सिनेमालोक : मामी फिल्म फेस्टिवल


सिनेमालोक
मामी फिल्म फेस्टिवल
-अजय ब्रह्मात्मज  
मामी (मुंबई एकेडमी ऑफ मूवी इमेजेज) के नाम से मशहूर मुंबई का इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल पिछले 20 सालों में फिल्मों के चयन, प्रदर्शन और विमर्श से ऐसे मुकाम पर आ गया है कि देश भर के सिनेप्रेमी सात दिनों के लिए मुंबई पहुंचते हैं. देश में और भी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हैं. छोटे शहरों और कस्बों से लेकर मीडिया घरानों तक के अपने-अपने फेस्टिवल चल रहे हैं और कमाल है कि सभी इंटरनेशनल हैं. इनके आयोजन और लोकप्रियता से बढ़ती फिल्मों की समझदारी के बावजूद देश में ‘वॉर’ और ‘कबीर सिंह’ जैसी हिंदी फिल्में अपार कामयाबी हासिल कर लेती हैं.
पिछले सालों में देश-विदेश की बेहतरीन फिल्में देखने का सिलसिला बढ़ा है. लेकिन हम या तो विदेशियों को सिखा-बता रहे हैं या उनसे ही सीख-समझ रहे हैं. देश की भाषाओँ में बनी फिल्मों की हमें खास जानकारी नहीं रहती. मुझे लगता है कि फिलहाल देश में एक राष्ट्रीय यानि कि नेशनल फेस्टिवल की जरूरत है. सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत फिल्म निदेशालय और एनएफडीसी पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार की मदद से पहल कर सकते हैं. हाल ही में चीन के फिंगयाओ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारत के ‘नया सिनेमा’ पर केन्द्रित आयोजन हुआ. यहां दिखाई गई फिल्मों के साथ बड़े पैमाने पर भारतीय फिल्मों के फेस्टिवल आयोजित किए जा सकते हैं. सिनेमा की लोकप्रियता और स्वीकृति को देखते हुए जरूरी हो गया है.
मामी ने पिछले कुछ सालों में रूप और स्वरूप बदला है. अनुपमा चोपड़ा और किरण राव के आने के बाद पिछले पांच सालों में मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के  लोकप्रिय चेहरे इससे जुड़े. इनके जुड़ाव से आम युवा दर्शक फिल्म फेस्टिवल के प्रति आकर्षित हुआ है. इस पर बहस हो सकती है कि वर्तमान प्रबंधन समिति की कार्यशैली फेस्टिवल की प्रकृति के अनुकूल है या नहीं? मामी मेला और मास्टर क्लास में हिंदी और मुख्य भारतीय भाषाओं के परिचित चेहरों को बुलाने से उन्हें देखने-सुनने के लिए भीड़ उमड़ती है. उनमें से कुछ बेहतरीन फिल्मों के देखने के के साथ सुधि और सिद्ध दर्शकों में बदलते हैं. दर्शकों को जुटाने और उन्हें कलात्मक बेहतरीन फिल्मों के प्रति संवेदनशील बनाने का यह तरीका सही है.
पिछले रविवार को मुंबई के बालगंधर्व रंगमंदिर में आयोजित मूवीमेला एक आकर्षक आयोजन था. इस मेले के चार सेशन में दीपिका पादुकोण, राधिका मदान, मृणाल ठाकुर, अनन्या पांडे, जान्हवी कपूर, अविनाश तिवारी, श्रीराम राघवन, कोंकणा सेन शर्मा, अमर कौशिक, सिद्धार्थ आनंद, अमित शर्मा, मेघना गुलजार, आलिया भट्ट, करीना कपूर खान और करण जौहर शामिल हुए. आलिया भट्ट और करीना कपूर खान से करण जौहर ने सवाल किए. बाकी सभी सेशन अनुपमा चोपड़ा और राजीव मसंद ने संचालित किए. यह आयोजन दर्शकों को शहद चटाने की तरह था. मीठे आयोजन के बाद के सात दिनों के फेस्टिवल में हर विधा और रस की कलात्मक फिल्में दिखाई जाएंगी. पिछले 20 सालों में मैंने देखा है कि यह फेस्टिवल व्यवस्थित होने के साथ ही दर्शकों के अनुकूल हुआ है.
मामी समेत हमारे देश के अधिकांश फेस्टिवल सितंबर के बाद होते हैं. तब तक सनडांस, लोकार्नो, कान,बर्लिन.वेनिस,टोरंटो,बुशान,पेइचिंग आदि शहरों में फेस्टिवल हो चुके होते हैं. नतीजा यह होता है कि इन फेस्टिवल में दिखाई और चर्चित हो चुके फिल्में ही आ पाती हैं. हां, कभी-कभी कोई नई फिल्म वर्ल्ड प्रीमियर के लिए मिल जाती है, लेकिन अधिकांश फिल्में किसी और फेस्टिवल से होकर यहां पहुंचती हैं. फिर भी दर्शकों के लिए राहत और खुशी की बात होती है कि उन्हें चर्चित फिल्में मुंबई में देखने को मिल जाती हैं. मामी में भारत में बनी फिल्मों को भी प्रतिनिधित्व और पुँरास्कर मिलने लगा है. उत्सुकता और भागीदारी बढ़ी है. भारतीय कलाकारों और फिल्मकारों की निगाहें भी मामी पर टिकी रहती हैं.
लेकिन...मामी समेत तमाम भारतीय फिल्म फेस्टिवल में पिछले सालों में अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ा है. सब कुछ अंग्रेजी में ही दिखाया-बताया जाता है. विडंबना यह है कि हिंदी फिल्मों में सक्रिय कलाकारों और फिल्मकारों की भी पहली भाषा अंग्रेजी हो चुकी है. भारत में आयोजित फिल्म फेस्टिवल भारत के गैरअंग्रेजी भाषी दर्शकों की बिल्कुल परवाह नहीं करते. हिंदीभाषी इलाकों में महत्वाकांक्षी कलाकारों और फिल्मकारों को लंबा संघर्ष करना पड़ता है. मालूम नहीं, कोलकाता और तिरुअनंतपुरम के फेस्टिवल में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया जाता है या नहीं? मुंबई में तो सब कुछ अंग्रेजी में ही चल रहा है.
बहरहाल, मामी में इस साल 53 देशों की 49 भाषाओं में 190 फिल्में प्रदर्शित होंगी.


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