विभाजन-आलोक धन्‍वा

तहलका में छपी आलोक धन्‍वा की इस कविता का संबंध फिल्‍मों से भी है। अआप पढ़ें और स्‍वयं समझें।
-आलोक धन्‍वा 

'गरम हवा’ में आखिरी बार देखा
बलराज साहनी को
जिसे खुद बलराज साहनी नहीं देख पाए
जब मैंने पढ़ी किताब
भीष्म साहनी की लिखी
‘मेरा भाई बलराज’
तो यह जाना कि
हमारे इस महान अभिनेता के मन में
कितना अवसाद था
वे शांतिनिकेतन में
प्रोफेसर भी रहे
और गांधी के
वर्धा आश्रम में भी रहे
गांधी के कहने पर
उन्होंने बीबीसी लंदन
में भी काम किया
लेकिन उनके मन की अशांति
उनके रास्तों को बदलती रही
जब वे बंबई के पृथ्वी थियेटर में आए
इप्टा के नाटकों में काम करने
जहां उनकी मुलाकात हुई
ए.के. हंगल और दूसरे
कई बड़े अभिनेताओं और पटकथा लेखकों और शायरों से
दो बीघा जमीन में
काम करते हुए
बलराज साहनी ने देखा
फिल्मों और समाज के किरदारों
के जटिल रिश्तों को
धीरे-धीरे वे
अपने भीतर की दुनिया से
बाहर बन रहे नए समाज
के बीच आने-जाने लगे
वे अक्सर
पाकिस्तान में मौजूद
अपने घर के बारे में
सोचते थे
और एक बार गए भी वहां
लेकिन लौटकर
बंबई आना ही था
अपने आखिरी दिनों में वे
फिल्मों के आर्क लाइट से बचते
और ज्यादा से ज्यादा अपना समय
जुहू के तट पर
अकेले घूमते हुए बिताते
हजारों लोग हैं
सीमा के दोनों ओर
जो गहरे तनावों के बीच
जीते हैं
और एक
बहुत धीमी मौत
मरते हुए जाते हैं
श्याम बेनेगल की फिल्म
‘ममो’ में
बार-बार भागती है
और छुपती है ममो
वह भारत में ही रहना चाहती है
लेकिन अंततः
भारत की पुलिस उसे पकड़ लेती है
और वह धकेल दी जाती है
पाकिस्तान के नक्शे में
भारत के समाज में
और पाकिस्तान के समाज में
कितने-कितने लोग हैं
जिन्होंने आज तक कबूल नहीं किया
इस विभाजन को
कहते हैं कि
एक बार जब
सत्यजीत राय और ऋत्विक घटक
हवाई जहाज से
कलकत्ता से ढाका जा रहे थे
हवाई जहाज की खिड़की से नीचे देखा
ऋत्विक घटक ने
बहती हुई पद्मा को
डबडबाई आंखों और भारी गले से
उन्होंने कहा पास बैठे
सत्यजीत राय से
मार्णिक वह देखो
बह रही है
हमारी पद्मा
दोनों आगे कुछ बोल नहीं पाए
सिर्फ देखा दोनों ने
बहती पद्मा को
बंगाल के विभाजन को
कभी कबूल नहीं किया दोनों ने
स्वाधीनता की लड़ाई से
हमारी कौम ने जो हासिल किया
उसे विभाजन में कितना खोया
यह हिसाब
बेहद तकलीफदेह है
जो आज भी जारी है.

Comments

Atulyakirti Vyas said…
This is a Full film without visuals... which could Watch by closed eyes with emotions...

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