सिनेमालोक : फ़िल्में और गाँधी जी


सिनेमालोक
 फ़िल्में और गाँधी जी
-अजय ब्रह्मात्मज
आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है. 1869 में आज ही के दिन महत्मा गाँधी का जन्म पोरबंदर गुजरात में हुआ था.मोहनदास करमचंद गाँधी को उनके जीवन कल में ही महत्मा और बापू संबोधन मिल चूका था. बाद में वे राष्ट्रपिता संबोधन से भी विभूषित हुए. अनेक समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों का मनना है कि गौतम बुद्ध की तरह ही महात्मा गाँधी के नाम और काम की चर्चा अनेक सदियों तक चलती रहेगी. गाँधी दर्शन की नई टीकाएँ और व्याख्याएं होती रहेंगी. उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी.
महात्मा गाँधी ने अपने समय के तमाम मुद्दों को समझा और निजी अनुभवों और ज्ञान से उन पर टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं दीं. बस,इस तथ्य पर ताज्जुब होता है कि उन्होंने अपने जीवन कल में पापुलर हो रहे मनोरंजन के माध्यम सिनेमा के प्रति उदासी बरती. उनसे कभी कोई आग्रह किया गया तो उन्होंने टिपण्णी करने तक से इंकार कर दिया. क्या इसकी वजह सिर्फ इतनी रही होगी कि आधुनिक तकनीकों के प्रति वे कम उदार थे. इन पूंजीवादी आविष्कारों के प्रभाव और महत्व को समझ नहीं पाए. यह भी हो सकता है कि सिनेमा उनकी सोच और सामाजिकता में प्राथमिकता नहीं रखता हो. सच्चाई यही है कि उन्होंने सिनेमा के प्रति हमेश बेरुखी जताई. उसके भविष्य के प्रति आशंका भी जाहिर की. उन्हें फ़िल्में देखने का शौक नहीं रहा. फ़िल्मी हस्तियों से उनका मिलना-जुलना नहीं होता था. केवल चार्ली चैप्लिन के साथ उनकी एक तस्वीर कभी-कभार दिखाई पड़ जाती है.
सन्‌ 1927 में इंडियन सिनैमेटोग्राफ कमेटी ने उनकी राय जानने के लिए एक प्रश्नावली भेजी तो गाँधी जी ने उसका नकारात्मक जवाब दिया। उन्होंने जवाब में लिखा, 'मैं आपकी प्रश्नावली के उत्तर के लिए अनुपयुक्त व्यक्ति हूं। मैंने कभी कोई सिनेमा नहीं देखा और मैं इसके प्रभाव से अनभिज्ञ हूं। अगर इस माध्यम में कोई अच्छाई है तो वह अभी सिद्घ होना बाकी है।' गाँधी जी ने बाद में भी सिनेमा की अनभिज्ञता ख़त्म नहीं की. उनकी राजनीतिक सक्रियता बढती गयी.कुछ सालों के बाद भारतीय सिनेमा की रजत जयंती के मौके पर एक स्मारिका के लिए उनसे सन्देश माँगा गया तो उनके सचिव ने जवाब दिया, 'नियमत: गांधी केवल विशेष अवसरों पर संदेश देते हैं और वह भी ऐसे उद्देश्यों के लिए जिनके गुणों पर कोई संदेह न हो। सिनेमा इंडस्ट्री की बात करें तो इसमें उनकी न्यूनतम रुचि है और इस संदर्भ में किसी को उनसे सराहना की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।' अपनी पत्रिका 'हरिजन' में एक संदर्भ में उन्हों स्पष्ट लिखा, 'मैं तो कहूंगा कि सिनेमा फिल्म ज्यादातर बुरे होते हैं।'
सिनेमा के प्रति गांधी जी के कट्टर विरोधी विचारों को देखते हुए ही ख्वाजा अहमद अब्‌बास ने उन्हें एक कुला पत्र भेजा.इस पत्र के जरिए अब्बास ने गांधी जी से फिल्म माध्यम के प्रति सकारात्मक सोच अपनाने की अपील की थी। अब्बास  के पत्र का अंश है - 'आज मैं आपकी परख और अनुमोदन के लिए अपनी पीढ़ी के हाथ लगे खिलौने - सिनेमा को रखना चाहता हूं। आप सिनेमा को जुआ, सट्‌टा और घुड़दौड़ जैसी बुराई मानते हैं। अगर यह बयान किसी और ने दिया होता, तो हमें कोई चिंता नहीं होती...लेकिन आपका मामला अलग है। इस देश में या यों कहें कि पूरे विश्व में आपको जो प्रतिष्ठा मिली हुई है, उस संदर्भ में आपकी राय से निकली छोटी टिप्पणी का भी लाखों जनों के लिए बड़ा महत्व है। दुनिया के एक सबसे उपयोगी आविष्कार को ठुकराया या इसे चरित्रहीन लोगों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। बापू, आप महान आत्मा हैं। आपके हृदय में पूर्वाग्रह के लिए स्थान नहीं है। हमारे इस छोटे खिलौने सिनेमा पर ध्यान दें। यह उतना अनुपयोगी नहीं है, जितना दिखता है। इसे आपका ध्यान, आर्शीवाद और सहिष्णु मुस्कान चाहिए।'
ख्वाजा अहमद अबबास के इस निवेदन पर गांधी जी की प्रतिक्रिया नहीं मिलती। अगर वह आजादी के बाद के वर्षों में जीवित रहते और फिल्मों के प्रभाव को करीब से देख पाते तो निश्चित ही अपनी राय बदलते,क्योंकि गांधीजी अपने विचारों में कट्‌टरपंथी नहीं थे और दूसरों से सीखने-समझने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
भारतीय समाज और विश्व इतिहास में महात्मा गांधी के महत्व के संबंध में दो राय नहीं हो सकती। गांधी के सिद्घांतों ने पूरी मानवता को प्रभावित किया है। बीसवीं सदी के दो विश्व युद्घों की विभीषिका के बीच अपने अहिंसक आंदोलन और सत्याग्रह से उन्होंने अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। भारतीय मानस में गांधी अचेतन रूप से मौजूद हैं। लाख कोशिशों के बावजूद उनके प्रभाव को नकार नहीं जा सकता. उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी.
सिनेमा और खास कर हिंदी फिल्मों में हम गांधी दर्शन से कभी ‘गांधीगिरी’(लगे रहो मुन्नाभाई) तो कभी किसी और नाम से प्रेरित और प्रभावित चरित्रों को देखते रहेंगे.  



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