हिंदी टाकीज 2(13) : हीरो का मरना बर्दाश्‍त नहीं - पवन रेखा

परिचय
पवन रेखा, यूपी के छोटे से गांव बिलासपुर में रहते हुए कभी सोचा भी नहीं था कि पत्रकारिता में कभी कुछ कर पाउंगी। बस समय समय पर कदम बढ़ती गई और रास्ते बनते गए। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद द संडे इडियन मैगजीन में आर्ट एंड कल्चर रिपोर्टिंग से करियर की शुरूआत, फिर जनसत्ताऑनलाइन में करीब डेढ़ साल काम किया। एबीपी न्यूज़ में 2013 से कार्यरत। जनसत्ता अखबार, योजना मैगजीन सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर लेखन जारी।


'ड्रीम के बिना ज़िंदगी का कोई प्वाइंट नहीं होता...ना सोने का, ना जागने का, ना जीने का ना मरने का, ड्रीम देखना बेसिक होता है और ये सबको अलाउड होना चाहिए।' पिछले साल रिलीज हुई ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ जब मैंने देखी तो मुझे मेरे बचपन की याद आ गई। मेरा परिवार तो ऐसा नहीं था कि मुझे सपने ना देखने दे और उसी का नतीजा है कि आज में यह लिख पा रही हूं। लेकिन गांवों में आज भी लड़कियों को लेकर समाज की जो सोच है वहां से निकलकर किसी भी लड़की के लिए एक मेट्रो सिटी तक आने की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है। यूपी में देवरिया से करीब 25 किलोमीटर दूर है मेरा गांव बिलासपुर। सिनेमा देखना, फिल्मी मैगजीन पढ़ना और उपन्यास का तो नाम लेना भी आवारगर्दी की निशानी है। परिवार और समाज के हिसाब से आवारागर्दी तो ये लड़कों के लिए है लेकिन अगर किसी लड़की ने इनका नाम भी ले लिया तो गज़ब हो जाता है। यहां सिनेमा पर कोई बात नहीं करना चाहता। वहीं रहते हुए फिल्मी दुनिया के लिए मेरे दिल में प्यार पनपा। आज अगर हफ्ते में तीन-चार फिल्म ना देखी तो ऐसा लगता है कि कुछ तो छूट रहा है। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि जिस टीवी और सिनेमा की वजह से बचपन में इतनी धुनाई हुई, आज वही मेरा पैशन बन चुका है और उसी से रोजी-रोटी भी चल रही है।

तब गांव में टीवी एकाध लोगों के घर हुआ करता था और वह भी ब्लैक एंड ह्वाइट। संडे को श्री कृष्णा देखने से शुरूआत होती, फिर शक्तिमान और फिर चार बजे की फिल्म का इंतजार रहता था। रविवार शाम और शुक्रवार रात की फिल्म के लिए हम बच्चे किसी हद से गुजर जाते। जितनी मार पड़े हम हर हफ्ते फिल्म देखने से बाज नहीं आते थे। बिजली ना होने पर बैटरी का भी जुगाड़ हो जाता। ‘गोलमाल’, ‘साजन’, ‘दो और दो पांच’, ‘मेला’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘दूध का कर्ज’, ‘तेरी मेहरबानियां’ और ‘एक ही रास्ता’ जैसी तमाम ऐसी फिल्में हैं,जो दूरदर्शन पर ना जाने कितनी बार देखी है।
सिर्फ मुझे ही नहीं ज्यादा बच्चों को बचपन में सिनेमा के बारे में जानने की ललक रहती है। मुझे भी थी। तब सहारा न्यूज़पेपर में दो पेज की फिल्मी खबरें बहुत लुभाती थीं। वैसे तो दैनिक जागरण, अमर उजाला सहित कई अखबार थे लेकिन सहारा में फिल्मों के पेज का कलर कुछ ज्यादा ही अपनी तरफ खींचता था। रंगीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें...जिस पेपर में ज्यादा फिल्मी खबरें होती हैं वही घर तक पहुंचे यह तय करने के लिए मैं चौराहे पर घंटो न्यूज़पेपर वाले का इंतजार करती थी। फिल्में देखने और पढ़ने का चस्का इस कदर सवार था। बस घरवाले को कभी समझ ना आया कि हर हफ्ते न्यूज़पेपर कैसे बदल जाता है।
