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दरअसल : ट्रेलर और गानों के व्‍यूज की असलियत

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दरअसल... ट्रेलर और गानों के व्‍यूज की असलियत -अजय ब्रह्मात्‍मज आए दिन रिलीज हो रही फिल्‍म के निर्माता और अन्‍य संबंधित निर्देशक व कलाकार सोशल मीडिया पर बताते रहते हैं कि उनके ट्रेलर और गानों को इतने लाख और करोड़ व्‍यूज मिले। तात्‍पर्य यह रहता है कि उक्‍त ट्रेलर या गाने को संबंधित स्‍ट्रीमिंग चैनल पर उतनी बार देखा गया। ज्‍यादातर स्‍ट्रीमिंग यूट्यूब के जरिए होती है। व्‍यूज यानी दर्शकता बताने का आशय लोकप्रियता से रहता है। यह संकेत दिया जाता है कि रिलीज हो रही फिल्‍म के ट्रेलर और गानों को दर्शक पसंद कर रहे हैं। इससे निर्माता के अहं की तुष्टि होती है। साथ ही फिल्‍म के पक्ष में माहौल बनाया जाता है। दर्शकों को तैयार किया जाता है। लुक,टीजर,ट्रेलरऔर गानों को लकर ऐसे दावे किए जाते हैं। आम दर्शकों पर इसका कितना असर होता है ? क्‍या वे इसके दबाव में फिल्‍म देखने का मन बनाते हैं ? अभी तक कोई स्‍पष्‍ट अध्‍ययन या शोध उपलब्‍ध नहीं है,जिससे व्‍यूज और दर्शकों का अनुपात तय किया जा सके। सफलता का अनुमान किया जा सके। टीजर,ट्रेलर या गाने आने के साथ फिल्‍म से जुड़े सभी व्‍यक्ति सोशल मीडिया

दरअसल : भारत में जू जू,चीन में आमिर खान

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दरअसल... भारत में जू जू,चीन में आमिर खान -अजय ब्रह्मात्‍मज कबीर खान निर्देशित ‘ ट्यूबलाइट ’ में चीन की अभिनेत्री जू जू दिखाई पड़ेंगी। यह पहला मौका होगा जब किसी हिंदी फिल्‍म में पड़ोसी देश की अभिनेत्री सलमान खान जैसे लोकप्रिय सितारे के साथ खास किरदार निभाएंगी। पिछले कुछ सालों से भारत और चीन के बीच फिल्‍मों के जरिए आदन-प्रदान बढ़ा है। कुछ फिल्‍मों का संयुक्‍त निर्माण हुआ है। कुछ निर्माणाधीन हैं। चीन में ‘ दंगल ’ की कामयाबी ने हमारी तरफ से दरवाजे पर चढ़ाई गई कुंडी खोल दी है। दरवाजा खुला है। अभी तक भारत में चीनी सामानों को दोयम दर्जे के सस्‍ते प्रोडक्‍ट का का माना और मखौल उड़ाया जाता है। चीन के राष्‍ट्रपति तक ने भारत के प्रधानमंत्री से ‘ दंगल ’ की तारीफ की। ‘ हिंदी-चीनी भाई-भाई ’ नारे की अनुगूंज अब कहीं नहीं सुनाई पड़ती। 21 वीं सदी में दोनों देशों की सिनेमाई दोस्‍ती नई लहर के तौर पर आई है। ‘ हिंदी-चीनी सिनेमाई भाई ’ का नारा बुलंद किया जा सकता है। जू जू को हिंदी में झू झू और चू चू भी लिखा जा रहा है। हम दूसरे देशों की भाषा के शब्‍दों के प्रति लापरवाही की वजह से सही उच्‍च

