हैदर: हुआ तो क्यों हुआ या हुआ भी कि नहीं... - पीयूष मिश्रा

पीयूष मिश्रा-पीयूष मिश्राा 
हैदर एक ऐसी फ़िल्म है जिसे एक बार ज़रूर देखा जाना चाहिए. दोबारा देखने लायक इसमें कुछ है भी नहीं.

हैदर को सिनेमा के पैरामीटर पर तौला जाए तो यह एक औसत फ़िल्म है.

इस फ़िल्म की तारीफ़ सिर्फ और सिर्फ इसलिए की जानी चाहिए कि इसने कश्मीर में होने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों की तरफ़ ध्यान खींचा है.

इंटरनेशनल मीडिया भी इस फ़िल्म को केवल इसीलिए और इसी एंगल से सराहा है. मैं भी इसके लिए विशाल की बार-बार तारीफ़ करूँगा.

विशाल ने राजनीतिक मुद्दों को फ़िल्म में बरतने के नए दरवाज़े खोले हैं. फ़िल्म में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ (स्पेशल पॉवर) एक्ट 1958 (अफ़्सपा) की आलोचना, भारतीय फ़ौज द्वारा हिरासत में लेकर बग़ैर किसी एफआईआर के कश्मीरियों को लापता एवं प्रताड़ित करने के दृश्य, लापता कश्मीरियों की गुमनाम सामूहिक कब्रें और भारतीय सेना द्वारा चरमपंथियों के मुक़ाबले पूर्व चरमपंथियों का गुट खड़ा करने के सच को दिखाना काबिले तारीफ़ है.


लेकिन बकौल माइकल मूर फ़िल्म को राजनीतिक भाषण या उपदेश तो होती नहीं. फ़िल्म का पहला काम है फ़िल्म होना, बाक़ी काम उसके बाद. इंटरवल के थोड़ी देर बाद से मैं फ़िल्म ख़त्म होने के इंतज़ार करता रहा.

बावजूद इसके कि विशाल भारद्वाज ने कश्मीर की समस्या के एक पक्ष को दिखाकर साहस का काम किया है. लेकिन कोई यह सोचकर फ़िल्म देखने गया कि उसे कश्मीर का मुद्दा समझने में मदद मिलेगी तो उसे भारी निराशा होगी.

फ़िल्म समीक्षक शेखर ने बिल्कुल सही लिखा है, "ये एक मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्म है." इस फ़िल्म को "रियल सिनेमा" वही लोग कह सकते हैं जिन्होंने केवल हिन्दी की मसाला फ़़िल्में देखी हों.

विशाल भारद्वाज ने हैदर के रिलीज़ के बाद अपने एक इंटरव्यू में कहा कि वो मासेज(भीड़) के लिए फ़िल्म नहीं बनाते. वो बुद्धिजीवियों, फ़िल्म समीक्षकों और फ़िल्म रसिकों के लिए सिनेमा बनाते हैं.

उनके इस बयान पर इंडियन एक्सप्रेस में छपा हैदर का रिव्यू याद आता है जिसमें फ़िल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता ने  लिखा है, "यह एक बहुत ख़ूबसूरत(गॉर्जियस) लेकिन कटीफटी(चॉपी) फ़िल्म है."

विशाल ने हैदर में कश्मीर में होने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों को दिखाकर साहस का काम किया है लेकिन उन्हें शायद यह बात भूल गयी वो जिस वर्ग के लिए फ़िल्म बनाने का दावा कर रहे हैं वह वर्ग कश्मीर को लेकर औसत भारतीयों से ज़्यादा मालूमात रखता है. और शायद यही वजह है कि विशाल की कश्मीर के मामलों में रुचि रखने वाले किसी भी दर्शक की समझ में कोई नया इज़ाफ़ा नहीं करती.

यह फ़िल्म कश्मीर की राजनीति और इतिहास को जरा भी नहीं छूती. न ही कश्मीर के अलगाववाद या भारतविरोध के किसी भी अंतरविरोध या फॉल्टलाइन को उजागर कर पाती है.

फ़िल्म 'आज़ादी' और 'इंतकाम' शब्दों के बीच कुछ इस तरह घालमेल कर देती है कि केदारनाथ सिंह की कविता याद आ जाती है,

जहाँ लिखा है तुमने प्यार
वहाँ लिख दो
सड़क
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहावरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता.

