या बात थी! खैर,रात भर फर्नांडिस पत्नी के पसंदीदा रिकार्डेड वीडियो को देखते हैं और पुरानी साइकिल पर हाथ फेरते समय उसके हंसते हुए चेहरे के टीवी स्क्रीन पर उभरते प्रतिबिम्ब को अब याद करते हैं तो हमारे सामने उनके भावुक व्यक्तित्व की तहें खुल जाती हैं.

इला की माँ के साथ इला के दो दृश्य हैं और दोनों अद्भुत. पहला वह जिसमें पति के अफेयर के शुबहे से टूटी इला अपनी माँ के पास जाती है परन्तु वहां माँ की हालत देख चुप्प रह जाती है. ऐसी ही तो होती हैं बेटियां, अक्सरहाँ. गम खा न रोने वालीं. दवा के लिए रुपयों की बात चलती है. टी.वी. बिकने और भाई का हवाला आने के बीच इला रुपयों से मदद की बात करती है. पीछे के दृश्य में हम देख चुके हैं कि पति उसे भाई का ताना दे चुका है और मदद करने की हालत में इला है नहीं.माँ जब मना करती है तो उसके चेहरे पर राहत का भाव आता है तभी माँ का जवाब बदल जाता है. उस क्षण बेटी होने की तकलीफ, मदद ना कर पाने की लाचारगी और जीवन के अनगिनत असमंजस इला के चेहरे पर एक साथ उभरते हैं.निमरत ने इस क्षण को इस खूबसूरती से अपने अभिनय में जिया है कि क्या कहें! पिता की मृत्यु के बाद माँ की  गफलत,बेचैनी और भूख के बीच इला घर में मौजूद लोगों के बीच उसके व्यवहार को संतुलित करने की जद्दोजहद में है. माँ बेटे के साथ पैसे का भी अभाव झेलती औरत है, जिसके लिए मृत्यु राहत की बात है.

माँ के बरक्स देशपांडे आंटी जीवंत, उम्मीद का दामन न छोड़ने वाली औरत हैं. बरसों से उनके पति कोमा में हैं पर उन्हें ज़िन्दा रखने की ज़िद्द में जेनरेटर खरीदने से लेकर चलता पंखा साफ़ करने तक का हौसला वे रखती हैं. ‘ज़िंदगी हर हाल में खूबसूरत है’— यही झलकता है उनकी खनकती आवाज़ से. शेख और देशपांडे आंटी जैसे किरदार अगर नहीं होते तो यह प्रेमकथा बोझिल और उदास होती. उनके होने भर से फिल्म भावों की विविधता से भरी है.

इरफ़ान के हिस्से कई तनाव भरे, बेचैनी और व्याकुलता को झलकाने वाले दृश्य आए हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी निभाया है. उन्हें इला के पत्र में एक बार आखिरी पंक्ति यह मिली कि ‘तो किसलिए जिए कोई.’ अगली सुबह ऑटोवाले से पता चलता है कि एक ऊँची इमारत से एक औरत अपनी बच्ची समेत कूद गई है. वह अपनी भयमिश्रित व्याकुलता में उसका नाम पूछते हैं. अब ऑटोवाले को भला नाम क्या पता? उस दिन जबतक ‘लंचबॉक्स’ नहीं आ जाता और आने पर उसमें से इला के हाथों की खुशबू नहीं पहचान लेते, मि.फर्नांडिस बेचैन रहते हैं. इसी तरह सिगरेट छोड़ने की कोशिश करते हुए भी.

आप कल्पना कीजिए, वह आदमी अपने मन के अंतिम कोने तक कितना अकेला होगा, उसे किसी की परवाह की कितनी भूख होगी, जो एक अपरिचित औरत के प्यार से कहने भर से अपनी बरसों पुरानी लत छोड़ने की कोशिश कर रहा है? फिर अपने से काफी छोटी उम्र की इला को देख उसके जीवन से बाहर चले जाने की कोशिश के बाद रिटायरमेंट ले नासिक की ट्रेन में बैठने पर सामने बैठे भविष्य को देख पैदा हुई वह बेचैनी, जिसमें वह डब्बा वालों के साथ इला का घर ढूंढने निकल पड़ते हैं.