दरअसल : पाकिस्‍तान जाएगा सुपर सिंह

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दरअसल... पाकिस्‍तान जाएगा सुपर सिंह -अजय ब्रह्मात्‍मज आज पाकिस्‍तान के आठ शहरों के 36 सिनमाघरों में अनुराग सिंह निर्देशित ’ सुपर सिंह ’ रिलीज होगी। दिलजीत दोसांझ और सोनम बाजवा अभिनीत ‘ सुपर सिंह ’ एक पंजाबी सुपरहीरो की कहानी है। पंजाबी में सुपरहीरो क्रिएट करने की पहली कोशिश की गई है। पंजाबी में बनी यह फिल्‍म भारत के साथ पाकिस्‍नान में भी आज रिलीज हो रही है। एक अंतराल के बाद कोई भारतीय फिल्‍म पाकिस्‍तानी सिनेमाघरों में एक ही दिन रिलीज हो रही है। यह एक खुशखबर है,जो दोनों देशों के नागरिकों को करीब ले आएगी। याद करें तो पिछले साल ‘ ऐ दिल है मुश्किल ’ की रिलीज के समय भयंकर पाकिस्‍तान विरोधी माहौल था। मुंबई में एक राजनीतिक पार्टी ने खुली घोषणा कर दी थी कि अगर पाकिस्‍तानी कलाकार फवाद खान को भारत बुलाया गया तो हंगामा होगा। तब महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री ने निर्देशक करण जौहर और उक्‍त पार्टी के नेता के बीच मध्‍यस्‍थता की थी। उसके बाद दो हिंदी फिल्‍में आईं,जिनमें पाकिस्‍तानी कलाकार माहिरा खान और सबा कमर थीं। उन फिल्‍मों को लेकर कोई हंगामा नहीं हुआ। सबा कमर की फिल्‍म ‘ हिंदी मी

दरअसल : हिंदी सिनेमा का चीनी पहलू

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दरअसल... हिंदी सिनेमा का चीनी पहलू -अजय ब्रह्मात्‍मज कुछ सालों पहले हांगकांग से एक पत्रकार मुंबई आए थे। वे हिंदी फिल्‍मों में चीन के वर्णन और चित्रण पर शोध कर रहे थे। उन्‍हें बहुत निराशा हाथ लगी थी। उन्‍हें कहीं से पता चला था कि मैं चीन में रह चुका हूं और मैंने सिनेमा के संदर्भ में भारत-चीन पर कुछ लिखा है। हम मिले और हम ने विमर्श किया कि ऐसा क्‍यों हुआ कि भारतीय फिल्‍मों में चीन की उचित छवि नहीं पेश की गई है। चीनी किरदार दिखाए भी गए तो उन्‍हें विलेन या कॉमिकल किरदारों के रूप में दिखाया गया। उनका हमेश मजाक उड़ाया गया। अपने देश की आजादी और चीन की मुक्ति के बाद बुलंद हुआ ‘ हिंदी-चीनी भाई-भाई ’ का नारा अचानक 1962 के बाद सुनाई पड़ना बंद हो गया। भारतीय मीडिया में चीन को दुश्‍मन देश के रूप में पेश किया गया। यह बताया गया कि नेहरू की दोस्‍ती के प्रयासों को नजरअंदाज कर चीन ने भारत की पीठ में छूरा घोंप दिया। पचपन सालों के बाद भी हम उस मानसिकता से नहीं निकल पाए हैं। अभी हाल में ‘ नितेश तिवारी निर्देशित दंगल ने चीन में 700 करोड़ रुपयों से अधिक का कारोबार किया तो फिर से चीन सभी

दरअसल : फिल्‍मों पर 28 प्रतिशत जीएसटी

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दरअसल... फिल्‍मों पर 28 प्रतिशत जीएसटी -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ बाहुबली ’ और ‘ दंगल ’ की अद्वितीय कामयाबी और 1000 करोड़ से अधिक के कलेक्‍शन के बावजूद भारतीय सिनेमा की आर्थिक सच्‍चाई छिपी हुई नहीं है। बमुश्किल 10 प्रतिशत फिल्‍में मुनाफे में रहती हैं। बाकी फिल्‍मों के लिए अपनी लागत निकाल पाना भी मुश्किल होता है। फिल्‍में अगर नहीं चलती हैं तो उससे जुड़े दूसरे व्‍यापारों को भी नुकसान उठाना पड़ता है। अगर कोई फिल्‍म चल जाती है तो अ के पास के खोमचे वाले की भी बिक्री और आमदनी बढ़ जाती है। फिल्‍मों पर आजादी के पहले से टैक्‍स लग रहे हैं। विभिन्‍न सरकारें अपनी सोच के हिसाब से कर सुधार करती हैं। लंबे समय से फिल्‍म बिरादरी और दर्शकों की मांग रही है कि फिल्‍मों के टिकट पर कर नहीं लगना चाहिए। फिल्‍म व्‍यवसाय को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है। सबसे पहले अंगेजों ने मनोरंजन कर आरंभ किया। फिल्‍मों के प्रदर्शन पर कर लादने के पीछे उनका दोहरा उद्देश्‍य था। उन्‍हें लगता था कि फिल्‍में देखने के लिए दर्शक जमा होते हैं। वहां उनके समूह को ग्रेजों के खिलाफ उकसाया जा सकता है। भीड़ कम करने की गरज से उन्‍ह