सालों पुरानी फिल्मी मैगजीन मिल गई तो बस एक बार में खत्म करना होता था। सरस सलिल भी खूब पढ़ा है, ये तब सिर्फ तीन रूपये का मिलता था। उसमें कहानियां छपती थीं। तब जो लोग उसमें लिखते थे उन्हें पढ़कर ऐसा लगता था कि जैसे मेरे नाम से लिखा हुआ छपना सिर्फ सपना हो सकता है। गांव में स्कूलिंग करते समय कुछ कर दिखाने के सपने भी सिनेमा देख-देखकर ही आए।
दूरदर्शन का भला हो जिसने सिनेमा को हमारे अंदर जगाए रखा वरना उस माहौल से सिनेमा हॉल तक जाना भी किसी जंग जीतने से कम नहीं था। इतनी मुश्किल से घर वाले पढ़ाई के लिए राजी हुए फिर सिनेमा का नाम लेकर उन्हें बिदकाना क्यों। मुझे याद है जब मैं पहली बार सिनेमाहॉल पहुंची थी। सातवीं क्लास में थी। मामा के यहां जाने पर सभी का साथ में फिल्म देखने का प्लान बना। फिल्म थी ‘कच्चे धागे’...मैंने पहली बार बड़ा पर्दा देखा। पर्दा बहुत ही खराब था लेकिन फिल्म के कुछ सीन और गानों के लिरिक्स अब तक याद हैं। रोमांटिक सीन पर सीटियों और तालियों की वो गड़गड़ाहट सुनकर लगा कि Wow! ऐसा भी होता है।
इस फिल्म के बाद काफी सालों तक सिनेमा हॉल में कुछ नहीं देखा क्योंकि पढ़ाई करनी थी। ये मौका भी गांवों में हर लड़की को नहीं मिलता। लड़के तो क्लास और कोचिंग बंक करके सिनेमाघर जा सकते है,लेकिन लड़कियों का क्या जिनपर परिवार ही नहीं आस-पास के लोगों की भी नज़र रहती है। उनके पास तो कुछ काम भी नहीं होता और इस फिराक में रहते हैं कि कोई मौका मिले और चिंगारी भड़काए। तो सिनेमा देखने का मन होते हुए भी यह सोचकर उन अरमानों को दबाया जाता कि कहीं फिल्म के चक्कर में अपनी ज़िंदगी ना फिल्मी बन जाए। 11वीं में थी जब तेरे नाम रिलीज हुई। सलमान खान का जलवा था। मैं भी इस कदर दीवानी थी कि न्यू ईयर पर उन्हीं की ग्रीटिंग कार्ड खरीदी जाती थी। तेरे नामके समय ऐसा लगा कि इसे तो बस कैसे भी देखना है।
तब मैं घर से कुछ दूर बरहज में रहकर पढ़ाई कर रही थी। यहां भी लड़कियां थीं लेकिन हमारा कलेजा नहीं था कि खुद सिनेमाहॉल तक पहुंच जाएं। कोई और रास्ता ना होते हुए यह बात मां को बताई। आमतौर पर घरवाले यही कहते कि एक्जाम है पढ़ाई कर लो, अभी से फिल्मों के चक्कर में ना पड़ो। लेकिन मां ने एक लड़की के साथ हमें सलेमपुर के एक सिनेमा हॉल का टिकट दिलाकर देखने भेजा। उस फिल्म को देखकर मैं जितना रोई उतना तो किसी बड़े दुख में भी नहीं रोना आया। अपने फेवरिट हीरो को दुखी कोई कैसे देख सकता है। रो-रोकर बुरा हाल हुआ फिर डिसाइड किया कि अब सलमान की फिल्म की कहानी पता करने के बाद देखने जाना है। अगर फिल्म में हीरो का मरना पता चला तो फिल्म नहीं देखनी है। 
उस वक्त की फिल्में देखकर तो यह दिमाग में बैठ गया कि अंत में सब ठीक हो जाना है। हीरो जो करे वही दुनिया का अंतिम सत्य है। उसका मरना बर्दाश्त नहीं क्योंकि बॉलीवुड फिल्मों में ज्यादातर ऐसा ही देखा है। ऐसा ही हुआ जब पिछले साल शाहरूख खान की रईस देखी। उसमें शाहरूख का मरना दिखाया तब भी ऐसा ही लगा कि हीरो कैसे मर सकता है। सिनेमा देखते-देखते उसे लेकर सोचने का नज़रिया बदला है, देखने का तरीका बदला है लेकिन फिर दिल तो बच्चा है जी!
