खलनायकों के बगैर खाली है हमारी दुनिया: देवदत्त पटनायक

जरा रावण के बगैर रामायण, कंस के बगैर कृष्णलीला, शकुनि के बगैर महाभारत की कल्पना करें। खलनायक ही कथा पूरी करते हैं। देवता राक्षसों की हत्या करते रहते हैं, लेकिन वे वापस आ जाते हैं। ऐसी कोई अंतिम निर्णायक जीत नहीं होती, जिसमें खल चरित्रों का हमेशा के लिए सफाया हो जाए। नए खलनायक पैदा होते रहते हैं, इसलिए नए नायकों की जरूरत पड़ती रहती है। नए अवतार, नए देवता, नयी देवियां, नए नायक। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हर शुक्रवार को नए खलनायक और नए नायक ले आती है।
श्वेत-श्याम फिल्मों की याद करें तो उनमें खून के प्यासे मुनीम या लोलुप बलात्कारी अवश्य रहते थे। गब्बर सिंह के बगैर हम 'शोले' की कल्पना नहीं कर सकते। मोगैंबो के बगैर 'मिस्टर इंडिया' की कल्पना नहीं की जा सकती। रणजीत, जीवन, प्राण, अमरीश पुरी जैसे अभिनेताओं ने खलनायक के तौर पर अपना कॅरिअर बनाया। शशिकला, ललिता पवार और हेलन खलनायिकाओं के तौर पर मशहूर रहीं।
युग बदल गया है। हम कलयुग के नए दौर में हैं, जहां खलनायक नहीं हैं। जब नायक ही खलनायकों की भूमिकाएं करने लगें तो ऐसा लगेगा ही कि खलनायक गायब हो गए। आज रूपहले पर्दे पर नाराज युवक नहीं है। भ्रष्ट राजनेता और गुंडे भी नहीं दिखते। नायिकाएं पुरानी खलनायिकाओं की तरह नाभिदर्शना कपड़े पहनती हैं। करण जौहर द्वारा रचे गए इस ब्रह्मांड में हर व्यक्ति सुंदर, सुशील और अद्भुत है। सख्त पिता और रोमांसहीन पति खलनायक हो गए हैं। राम गोपाल वर्मा की फिल्मों में अंडरव‌र्ल्ड सरगना और भ्रष्ट राजनेता हीरो हैं। इस पीढ़ी को क्या हो गया है? क्या जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण ही सही दृष्टिकोण है या यह भ्रांति है, जिसे हम यथार्थ पर थोपना चाहते हैं?
जवाब उतना सहज नहीं है, जितना हम सोचते हैं, चाहे मिथक का संदर्भ लें या लोकप्रिय फिल्मों का। मिथकों में खलनायक मुख्य रूप से असुर या राक्षस होते हैं, लेकिन प्रह्लाद जैसे नेक असुर और विभीषण जैसे भले राक्षस भी होते हैं। सारे असुर बुरे नहीं हैं और न ही सारे राक्षस बुरे हैं। जीवन में उनकी भी भूमिका है। उनके बगैर सागर मंथन नहीं हो सकता था और अमृत भी नहीं मिल पाता।
हिंदू मिथक की बात करें तो हमें शैतान नहीं मिलते। शैतान की अवधारणा फारस से आई। हिंदी धर्म में कर्म से देवता भी राक्षस बन सकते हैं और राक्षसों को देवता का दर्जा मिल सकता है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने महर्षि सनत कुमार को वैकुंठ में आने से रोका। इस अपराध के लिए उन्हें शाप मिला कि वे राक्षस के रूप में जन्म लेंगे। द्वारपालों ने विरोध किया। उन्होंने कहा कि द्वारपाल के तौर पर वे अपना धर्म निभा रहे थे, क्योंकि जब महर्षि आए तो विष्णु सो रहे थे। फिर उन्हें सजा क्यों दी जा रही है? चूंकि श्राप दिया जा चुका था, इसलिए उसे बदला नहीं जा सकता था। विष्णु ने द्वारपालों को आश्वस्त किया कि वे जब भी राक्षस के तौर पर जन्म लेंगे, वे धरती पर अवतरित होंगे और उनकी हत्या कर देंगे ताकि वे फिर से वैकुंठ आ सकें। इसलिए जब जय और विजय ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के तौर पर जन्म लिया तो विष्णु वराह और नरसिंह के तौर पर अवतरित हुए। जय और विजय ने जब रावण और कुंभकर्ण के तौर पर जन्म लिया तो विष्णु राम बन कर आए। वे जब शिशुपाल और दंतवक्र बने तो विष्णु ने कृष्ण के रूप में जन्म लिया। इस तरह उन खलनायकों का एक इतिहास था। विष्णु उनकी हत्या कर उन्हें सजा नहीं दे रहे थे, बल्कि उनके वैकुंठ लौटने का मार्ग सुगम कर रहे थे।