दरअसल : नंदिता दास के मंटो

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दरअसल... नंदिता दास के मंटो -अजय ब्रह्मात्‍मज नंदिता दास पिछले कुछ सालों से ‘ मंटो ’ के जीवन पर फिल्‍म बनाने में जुटी हैं। भारतीय उपमाद्वीप के सबसे ज्‍यादा चर्चित लेखक सआदत हसन मंटो के जीवन में पाठकों और दर्शकों की रुचि है। वे अपने लखन और लेखन में की गई टिप्‍पणियों से चौंकाते और हैरत में डाल देते हैं। आज उनकी जितनी ज्‍यादा चर्चा हो रही है,अगर इसका आंशिक हिस्‍सा भी उन्‍हें अपने जीवनकाल में मिल गया होता। उन्‍हें समुचित पहचान के साथ सम्‍मान मिला होता तो वे 42 की उम्र में जिंदगी से कूच नहीं करते। मजबूरियां और तकलीफें उन्‍हें सालती और छीलती रहीं। कौम की परेशानियों से उनका दिल पिघलता रहा। वे पार्टीशन के बाद पाकिस्‍तान के लाहौर गए,लेकिन लाहौर में मुंबई तलाशते रहे। मुंबई ने उन्‍हें लौटने का इशारा नहीं दिया। वे न उधर के रहे और न इधर के। अधर में टंगी जिंदगी धीरे-धीरे घुलती गई और एक दिन खत्‍म हो गई। नंदिता दास अपनी फिल्‍म में उनके जीवन के 1946 से 1952 के सालों को घटनाओं और सहयोगी किरदारों के माध्‍यम रख रही हैं। यह बॉयोपिक नहीं है। यह पीरियड उनकी जिंदगी का सबसे अधिक तकलीफदेह और

दरअसल : सिनेमा के शोधार्थी

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दरअसल... सिनेमा के शोधार्थी -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों ट्वीटर पर एक सज्‍जन ने राज कपूर की 1951 की   ‘ आवारा ’ के बारे में लिखा कि यह 1946 में बनी किसी तुर्की फिल्‍म की नकल है। सच्‍चाई यह है कि ‘ आवारा ’ से प्रेरित होकर तुर्की की फिल्‍म ‘ आवारे ’ नाम से 1964 में बनी थी। राज कपूर की ‘ आवारा ’ एक साथ तत्‍कालीन सोवियत संघ,चीन,अफ्रीका,तुर्की और कई देशों में लोकप्रिय हुई थी। जन्‍म और परिवेश से व्‍यक्तित्‍व के निर्माण के बारे में रोचक तरीके से बताती यह फिल्‍म वास्‍तव में इस धारणा को नकारती है कि व्‍यक्ति पैदाइशी गुणों से संचालित होता है। अभी तक ‘ आवारा ’ के विश्‍वव्‍यापी प्रभाव पर विश्‍लेषणात्‍मक शोध नहीं हुआ है। अगर कोई विश्‍वद्यालय,संस्‍थान या चेयर पहल करे तो भारतीय फिल्‍मों के प्रभाव की उम्‍दा जानकारी मिल सकती है। सही जानकारी के अभाव में ‘ आवारा ’ के बारे में फैली सोशल मीडिया सूचना को सही मान कर लोग आगे बढ़ा रहे हैं। एक तो मानसिकता बन गई है कि हम केवल चोरी ही कर सकते हैं। हीनभावना से ग्रस्‍त समाज किसी प्रतिमा के टूटने पर भी गर्व महसूस करता है। उसे बांटता और फैलात

