कमल स्‍वरूप-2

कमल स्वरूप की 1988 में सेंसर हुई फिल्‍म 'ओम दर-ब-दर' 17 जनवरी को रिलीज हो रही है। इस अवसर पर उनसे हुई बातचीत धारावाहिक रूप में यहां प्रकाशित होगी। उममीद है पहले की तरह चवन्‍नी का यह प्रयास आप को पसंद आएगा। आप की टिप्‍पणियों और शेयरिंग से प्रोत्‍साहन और बढ़ावा मिलता है। पढ़ते रहें....कल से आगे... 



        एफटीआईआई से ग्रेजुएट करने तक मुझे फिल्म बनाने का इल्म नहीं था। तब हमलोग आर्टिस्ट और फिल्ममेकर होने की पर्सनैलिटी में ढल रहे थे। हम काफ्का, कामू, निराला और नागार्जुन दिखने और होने की कोशिश कर रहे थे। मुझ राजकमल चौधरी अधिक पसंद थे। मैं उनकी राह पर चला गया। मुझे उनकी कृतियों में मुक्ति प्रसंग’, ‘बीस रानियों के बाइस्कोपआदि अधिक प्रिय थी। उनके प्रभाव में मैं श्मशानी प्रवृति का हो गया था। उनका ऐसा जादू-टोना हो गया था। अभी समझ में नहीं आता कि मैंने वह राह क्यों चुनी? क्या ज्यादा ड्रामैटिक होना चाह रहा था या विशेष दिखना चाह रहा था। अभी तक स्पष्ट नहीं हूं। तब मैं फटाफट पढ़ता था। भाषा और कथ्य की बारीकियों पर अधिक ध्यान नहीं देता था। सौंदर्यबोध भी कम था। हमें यह मालूम हो गया था कि हमारा कोई भविष्य नहीं है। हम आज के लिए जी रहे थे। अजमेर में राजकमल चौधरी से मैं मिल चुका था। उन दिनों वे लहरके संपादक प्रकाश आतुर से मिलने आया करते थे। उनसे मिलने के पहले मैं गिंसबर्ग पढ़ चुका था। उनसे मैंने समझने की कोशिश की थी। राजकमल चौधरी की गिंसबर्ग से बनारस में संगत रही थी। वे मुझे वहां के किस्से सुनाया करते थे। तब मैं 15-16 साल का था। उनका प्रभाव रहा। मुझे लगता है कि ऐसी मुलाकातों का गहरा प्रभाव रहता है। कुछ कंटेंट भी आ जाता होगा हमारे अंदर। कुछ ट्रांसमिट हो जाता है। मुझे एंडी बरोल भी पसंद है। मैंने किशोरावस्था में उनकी भी किताबें पढ़ ली थीं।
      एक मजेदार किस्सा है। मेरे पिता जी ने आजादलोकनामक पत्रिका मंगवा ली थी। उन्होंने पत्रिका देखी नहीं थी। सिर्फ नाम में आजाद देख कर उन्हें लगा कि अच्छी किताब होगी। वह एडल्ट मैग्जीन थी। एक दिन उन्होंने देखा कि एक लडक़ा मैग्जीन पढ़ते हुए हस्तमैथुन कर रहा है। फिर हंगामा हो गया। उसे पुलिस पकड़ कर ले गई। वह बीच रास्ते में बचने के लिए जीप से कूद गया। तभी एक ट्रक गुजरा और वह कुचल कर मर गया। यह घटना मेरे जहन से कभी नहीं गई। 

