सिनेमालोक : जवार और जेएनयू के नरेन्‍द्र झा




सिनेमालोक
जवार और जेएनयू के नरेन्‍द्र झा
-अजय ब्रह्मात्‍मज
पिछले हफ्ते टीवी और फिल्‍मों में एक्टिंग से अपनी पहचान मजबूत कर रहे कलाकार नरेन्‍द्र झा का आकस्मिक निधन हो गया। अभी तक उनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रविवार की शाम मुंबई में उनकी स्‍मृति में आयोजित शोक सभा में उनके परिचित,मित्र और रिश्‍तेदार उन्‍हें अलग-अलग नामों से याद कर रहे थे। किसी के लिए वे बड़े भाई,किसी के लिए चाचा,किसी के गार्जियन तो किसी के गॉड फादर...। परिजनों के लिए वे नरेन,फूल बाबू और कन्‍हैया थे। उत्‍तर भारत के मध्‍यवर्गीय परिवारों में हर व्‍यक्ति को अनेक नामों से पुकारा और दुलारा जाता है। हिंदी फिल्‍मों में आए उत्‍तर भारत के कलाकार अपने सारे संबंधों का निर्वाह करते हैं। समृद्ध और मशहूर होने की वजह से उनकी जिम्‍मेदारी बढ़ जाती है। वे सभी के अपने हो जाते हैं। मामी के चचेरे भाई की साली के देवर का बेटा भी बड़े ह से भैया कहते हुए उनसे उम्‍मीद रख सकता है। उत्‍तर भारत से आए कलाकारों के इर्द-गिर्द ऐसे रिश्‍तेदारों की भरमार होती है। उन्‍हें इन कलाकारों से पैसे,नौकरी और मौके सभी कुछ चाहिए होता है। मुंबई में रहते हुए मधुबनी का कोयलख गांव नरेन्‍द्र झा के साथ हमेशा रहा। किसी भी मैथिल से मिलते ही वे मैथिली बोलने लगते थे।
उनसे मेरी मुलाकात 1996-97 की है। मैं फ्रीलांसिंग करता था। पता चला कि कोई जेएनयू से आया है और उसे ‘शांति’ धारावाहिक में का मिला है। सरनेम में झा होने की वजह से उत्‍सुकता थी कि वे मैथिल भी होंगे। जवार और जेएनयू के होने की वजह से जल्‍द ही अंतरंगता हो गई। उन दिनों वह मेरे अभिन्‍न मित्र डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के एक धारावाहिक ‘परशुराम’ का पायलट कर के लौटे थे। बाद में उन्‍होंने नरेन्‍द्र झा के साथ ‘मृत्‍युंजय’ और ‘एक और महाभारत’ में भी काम किया। डा. द्विवेदी उन्‍हें अपने नए धारावाहिक में भी लेने का मन बना चुके थे। उनके आकस्मिक निधन के बाद मुझे किसी ने मेरे एक इंटरव्‍यू की कटिंग दी,जो 1997 में प्रकाशित हुई थी। उन दिनों वे माडलिंग के साथ कुछ धारावाहिकों में काम कर रहे थे।  उसी साल मई में उन्‍हें एबीसीएल की खोज में चुना गया था। उस इंटरव्‍यू में उन्‍होंने बहुत अच्‍छी तरह कहा था,’पूर्णिमा के चांद को अपनी गोलाई हासिल करने में पंद्रह दिन लग जाते हैं। उसकी चमक और ठंडे पहले दिन से ही पता चलती है,पर पूर्णिमा की ऊंचाई के बाद उसकी शीतलता का एहसास होता है। मुझे सफलता की पूर्णिमा तक पहुंचना है।‘ वे उस पूर्णिमा के करीब पहुच रहे थे कि आकस्मिक निधन से ग्रहण लग गया। उनकी ठंडक और चमक तो हम ने देखी,लेकिन उनकी शीतलता से हम वंचित रह गए।
मुझे वह ‘भायजी’ कहते थे। मिथिला में ‘भायजी’ आदरणीय और अंतरंग संबोधन होता है। इधर हमारी मुलाकातें कम हो गई थीं। वे अभिनय में व्‍यस्‍त रहे और मैं अपनी नौकरी में। किसी इवेंट में भेंट होन पर ठीक से मिलने के वादे के साथ हम अलग होते थे। उनकी पत्‍नी पंकजा ठाकुर से अलग से परिचय था। दोनों की शादी की जानकारी से अपार खुशी हुई थीं। पटना से मुंबई की हवाई यात्रा में दोनों का प्‍यार देख कर मन विभोर हुआ था। अलग होते समय वादा हुआ था कि हम उनके फार्म हाउस वाडा जाएंगे और वे दोनों मेरे घर आएंगे।
अब यह वादा कभी पूरा नहीं होगा। एक अफसोस हमेशा मेरे साथ रहेगा।



लोकमत समाचार में प्रथम प्रकाशन।

 



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