फ़िल्म में 'आज़ादी' शब्द का काफ़ी दुरुपयोग किया गया है.  फ़ैज़ की ग़ज़लों, नज़्मों और तरानों का दुरुपयोग तो किया ही गया है. अगर फ़िल्म को बदले की कहानी में ही बदलना था तो फ़ैज़ के साथ चुत्सपा करने की क्या ज़रूरत थी.

भरे चौराहे पर आज़ादी-आज़ादी गाता हुआ फ़िल्मी हैदर आखिरकार गैंग ऑफ़ वासेपुर के फ़ैसल में बदलता नज़र आता है. बस फर्क इतना है कि वहाँ अम्मा को उम्मीद थी कि "सबका बदला लेगा हमरा फैसल" यहाँ अब्बा को तड़प है बदले की (दोनों आँखों में गोली मारना). बस वहाँ अम्मा अनपढ़ थी, यहाँ अब्बा डॉक्टर हैं और बहलाने के लिए फ़ैज़ के कलाम गाते हैं.

फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है फ़िल्म की पटकथा. विशाल ने हैमलेट का आमलेट बनाकर कश्मीर तश्तरी में सजा दिया है. जाहिर है कि यह फ़ैसला उनके लिए दुस्साहसभरा रहा होगा.

उन्होंने यह ख़तरा उठाया और इसका उन्हें फ़ायदा भी मिल रहा है. इस फ़िल्म को मीडिया में व्यापक चर्चा सिर्फ़ इसीलिए मिल रही है कि फ़िल्म ने कश्मीर के ज़मीनी हालात को लेकर हिन्दी सिनेमा की चुप्पी को तोड़ा है.

लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि इस फ़िल्म को देखकर कोई आम कश्मीरी ज़्यादा ख़ुश नहीं होगा. किसी को यह भी लग सकता है कि विशाल ने अपनी फ़िल्म के लिए कश्मीर के मुद्दे को भुना लिया है. और फ़िल्म के क्लाइमेक्स में मोहनदास करमचंद गाँधी के वाक्य के आप्त वचन, " आँख के बदले आँख लेने से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी" से प्रेरणा लेते हुए "आज़ादी" की माँग को "इंतकाम" बताने की  .

दर्शक समझ नहीं पाते कि हैदर को या उसके अब्बा को चाहिए क्या थी "आज़ादी" या "इंतकाम." अगर हैदर को इंतकाम ही लेना था तो वो एक गोली का काम था. अब्बा की मौत की सच का पता चलने, उस सच पर यक़ीन हो जाने और हाथ में पिस्टल होने के बावज़ूद हैदर दर्शकों के साथ देर तक चुत्सपा करता रहता है.

अंततोगत्वा बेहद फ़िल्मी तरीके से ज़ारों गोलियाँ चलाकर, लाशेें बिछाकर और चौंकाने की कोशिश करने वाले अंत (माँ का सुसाइड बम बन जाना) पर ख़त्म होती है.

फ़िल्म के कथानक में तमाम कुछ तथ्यात्मक भूले हैं जिसकी तरफ़  कश्मीर में काम कर चुके एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने ध्यान दिलाया है.

मुझे लगता है कि विशाल का इरादा भी नहीं था कि वो कश्मीर का सच दिखाएँ. उनका उद्देश्य वास्तविकता का टच देना था, न कि वास्तविकता दिखाना. उन्हें तो बस अपनी शेक्यपीयर त्रयी पूरी करनी थी.

विशाल ने अख़बारों में बड़ बोल बोलते हुए कहा कि विदेश में यहूदी नरसंहार और प्रथम विश्वयुद्द पर कितनी फ़िल्में बनती हैं हमारे यहाँ नहीं बनतीं.

विशाल ने जिन दोनों वैश्विक घटनाओं का ज़िक्र किया है अगर उनपर बनी दुनिया की 50 चर्चित फ़िल्मों के देखने के बाद  विशाल की हैदर देखी जाए तो वो उसे 'बैंग बैंग' नज़र आने लगेगी.

विशाल के हैमलेट उर्फ़ हैदर की कहानी मनमोहन देसाई की फ़िल्मों की तरह आगे बढ़ती है. अगर हिरोईन के बाप के मरवाना है तो हैदर का मफलर वहाँ गिरा दो जहाँ वो अपनी माँ से मिल रहा है. जबकि उसका मफलर वहाँ पाया जाना चाहिए था जहाँ वो दोनों सलमानों से अपने बंधे हाथ खुलवाता है.

अगर हैदर को अपनी माँ से मिलवाना हो तो उसे अर्शी के डायरी में पड़ा रूहजाद का नंबर दिलवा दो.

गोलियों से छलनी रूहजाद की जान झेलम के ठण्डे पानी से बच जाती है लेकिन हैदर के पिता की नहीं बचती क्योंकि झेलम को पता है कि वो हैदर के पिता हैं.

हैदर ख़ुद हिन्दी फ़िल्मों के हीरो की तरह बग़ैर किसी प्रशिक्षण के अचूक निशाने के साथ दुनिया का कोई भी हथियार चला सकता है. यकीन मानिए, हैदर कवि न भी होता तो उसका निशाना अचूक ही होता.

फ़िल्म में चरमपंथी कुछ हद तक भले लोग नज़र आते हैं. वैसे भी इरफ़ान ख़ान जैसा अभिनेता अगर शैतान का भी रोल करेगा तो शैतान ख़ुदा नज़र आने लगेगा. रूहजाद तो महज़ आईएसआई का एजेंट और चरमपंथी है.

पुलिस के बड़े अधिकारी की हत्या के बाद भी पडो़स के कब्रिस्तान में मौजूद हमारा हीरो हैदर एक स्वप्न दृश्य में कुछ स्वीट चरमपंथी बूढों के संग मृत्यु, मिट्टी और प्याले का दर्शन दे रहा है.

हाईफाई चरमपंथी रूहजाद हैदर के ठिकाने तक उसकी  माँ को आत्मघाती बम पहनाकर कर ड्राप कर देता है लेकिन वो अपने साथ चार आदमी नहीं लाता कि वो हैदर को निकाल सके.

फ़िल्म के अंत में फ़िल्म का खलनायक ख़ुर्रम नायक हैदर पर भारी पड़ जाता है. आत्मघाती बम बनी हुई ग़ज़ाला की तरफ़ वो हैदर से पहले दौड़ पड़ता है.  और इस प्रयास में हैदर का तो बाल भी बांका नहीं होता लेकिन वो अपनी टांगें गँवा बैठता है. उस त्रासद क्षण में वो अपने भाई को याद करता है जिसकी मौत का कारण जाने-अनजाने वो बन बैठा. फ़िल्म के क्लाइमेक्स में से इतना तो साबित  हो जाता है कि खुर्रम का प्रेम सच्चा था.

फ़िल्म में संवाद अदायगी भी बहुत ख़राब है. मैंने आज तक जितने भी कश्मीरियों से बात की उन्हें ख़ुशज़ुबान पाया है. लेकिन इस फ़िल्म में एक पत्रकार और वकील को हास्यास्पद ज़ुबान बोलते हुए दिखाया गया है. उर्दू या कश्मीरी लहजे का कोई पुट किसी भी पात्र की ज़ुबान में नज़र नहीं आया.

फ़िल्म में गाने भी बेवजह ठूँसे हुए लगे. स्वतंत्र रूप से सारे गाने ठीक-ठाक हैं लेकिन फ़िल्म की कहानी में वो क्या कर रहे थे पता ही नहीं चला. बदले के लिए घर वापस आया हैदर, प्रेमिका को देखते ही गाने गाने लगता है. एक मर्मांतक त्रासदी से जूझता हैदर, प्रेमिका के संग संभोग कर सकता है लेकिन गाना गाएगा कि नहीं यह विशाल ही बता सकते हैं.

एक गाना गाने के बाद हैदर का आत्मविश्वास बढ़ चुका है इसलिए उसने एक और गाना गाया. क्यों गाया ये बस विशाल को पता है. क्या कश्मीर में ऐसा होता है ! गाने में भी वो बस वही कहानी सुनाता है जो फ़िल्म के अंदर काम कर रहे सभी पात्रों को और फ़िल्म देख रहे सभी दर्शकों को पता थीं. पता नहीं हैदर ने अलीगढ़ में ऋषि कपूर की फ़िल्म 'कर्ज़' देखी थी कि नहीं? लगभग एक ही उद्देश्य और तकनीक के साथ रचे गए दोनों दृश्यों की तुलना करने पर विशाल के रियल सिनेमा का दृश्य हल्का नज़र आता है. भारी-भरकम बोल, सेटअप और अजीबोग़रीब परिधान से कोई दृश्य बढ़िया नहीं हो जाता.

कश्मीरी पंडित इस बात अब सवाल उठा रहे हैं कि विशाल ने मार्तंड मंदिर (सूर्य मंदिर) पर इस गाने को फ़िल्माकर हिन्दू धर्म का अपमान किया है. जाहिर है कि जिनका अपमान हुआ है वो पेशेवर आहत लोग हैं, जिनकी भावनाएँ आहत मोड में ही रहती हैं.

अगर उस मंदिर पर शादी के बाद मुस्लिम परिवार ऐसा नाच गाना करते हैं तो ठीक है. लेकिन नहीं करते तो फ़िल्म के प्रति कलावादी आग्रह रखने वाला कोई भी व्यक्ति पूछ सकता है कि क्या यह कलात्मक ईमानदारी है ?  

प्रेमचंद ने लिखा है कि रचनाकार के पास ईश्वर जैसी शक्ति होती है. वो जैसे चाहे वैसे पात्र और घटनाएँ रच सकता है. लेकिन ईश्वर के पास एक सुविधा है कि उसे अपने किए का जवाब नहीं देना होता. जबकि लेखक को उसकी रचना में हर किए-हुए का जवाब पाठक को देना होता है कि ऐसा हुआ तो क्यों हुआ.

बेहतर होता कि विशाल इस साहसिक फ़िल्म के लिए कोई मौलिक कहानी चुनते. बेवजह शेक्सपीयर को कश्मीर की सैर कराने की कोशिश में उनकी फ़िल्म में ढेरों चुत्सपा हो गए हैं. फ़िल्म देखकर दर्शकों के ज़हन में ढेरों सवाल उठते हैं जिनका जवाब फ़िल्म नहीं दे पाती.

Comments

sanjeev5 said…
आप से बेहतर मैंने कोई भी समीक्षा नहीं पढ़ी है आज तक. हर कदम पर लगा आप मेरी तरह सोच रहे हैं. आपका लेखन प्रभावशाली है और इससे हर शब्द में आपके ज्ञान का आभास होता है. सटीक है आपकी प्रतिक्रिया. आपको सलाम. आपने जहाँ तारीफ़ की है वो तो अपने में बेहतरीन है ही लेकिन जहाँ आपने आलोचना की है वो तो काबिले तारीफ़ है. मेरे हिसाब से ये विशाल की सबसे कमजोर फिल्म है. पटकथा का तो विशाल को पहला कदम भी नहीं मालूम. खैर जो ७ खून माफ़ बना सकता है वो ये समझता ही नहीं की फिल्म एक परतों में बने उस वयंजन की तरह है जो धीरे धीरे खुलती है. ये खिचड़ी नहीं है जो निगल ली जाए. आप के लेखन का कमाल है की समीक्षा फिल्म से बेहतर है.लोग कुछ भी कहें लोगों का क्या....सब बुद्धिजीवी भी झुण्ड में भेडचाल ही चलते हैं.....तारीफ़ के कागजी फूल एक ही बारिश में धुल जाते हैं. आपने ठीक ही कहा की ये दुबारा देखने लायक नहीं है.....शायद विशाल ने भी नहीं देखी होगी क्योंकि होठों के स्पंदन और संवादों में ताल मेल की कमी अब इस स्तर पर नहीं होनी चाहिए....कंटीनुटी की भी कमी तकलीफ देती है....ठीक है २ स्टार देने चाहियें कश्मीर के कुछ दृश्यों के लिए पर ये न भूलें की ये फिल्म है पेंटिंग नहीं.....गुलज़ार साहब के बरगद से निकल कर दुनिया देखने का समय है अब....जो माचिस में गुलज़ार ने कहा वही...हैदर भी तो कह रहा है.....पुलिस पुलिस...सब अपराधी तो जैसे बिलकुल बेक़सूर हैं.....

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