    मेरे बैच के कृश्न चंदर के बेटे मुनीर को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का झूठ मालूम था। वे विश्व सिनेमा पढ़ कर आए थे। उन्हें मालूम था कि उन्हें किस राह पर जाना है। एफटीआईआई से निकले कई छात्रों का फिल्म इंडस्ट्री से पुराना कनेक्शन था। विधु विनोद चोपड़ा के बड़े भाई रामानंद सागर थे। स‍ईद मिर्जा के पिता फिल्‍मों से थे। वे दूसरी पीढ़ी के थे। उन्‍हें मालूम था कि पैसे कैसे बनते हैं? मणि कौल भी दूसरी पीढ़ी के थे। महेश कौल से उनका रिश्‍ता था। यह बात वे बताते नहीं थे। उन्‍होंने अपना नाम तक बदल लिया था। उनका मूल नाम रवींद्रनाथ कॉल था। ये सभी एफटीआईआई से केवल क्राफ्ट सीख कर आए थे। वे जानते थे कि कैसे नाम पैदा कर सकते हैं। आते तो हम सभी नाम बनाने के लिए ही हैं। फिर काम करते हुए सीखना पड़ता है। कुछ हुनर पैदा करना पड़ता है। शुरू में तो केवल नाम चाहिए। हमारे साथ के जो लोग टेकनीकल पढ़ाई कर के आए थे, वे सभी स्‍टूडियो के आस-पास जुहू, बांद्रा में रहने लगे। तब एडवर्टाइजिंग और सैटेलाइट था नहीं। दूरदर्शन शुरू हुआ ही था। रोजगार के कम अवसर थे, लेकिन महंगाई भी नहीं थी। अभी जो आते हैं उन्‍हें बहुत मुश्किल होती है।

मैं 1974 में मुंबई आया था। मेरे पास कुछ था नहीं। फिल्‍म इंडस्‍ट्री के लोगों से मिलने से घबराता था। वे पंजाबी लोग थे। पंजाबियों के सामने मेरी फटती थी। वे बड़े रफ-टफ होते हैं। मैं बड़ा दुबला-पतला सा व्‍यक्ति था। उस समय 22 साल का था। उन दिनों इसरो खुला था तो मैं वहां चला गया। दो साल वहीं रहा।
इसरो से लौटने के बाद कॉपरेटिव तरीके से घासीराम कोतवाल बनाई। उस कॉपरेटिव में हम 15 लोग थे। जिनमें चार डायरेक्‍टर थे। मेरे अलावा सईद मिर्जा, मणि कौल और हरि हरण डायरेक्‍टर थे। बाकी सदस्‍यों में टॉम अल्‍टर, बिनोद प्रधान, ओम पुरी, सैनी, राजेश कोठारी आदि थे। हमलोगों ने 1 लाख 25 हजार रुपए में रंगीन घासीराम कोतवाल बनाई थी। सईद मिर्जा और मणि कौल का मुंबई में घर था। हमलोग इनको जमाई फिल्‍ममेकर कहते थे। श्‍याम बेनेग, कुमार शाहनी, एम एस सथ्‍यू भी जमाई फिल्‍ममेकर थे। ये लोग वार्डन रोड, अल्‍टामाउंट रोड जैसी महंगी जगहों में रहते थे। उन दिनों ह्वाइट हाउस, एफएफसी उसी इलाके में थे। साउथ बांबे में माहौल था। आप मीरा रोड में बैठ कर उसकी रोटी तो नहीं बना सकते हैं न। वहां करने पर क्‍लास का दर्जा मिलता था। मैं हिंदीभाषी था इस‍लिए उनके क्‍लास का नहीं था। वे पढ़ा-लिखा तो मानते थे, लेकिन मुझे बच्‍चा कह कर अलग कर देते थे। हम तो तब मुंबई में माइग्रेंड की तरह थे। किसी तरह मुझे रिचर्ड अटनबरो की फिल्‍म गांधी में असिस्‍टेंट का काम मिल गया। वहां से पैसे मिले तो फिल्‍म बनाने की हिम्‍मत हुई। तभी ओम दर-ब-दर की स्क्रिप्‍ट लिखी।