परिस्थितियों के मुताबिक एक चरित्र भला या बुरा हो सकता है। जब देवता नेक काम (इंद्र द्वारा वृत्र की हत्या) करते हैं तो उनकी प्रशंसा होती है, लेकिन जब वे बुरा काम (इंद्र का अहिल्या पर आसक्त होना) करते हैं तो उन्हें सजा मिलती है। जब एक असुर नेक काम (माया द्वारा पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ का निर्माण) करता है तो उसकी प्रशंसा होती है और जब असुर बुरे काम (बक और हिडिम्बा) करता है तो उसे सजा मिलती है। मिथक में हमेशा इस तरफ ध्यान दिलाया जाता है कि कोई व्यक्ति क्यों खलनायक है? रामायण में राम अपने वनवास में विरध और कबंध जैसे अनेक राक्षसों से मिलते हैं। हत्या के बाद वे यक्ष या गंधर्व में बदल जाते हैं और बताते हैं कि किसी ऋषि या देवता को नाराज करने के कारण वे शाप से राक्षस बन गए थे। हमें लगातार बताया जाता है कि कोई भी व्यक्ति जन्मजात खलनायक नहीं होता। वह या तो परिस्थितियों की वजह से या आत्मसंयम की कमी की वजह से खलनायक बन जाता है। महाभारत में जब भीम दुर्योधन की जांघ चीरकर उसके सिर पर नाचते हैं तो कृष्ण उन्हें डांटते हैं, 'दुर्योधन का अपमान मत करो। वह तुम्हारा भाई है और राजा रहा है।' इस प्रकार कुछ भी पूरी तरह से सही या पूरी तरह से गलत नहीं है। सब कुछ कहीं बीच में है।
भारत के समाजवादी अर्थव्यवस्था से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने से शायद हमारी मानसिकता भी बदल रही है। हम दुनिया को नायकों और खलनायकों के बीच विभाजित करके नहीं देखना चाहते। हम नायकों में खल स्वभाव और खलनायकों में नेकदिल चाहते हैं। हम सफेद और काले के बीच भूरा भी देखते हैं। अखबारों में भ्रष्ट नेताओं और नेकदिल आतंकवादियों की खबरें छपती हैं। मीडिया बताता है कि सही और गलत तो परिप्रेक्ष्य की बात है। एक चैनल किसी व्यक्ति को खलनायक बताता है। दूसरा चैनल उसी को नायक घोषित कर देता है। मीडिया नियंत्रण खत्म करने और सेंसरशिप समाप्त होने से हम पहले की तरह नादान नहीं रह गए हैं। हम देख रहे हैं कि सब कुछ माया है- नैतिकता की भ्रांति है। शायद इसी कारण युवा पीढ़ी अपना पक्ष रखने से बच रही है। वे दुनिया बदलने नहीं आए हैं। वे पैसे कमाना और मजे लेना चाहते हैं। विचारधारा की लड़ाई लड़ने वालों को आज खोखला और व्यर्थ का आलोचक समझा जाता है। फिर क्यों परेशान रहें? फिल्म इंडस्ट्री इसे चित्रित कर रही है। यही कारण है कि फिल्मों में द्वंद्व से ज्यादा समारोहों का चित्रण रहता है। कोई युद्ध नहीं है, क्रांति नहीं है, विचारधारा नहीं है। केवल प्रेम का चक्कर है, मधुर मिलन है, नाच-गाना है और विवाह है। अब दर्शकों को उत्तेजित करने के लिए बलात्कार के दृश्य की जरूरत नहीं है। पर्दे पर चल रहा चुंबन ही काफी है। ऐसा लगता है कि हम मिथकों की कहानियों में वर्णित पुरानी सभ्यता के करीब आ रहे हैं - उस सभ्यता में सब कुछ ग्राह्य और स्वीकार्य था और इसी कारण हम खलनायकों को जिंदगी का हिस्सा मानने लगे हैं। शायद यह अच्छी बात है - पूंजीवाद का सतयुग आ रहा है या फिर यह भी संभव है कि हम प्रलय के निकट पहुंच रहे हों!
[लेखक पौराणिक-मिथकीय प्रसंगों के विश्लेषक हैं]
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