फिल्‍म समीक्षा : ह्वाट द फिश

-अजय ब्रह्मात्‍मज
'व्हाट द फिश' केवल डिंपल कपाड़िया की फिल्म नहीं है। फिल्म के प्रचार में यह धोखा गढ़ा गया है। वह केंद्रीय चरित्र जरूर हैं, लेकिन फिल्म में अनेक चरित्र आते-जाते हैं। 'व्हाट द फिश' ऐसी डायरी है, जिसके पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे हैं। कभी कोई पृष्ठ खुल जाता है, कभी कोई। तारतम्य बिठाना मुश्किल होता है। आखिरकार पूरी कहानी जुड़ती है तो हम ठगा महसूस करते हैं, क्योंकि एक रोचक विषय को अयोग्य लेखन और निर्देशन से अरुचिकर बना दिया गया है।
मौसी को अपनी पैरॉट फिश और मनी प्लांट प्रिय है। महीने भर के लिए घर से बाहर जा रही मौसी इन दोनों को दाना डालने और सींचने की जिम्मेदारी भतीजी को देकर जाती हैं। भतीजी अपने ब्वॉयफ्रेंड को जिम्मेदारी सौंपती है और फिर यह जिम्मेदारी हर चरित्र के साथ आगे सरकती जाती है। किरदारों को अतीत और भविष्य से काट कर सिर्फ वर्तमान में रखा गया है। उनके बारे में ज्यादा न जानने से अपरिचय भाव बना रहता है।
नए कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं में स्वतंत्र मेहनत की है। यह मेहनत उनके परफारमेंस तक ही सीमित रहती है। कड़ी से कड़ी जुड़ती जाती है, लेकिन वह किसी हार का रूप नहीं लेती है। मौसी (डिंपल कपाडि़या) को हास्यास्पद किरदार बना दिया गया है। डिंपल कपाड़िया लाउड परफारमेंस के बावजूद फिल्म की जरूरत पूरी करने में असफल रही हैं। यह सवाल करना बेमानी है कि उन्होंने 'व्हाट द फिश' क्यों की? यह उनका व्यक्तिगत फैसला है। हर कलाकार को अपनी साख बनाने और बिगाड़ने का अधिकार है।
फिल्म के शीर्षक और विषय का परस्पर संबंध में समझ में नहीं आता।
अवधि-108 मिनट
* एक स्‍टार 

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