ग्रैजुएशन के लिए गोरखपुर पहुंची तो वहां रूममेट के रिश्तेदार का गोरखपुर में सिनेमाहॉल था। जब भी अच्छी फिल्म लगती वो हमें ले जाते और फिल्म दिखाते। हॉस्टल में वीकेंड पर भी डीवीडी में भी कुछ फिल्में देखीं। ये सब तो ठीक था लेकिन बड़ी कन्फ्यूजन थी कि बीएससी तो कर रहे हैं, पर आगे क्या? सच्चाई यही है कि तब तक मुझे ये भी पता नहीं था कि पत्रकारिता के लिए कौन सी पढ़ाई होती है। जब पता चला तो फिर दिल्ली जाने का सोचा। यह सुनकर मां खुश हुईं, दोस्त दुखी। खुशी इस बात की थी कि दिल्ली के बारे में सोचा तो सही और दोस्तों को दुख इस बात का कि लड़की का पढ़ने में मन नहीं लग रहा इसलिए ये सब कर रही है। बहुतों ने राय दी कि एमएससी करती तो ज़िंदगी बन जाती। खैर! 2008 में दिल्ली आकर हर तरह के स्ट्रगल के बीच फिल्म देखना जारी रहा। वैसे तो फिल्म के लिए पैसे जुटाना मुश्किल था लेकिन सपना सिनेमा (जो अब M Cinemas बन चुका है) हमारे लिए ही था,जहां हम लोग 60-80 रूपये में फिल्में देख लिया करते थे।
2011 में पहली नौकरी द संडे इंडियन मैगजीन में मिली जहां आर्ट एंड कल्चर बीट पर रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी दी गई। जिस परिवेश से हम आए थे वहां आर्ट जैसी कोई चीज नहीं थी और कल्चर तो ऐसा कि अगर कोई ये बता दें कि उसे डांस, गाने या सिनेमा में दिलचस्पी हो तो लोग नचनिया बुलाने लगते। पहले तो लगा कि क्या करें लेकिन फिर सीनियर की मदद से बहुत कुछ सीखा। एनएसडी से नाता जुड़ा, बहुत से नाटक देखे। करीब 7-8 महीने काम किया। फिर जनसत्ता ऑनलाइन ज्वाइन किया जहां पर काम करने के दौरान बस फेसबुक स्टेटस ही अपडेट हुआ, लिखा तो कुछ भी नहीं। लेकिन सिनेमा से नाता नहीं टूटा। इस दौरान बहुत सी फिल्में देखी, किताबें पढ़ीं और नाटक भी देखे।
इसको बाद तो सिनेमा देखना तो ज़िंदगी का एक हिस्सा बन चुका था। एबीपी न्यूज़ में सिनेमा को लेकर दिलचस्पी और समझ दोनों बढ़ी। डेस्क पर खबरों के साथ-साथ इंटरटेनमेंट पर जमकर लिखा। फिर लगा कि क्यों ना इसी पर लिखें। फिर क्या।।फिल्में देखने, समझने, उसे जानने और उस पर लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब तक तो जारी है। इसमें करियर बनेगा या नहीं ये पता नहीं लेकिन इतना जरूर है कि सिनेमा अब मेरे लिए सिर्फ इंटरटेनमेंट नहीं है!
बाकी आखिर में बस इतना ही- ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है, क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम।
कुछ पसंदीदा फिल्में-
एंगरी इडियन गॉडेसेस, अस्तित्व, सीक्रेट सुपरस्टार, निल बटे सन्नाटा, तनु वेड्स मनु (रिटर्न्स), क्वीन, 3 इडियट्स, पेज 3, लम्हें, आनंद, शेप ऑफ वॉटर
 

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