ओम दर-ब-दर के दर्शक आज की पीढ़ी है। वे सारे दर्शक इस फिल्‍म के निर्माण के बाद पैदा और बड़े हुए हैं। आज के पेंटर, डिजाइनर, म्‍यूजिशियन और कला के दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाले यूथ मेरी फिल्‍म के दर्शक हैं। अब लगता है कि मैंने शायद इन्‍हीं के लिए बनाई होगी। उस समय आज वाली पीढ़ी थी नहीं। इसीलिए तब मेरी फिल्‍म को दर्शक नहीं मिले। दूसरे उस समय मेरे सभी साथी परंपरा से ही जुड़े हुए थे। उनके लिए फिल्‍में बाह्य वस्‍तु है। वे जानते हैं कि कंटेंट क्‍या है, फॉर्म क्‍या है, क्‍या करना है, क्‍या नहीं करना है। यों समझें कि जैसे एक बिल्डिंग बनती है वैसे वे फिल्‍म बनाते थे। मैं जब ओम दर-ब-दर बना रहा था तो मुझे मालूम नहीं था कि मैं क्‍या बना रहा हूं। कहां पहुंच रहा हूं। मेरे लिए वह आंतरिक प्रक्रिया थी। उसी के साथ मेरा संवाद चल रहा था। अभी की पीढ़ी खाती-पीती है। हमारी पीढ़ी की तरह भूखी नहीं है। ये आंतरिक प्रक्रिया और बाह्य वस्‍तु के द्वंद्व में फंसे हैं। वे किसी की नकल नहीं करना चाहते। अपनी ही फिल्‍म बनाना चाहते हैं। अपना सिंगनेचर चाहते हैं। वे खुद कहते हैं कि हमें ऐसा भी नहीं चाहिए और वैसा भी नहीं चाहिए। वे जब किसी का सिंगनेचर देखते हैं तो उन्‍हें लगता है कि उन जैसा कोई और भी है। उन्‍हें सहानुभूति होती है। वे फिर आदर के साथ सराहना करते हैं।
फिल्‍मों के लिए साहित्‍य और शब्‍दों का बहुत महत्‍व है। मान लें कि इस कमरे की एक तस्‍वीर मैंने उतार ली। तस्‍वीर में आएगा कि सामने टेबल पर सामान बिखरे थे। उससे आगे के कमर का दरवाजा आधा खुला था। वहां एक लड़की बैठी थी, उसके सिर्फ टखने दिख रहे थे। वह मेरी तरफ झांक रही थी। इस तस्‍वीर में काल, क्रिया और कारक नहीं है। इसके लिए व्‍याकरण का ज्ञान जरूरी है। सिनेमा समझने के लिए दसवीं-ग्‍यारहवीं में पढ़ा गया किसी भी भाषा का व्‍याकरण मददगार हो सकता है। तस्‍वीर के विवरण के बाद ही उसमें अर्थ आता है। फिर तस्‍वीर में दिख रही सारी चीजों का परस्‍पर संबंध बनता है। भाषा में वाक्‍यों की श्रृंखला से हम विवरण देते हैं। भाषा फिल्‍मों के लिए लेंस का काम करती है। हालांकि मैंने साहित्‍य पर फिल्‍म नहीं बनाई है, लेकिन मैं साहित्‍य जानता हूं। फिल्‍म देखना वास्‍तव में फिल्‍म पढ़ना है। आम दर्शक प्‍लॉट के सहारे फिल्‍म पढ़ता है। कई फिल्‍मों में प्‍लॉट नहीं होता। वे चित्रात्‍मक और विवरणात्‍मक होती है। ऐसी फिल्‍म को आम दर्शक नहीं पढ़ पाता। रिजेक्‍ट कर देता है। वास्‍तव में दर्शक के पास क्षमता नहीं रहती तो उस फिल्‍म का वह आनंद नहीं उठा पाता। दर्शक ने साहित्‍य पढ़ा हो या साहित्‍य की समझ हो तो वह फिल्‍मों को अच्‍छी तरह समझ सकता है। पढ़ाते समय हमलोग फिल्‍म दिखा कर छात्रों को पढ़ने के लिए कहते हैं। फिर उन्‍हें स्क्रिप्‍ट के साथ पढ़ने के लिए कहते हैं।
 

Comments

चित्र स्वयं में बहुत कुछ कहते हैं, चलचित्र तो और भी कुछ।
shesnath pandey said…
एक बेहतरीन, यादगार और ज़रूरी पोस्ट.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को