बदलापुर : उज्जड़ हिंसा की बाढ़ में एक अहिंसक - गजेन्‍द्र सिंह भाटी

गजेंद्र सिंह भाटी


फिल्म जिस अफ्रीकी लोकोक्ति पर शुरू में खड़ी होती है कि कुल्हाड़ी भूल जाती है लेकिन पेड़ याद रखता है, उससे अंत में हट जाती है। यहीं पर ये फिल्म बॉलीवुड में तेजी से बन रही सैकड़ों हिंसक और घटिया फिल्मों से अलग हो जाती है। महानता की ओर बढ़ जाती है। पूरी फिल्म में मनोरंजन कहीं कम नहीं होता। कंटेंट, एक्टिंग, प्रस्तुतिकरण, थ्रिलर उच्च कोटि का और मौलिक लगता है। फिल्म को हिंसा व अन्य कारणों से एडल्ट सर्टिफिकेट मिला है तो बच्चे नहीं देख सकते। पारंपरिक ख़यालों वाले परिवार भी एक-दो दृश्यों से साथ में असहज हो सकते हैं। बाकी ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए। ऐसा सिनेमा उम्मीद जगाता है।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने जैसा काम किया है वैसा शाहरुख, सलमान, अमिताभ, अक्षय अपने महाकाय करियर में नहीं कर पाए हैं। फिल्म का श्रेष्ठ व सिहरन पैदा करता दृश्य वो है जहां लायक रघु से कहता है, "मेरा तो गरम दिमाग था। तेरा तो ठंडा दिमाग था? तूने लोगों को मार दिया। हथौड़े से। वो भी निर्दोष। क्या फर्क रह गया...?’ यहां से फिल्म नतमस्तक करती है। कुछ चीप थ्रिल्स हैं जिन्हें भूल जाएं तो इस श्रेणी में इससे श्रेष्ठ फिल्म याद्दाश्त में नहीं आती। अक्लमंदी और एक्टिंग के लिए "बदलापुर’ कई बार देखी जा सकती है।

Story [3/5] पत्नी और बेटे की मौत का बदला लायक (नवाजुद्दीन) से लेने रघु (वरुण) 15 साल इंतजार करता है। यहां से आगे फिल्म घिसी-पिटी हो सकती थी, पर नहीं होती। फिल्म का अंत समझदारी भरा है।
direction [4/5] श्रीराम की ये सर्वश्रेष्ठ फिल्म लगी। रिवेंज-क्राइम जॉनर में आज निर्देशक लोग जहां सिर्फ हिंसा ठूंस देते हैं वहां श्रीराम ने मैच्योर व बुद्धिमत्तापूर्ण राह ली है। अंत बेहद सुलझा है। दशकों में न देखा गया।
music [3/5] प्रिया सरैया और निर्माता दिनेश विजन ने गीत लिखे हैं। कंपोजर सचिन-जिगर हैं। जीना-जीना, चंदरिया झीनी और अज मेरा जी करदा कुछ दिन याद रहेंगे। बैकग्राउंड स्कोर न्यूनतम है, जो अच्छी बात है।
acting [4/5] नवाज जिस सीन में होते हैं, दर्शकों की सांसें थम सी जाती हैं। वरुण का ये काम ऐसा बेंचमार्क है जिसे आगे छूना उन्हीं के लिए बड़ा कठिन होगा। राधिका आप्टे ने चंद दृश्यों में काफी प्रभािवत किया। हुमा ने भी।

Comments

बदलापुर

पाठक सर का एक नॉवेल पढ़ा था "वो कौन थी " अच्छे से याद नहीं पर कहानी कुछ यु थी शराब में धुत कुछ दोस्त एक एक्सीडेंट में एक नव विवाहित युवक को मार डालते है फिर दुल्हन एक एक करके अपना बदला लेती है पर अंत में कहानी कुछ और ही निकलती है।

कुछ कुछ ऐसी ही कहानी है फिल्म बदलापुर की। एक बैंक लूटने के चक्कर में दो डैकेतो के हाथो एक नवयुवक की पत्नी और छोटे बच्चे की हत्या हो जाती है। एक डैकेत को पुलिस पकड़ लेती है जबकि दूसरा लूट के माल के साथ फरार हो जाता है। पकडे गए डैकेत को 20 साल की सजा होती है जबकि बहुत कोशिशो के बाद भी दूसरा पकड़ा नहीं जाता। नवयुवक 15 साल तक बदले की आग में झुलसता रहता है। फिर एक समाजसेवी उसे बताती है कि पकडे गए डैकेत के कैंसर है और सिर्फ 1 साल और जियेगा। अगर वो चाहे तो वो 1 साल खुली हवा में सांस ले सकता है। फिर कुछ ऐसा होता है कि नवयुवक को दूसरे डैकेत का पता चल जाता है और बदला लेने को उतारू नवयुवक क्या कुछ नहीं कर गुज़रता पर क्या वो बदला ले पाता है? फिल्म का अंत और नवाजुद्दीन दोनों लाजवाब है।

फिल्म में हिंसा है। फिल्म बालिगों के लिए है। कुछ सीन शायद सभ्य समाज को अच्छे न लगे। मेरे साथ गए दोस्त को फिल्म ही नागवार और वाहियात लगी। उसका सोचना था कि फिल्म में महिलाओ का कमोडिटी की तरह इस्तेमाल किया। पर ये भी बड़ी अजीब बात है कि फिल्म के सारे पुरुष किरदार नकारात्मक है। जबकि सभी महिलाओ के किरदार सकारात्मक है। एक वेश्या सच्चा प्यार करती है। उसका कारोबार उसकी भावनाओ के आड़े नहीं आता। अब एक सेक्स वर्कर की पीड़ा या दर्द दर्शाने के लिए सेक्स सीन की की जरुरत नहीं होगी ? उसी दोस्त ने रात को बात करते हुए मंटो का एक वाक्या बताया जिसमे मंटो जज से पूछते है कि वो ब्रेस्ट को ब्रेस्ट न कहे तो क्या कहे ? तो फिल्मकार भी क्या अंतरंग या बिना हिंसक सीन के अपनी बात कह सकता था ? नायिका कहती है कौन अपनी मर्जी से बाई बनती है। खलनायक ( या नायक ) भी उस से उतना ही प्यार करता है बावजूद इसके कि वो किसी की रखैल बन चुकी है। हुमा कुरैशी और नवाजुद्दीन के बीच के सीन लाजवाब और बहुत भावुक है।

फिल्म मुझे बहुत ज्यादा अच्छी लगी मेरे दोस्त को उतनी ही बकवास। बाकी आप जरूर देख आइये मैं तो ये ही कहूँगा

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को