फिल्म का सबसे भयावह दृश्य वह है जिसमें इला की कल्पनाशीलता एक दु:स्वप्न का रूप लेती है. रात में वह गहने उतारती है, बेटी को उठाती है, उसकी आँखों पर पट्टी बांधती है और छत की सीढियाँ चढ़ती है. यह होता नहीं, बस उस अनाम औरत की आत्महत्या के बाद के पत्र में लिखा जाता है और फर्नांडिस की आँखों के आगे एक दृश्य की तरह उभरता है. उफ्फ, माएं किस क्षण में अपने बच्चों समेत करती हैं आत्महत्याएं! कितनी बेबसी के बाद, अवसाद के उन्माद में लेती होंगी यह फैसला? सोचना भी दुष्कर है.इला कूदने भर के साहस की बात कहती है, लेकिन मेरे लिए वह अवस्था साहस,विवेक,समझ— सबसे परे चरम उन्माद की स्थिति है.

फिल्म‘ओपन एंडेड’ है और ऐसी फिल्मों के साथ अच्छी और बुरी बात यही है कि आप अंत की कल्पना में खुश हो सकते हैं या खीझ सकते हैं. मैं जीवन में ट्रेजेडी को नहीं पसंद करती तो मेरे लिए यही अंत है कि तुकाराम को गाते हुए डब्बेवालों के साथ साजन फर्नांडिस इला के घर पहुँच जाते हैं और नासिक के बदले भूटान को निकल पड़ते हैं. उस भूटान को जहाँ हमारा रूपया भी पांच गुना अधिक मूल्य रखता है और खुशियाँ भी हमसे पांच गुना ज्यादा होती हैं. क्या कहते हैं, भूटान जाकर ही मिल सकती हैं खुशियाँ?

इस फिल्म में संवाद कम और छोटे हैं, पर इन छोटे संवादों के अर्थ और मर्म बड़े गहरे हैं. इला जब भूटान की बात लिखती है तब जवाब में मि.फर्नांडिस का सवाल आता है-“क्या मैं तुम्हारे साथ भूटान चल सकता हूँ?” इस एक सवाल से आत्मीयता से अनुराग तक की दूरी एक झटके में तय हो जाती है.


इस फिल्म में जो ज़ाहिर है वह सशक्त है और जो ज़ाहिर नहीं है वह बेहद मुखर है.याद कीजिये वह नि:संवाद दृश्य जब मि.फर्नांडिस किसी के सामने चिट्ठी देखना नहीं चाहते, पर खुद को रोक भी नहीं पाते. याद करिए उनके चेहरे का वह अबोला भाव जिसमें झिलमिल चमकता है उनका अत्यंत निजी गोपनीय आनंद, जिसे वे अपने भर में समेट लेना चाहते हैं. जो इला शुरुआत में देशपांडे आंटी से कहती है कि ‘मुझे ये सब ठीक नहीं लग रहा’, वही अपनी हंसी का राज छुपा लेती है. ‘साजन’ फिल्म के गाने का रहस्य तो बाद में खुलता है, बात हमें पहले समझ में आने लगती है. फर्नांडिस इला से मिलने पहुँचता है, उसको छुप कर देखता है. लेकिन इला की मुलाकात उससे नहीं होती. दोनों के बीच निकटता का संयोग फिल्म खत्म होने के बाद भी पक्के तौर पर नहीं घटित होता. फिर भी यह एक प्रेमकथा है.इससे पहले ‘स्लीपलेस इन सिएटल’ नामक एक रोमांटिक फिल्म मैंने देखी थी, जिसमें नायक-नायिका फिल्म के अंत में एक बार मिलते हैं पर फिल्म एक जबरदस्त प्रेमकथा है.पूरी फिल्म में मिसेज देशपांडे कहीं दिखतीं नहीं, लेकिन फिल्म में उनसे ज्यादा मुखर चरित्र भला कौन है, शेखको अगर भूल जाइये. मैं तो कहती हूँ कि संवाद और संवेदना की रेसिपी से तैयार इस ‘लंचबॉक्स’ का आस्वाद कभी भूलना संभव नहीं होगा.

Comments

sanjeev5 said…
Lunch Box is not a bad film but is grossly overrated. The director's concept is simple but does not mean it becomes great. Very ordinary technically speaking and not fit for Oscar I think. In your description you have tried to see things that the director has not tried to show. The film is very weak, in its end where the woman is going to Bhutan. The character Navaz is playing is under developed and looks patchy. Just because the woman's husband is having affair the woman has gone to the extent to see a man? Film lacks basic honesty in depicting Indian woman. Why did she not try to correct the wrong delivery of the Lunch Box? The important thing in a film is Music and dare I say it is virtually non existent. This is an ordinary film and when Karan Johar who himself is unable to make a good film of late, has tried to knock the doors of Oscar by associating him with this film. I hope you will revisit the film and see it with a different perspective.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम