संजय मिश्रा : अभिनय में घोल दी जिंदगी

-अमित कर्ण

समर्थ अभिनेता संजय मिश्रा का सफर बिहार, बनारस और दिल्ली होते हुए अब मुंबई में जारी है। देश के प्रतिष्ठित नाट्य संस्थान एनएसडी से पास आउट होने के बाद वे नौंवे दशक में मुंबई की सरजमीं पर दस्तक दे चुके थे। उसके बावजूद उन्हें सालों बिना काम के मुंबई रहना पड़ा। अब फिल्मफेयर जैसे पॉपुलर अवार्ड ने उनके ‘आंखोदेखी’ के बाउजी के काम को सराहा है। उन्हें क्रिटिक कैटिगरी में बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। संजय मिश्रा खुश हैं कि पॉपुलर अवार्ड समारोहों में ‘आंखोदेखी’, ‘क्वीन’ और  ‘हैदर’ जैसी फिल्मों के खाते में सबसे ज्यादा अवार्ड आए हैं। वैसी फिल्में इस बात की ताकीद करते हैं कि अब हिंदी सिनेमा बदल रहा है। आगे सिर्फ नाच-गाने व बेसिर-पैर की कहानियां दर्शक खारिज कर देंगे। जो कलाकार डिजर्व करते हैं, वे ही नाम और दाम दोनों के हकदार होंगे। मुंबई के अंधेरी उपनगरीय इलाके में उन्होंने बयां की अपना सफर अपनी जुबानी : 
    मैं मूलत : बिहार के दरभंगा के पास सकरी नारायणपुर इलाके का हूं। वहां मेरा पैतृक स्थल है, पर मेरी पैदाइश पटना की है। पिताजी प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो में थे तो मेरी पढ़ाई-लिखाई पहले बनारस, दिल्ली में हुई। दिल्ली प्रवास केदौरान जब मैं महज आठवीं-नौंवी में ही था तभी से फिल्म फेस्टिवलों से वल्र्ड सिनेमा से मेरा राब्ता गहरा हुआ। वहां से कला के प्रति प्यार ऐसा उमड़ा कि सब कुछ छोड़ कला की विभिन्न विधाओं को आत्मसात करने में रम गया। पिताजी ने वापस बुला लिया कि कम से कम दसवीं तो कर ही लो ताकि नाटक-नौटंकी से पिंड छूटे और कम से कम तुम्हें चपरासी की नौकरी तो दिला दें। मेरी दसवीं मुजफ्फरपुर के पास महुआ के स्कूल से हुई। वहां भी नाटकों में मेरा ज्यादातर वक्त गुजरता। सौभाग्य से वहां की भोली ऑडिएंस से इतनी वाहवाही मिलती कि मन पूरी तरह बन चुका था कि रंगमंच व अदाकारी के काम में ही राह बनानी है।
    बाद में मेरे पिताजी को मशहूर कथाकार मनोहर श्याम जोशी ने कहा कि यह लडक़ा दफ्तर में कलम घिसने के लिए नहीं बना है। इसे इसके मिजाज के काम में लगाओ। फिर मुझे वह करने की छूट मिली। मैंने पूरे मनोयोग से उस काम को अंजाम दिया। स्नातक कर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा आया। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर दूं कि मैं आज जो कुछ भी हूं, उसमें ड्रामा स्कूल ने मुझे कुछ नहीं दिया। लोग आज कहते हैं कि मेरी अदाकारी अच्छी है। उसके लिए ड्रामा स्कूल जिम्मेदार नहीं है। वहां से मुझे मिले बस कुछ अच्छे दोस्त। मसलन, तिग्मांशु धूलिया व अन्य। अदाकारी के गुर तो मैं जिंदगी से मिले अनुभवों से सीखता गया। सुख-दुख, हर्ष-विषाद जो कुछ जिंदगी ने दिया, उनका इस्तेमाल अदाकारी में करता रहा। बहरहाल, ड्रामा स्कूल से पढ़ाई कर भी मैं व्याकुल नहीं था कि मुझे अदाकार बनना ही है। नाम कमाना है। मैं बंधकर जिंदगी जीने में यकीन नहीं रखता, मगर परिजनों के दवाब के बाद मुंबई आया। वहां काम मिलने में नौ साल लग गए, लेकिन उससे मैं टूटा नहीं। न ही मैंने वैकल्पिक फिल्म इंडस्ट्रियों में जाने की सोची। मैं यथावत अपनी जगह पर बना रहा। छोटे-मोटे रोल्स करता रहा। मिनी टीवी सीरिज करता, लेकिन उसमें अपनी मौजूदगी दमदार दिखाने की कोशिश मेरी रहती। फिर 99 के वल्र्ड कप क्रिकेट के दौरान ईएसपीएन के एप्पल सिंह किरदार से थोड़ा पॉपुलर हुआ। 1995 से फिल्में मिलती रहीं, पर उनमें मैं नोटिस नहीं हुआ।
     अंग्रेजी में कहते हैं ‘लाइफ बिगिन्स आफ्टर 40’। क्यों कहते हैं, पता नहीं, पर मेरे मामले में कुछ ऐसा ही हुआ। मैं उम्र के 50 वसंत पार कर चुका हूं और अब कथित ‘पॉपुलैरिटी’ मिल रही है। ‘आंखोदेखी’ के काम को खासी तारीफें मिल रही हैं। उस फिल्म के हिस्सा बनने की कहानी ‘फंस गए रे ओबामा’ से शुरू हुई थी। ‘फंस गए रे ओबामा’ से एक्टर-राइटर-डायरेक्टर रजत कपूर से दोस्ती गहरी हो गई थी। उन्होंने उसी दौरान मुझसे कहा कि संजय भाई मैं आप के लिए एक रोल लिख रहा हूं। मैंने उन्हें साधुवाद दिया। ‘फंस गए रे ओबामा’ की रिलीज के तीन साल बाद उन्होंने ‘आंखोदेखी’ की स्क्रिप्ट पूरी की, मगर वह स्क्रिप्ट उन्होंने नसीरुद्दीन शाह को सुनाई। नसीर साहब ने बड़े प्यार से रजत जी को कहा कि फिल्म में बाऊजी की भूमिका संजय निभाए तो उन्हें बड़ा अच्छा लगेगा। बेहतर होगा कि आप उन्हें ही सुनाओ। नसीर साहब ने उनसे यह भी कहा कि अगर वह रोल संजय जी के अलावा किसी और को सुनाया गया तो उन्हें बहुत बुरा लगेगा।
    तब रजत जी मेरे पास आए। हमने स्क्रिप्ट रीडिंग की। संयोग से फिल्म दर्शकों व समीक्षक दोनों बिरादारी को बहुत पसंद पड़ी। सबसे बड़ी बात तो यह रही कि उसकी शूटिंग के दौरान मैं रोया। बाद में फिल्म देखकर नसीरुद्दीन शाह जैसे शख्स रोए। ओमपुरी बड़ी मुश्किल से फिल्म की स्क्रीनिंग पर आने को राजी हुए, लेकिन जब उन्होंने फिल्म देखी तो 1000 का नोट निकाल कर रजत कपूर को दिया। उन्होंने रजत जी से कहा कि मैं इस किस्म की फिल्म मुफ्त में नहीं देख सकता। मुझे बड़ी खुशी है कि इस फिल्म के चलते हिंदी फिल्मों में नई हवा चली। मेरी परम ख्वाहिश है कि उस मिजाज की फिल्मों की रीच बढ़े। वह तब मुमकिन है, जब मीडिया, फिल्मफेयर जैसे पॉपुलर अवार्ड समारोह व बाकी जनों का भी समग्र सहयोग मिले। हम जनता-जर्नादन पर यह तोहमत नहीं लगा सकते कि वे फलां किस्म की फिल्में ही पसंद करते हैं। अगर उन्हें टिपिकल मसाला फिल्में ही पसंद होती तो ‘हैदर’, ‘क्वीन’ जैसी फिल्मों का नाम आज सबकी जुबान पर नहीं होता।
        आज ऑडिएंस नई कहानियों में खुद को तलाशना चाहती है। वह हतप्रभ होना चाहती है। उन्हें वैसी कहानियों की दरकार है। सवाल जहां तक मेरा है तो मैं रोहित शेट्टी की एक फिल्म कर रहा हूं, जिसमें शाह रुख और वरुण धवन हैं। एक यशराज की दम लगा के हइसा है। मैं साउथ की फिल्मों में भी बड़ा व्यस्त हूं। क्या कहूं महीने के 28 दिन शूट कर रहा हूं।


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