दरअसल : नारी प्रधान फिल्‍मों पर उठते सवाल

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दरअसल... नारी प्रधान फिल्‍मों पर उठते सवाल -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी में हर साल बन रही 100 से अधिक फिल्‍मों में ज्‍यादातर नहीं चल पातीं। उन असफल फिल्‍मों में से ज्‍यादातर पुरुष्‍ प्रधान होती हैं। वे नायक केंद्रित होती है। उनकी निरंतर नाकामयाबी के बावजूद यह कभी लिखा और विचारा नहीं जाता कि नायकों या पुरुष प्रधान फिल्‍मों का मार्केट नहीं रहा। ऐसी फिल्‍मों की सफलता-असफलता पर गौर नहीं किया जाता। इसके विपरीत जब को कथित नारी प्रधान या नायिका केंद्रित फिल्‍म असफल होती है तो उन फिल्‍मों की हीरोइनों के नाम लेकर आर्टिकल छपने लगते हैं कि अब ता उनका बाजार गया। उन्‍होंने नारी प्रधान फिल्‍में चुन कर गलती की। उन्‍हें मसाला फिल्‍मों से ही संतुष्‍ट रहना चाहिए। हाल ही में ‘ बेगम जान ’ और ‘ नूर ’ की असफलता के बाद विद्या बालन और सोनाक्षी सिन्‍हा को ऐसे सवालों के घेरे में बांध दिया गया है। इन दिनों नारी प्रधान फिल्‍में फैशन में आ गई हैं। हर अभिनेत्री चाहती है कि उसे ऐसी कुछ फिल्‍में मिलें,जिन्‍हें उनके नाम से याद किया जा सके। ‘ डर्टी पिक्‍चर ’ , ’ क्‍वीन ’ , ’ मैरी कॉम ’ , ’ पीकू ’ , ’ पिं

दरअसल : पक्ष और निष्‍पक्ष

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दरअसल... पक्ष और निष्‍पक्ष -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों सोनू निगम अपने पक्ष को रखने की वजह से चर्चा में रहे। उसके कुछ दिनों पहले सुशांत सिंह राजपूत अपना पक्ष नहीं रखने की वजह से खबरों में आए। फिल्‍म जगत के सेलिब्रिटी आए दिन अपने पक्ष और मंतव्‍य के कारण सोशल मीडिया,चैनल और पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियों में रहते हैं। कुछ अपने अनुभवों और मीडिया मैनेजर के सहयोग से बहुत खूबसूरती से बगैर विवादों में आए ऐसी घटनाओं से डील कर लेते हैं। और कुछ नाहक फंस जाते हैं। अभी एक नया दौर है,जब सारे मंतव्‍य राष्‍ट्रवाद और सत्‍तासीन राजनीतिक पार्टी के हित के नजरिए से आंके जाते हैं। नतीजतन अधिकांश सेलिब्रिटी किसी भी मुद्दे पर अपना पक्ष रखने से बचते हैं। वे निष्‍पक्ष और उदासीन होने का नाटक करते हैं। आप अकेले में मिले तो ‘ ऑफ द रिकॉर्ड ’ वे अपनी राय शेयर करते हैं,लेकिन सार्वजनिक मंचों से कुछ भी कहने से कतराते हैं। कुछ समय पहले सहिष्‍णुता के मसले पर आमिर खान और शाह रूख खान के खिलाफ चढ़ी त्‍योरियां सभी को याद होंगी। गौर करें तो एक जिम्‍मेदार नागरिक के तौर पर उन्‍होंने अपना सहज पक्ष रखा था,लेकिन उन

दरअसल : पहचान का संकट है चेतन जी

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दरअसल... पहचान का संकट है चेतन जी -अजय ब्रह्मात्‍मज चेतन जी, जी हमारा नाम माधव झा है। हमें मालूम है कि आप हिंदी बोल तो लेते हैं,लेकिन ढंग से लिख-पढ़ नहीं सकते। आप वैसे भी अंगेजी लेखक हैं। बहुते पॉपुलर हैं। हम स्‍टीवेंस कालिज में आप का नावेल रिया के साथ पढ़ा करते थे। खूब मजा आता था। प्रेमचंद और रेणु को पढ़ कर डुमरांव और पटना से निकले थे। कभी-कभार सुरेन्‍द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा को चोरी से पढ़ लेते थे। गुलशन नंदा,कर्नल रंजीत और रानू को भी पढ़े थे। आप तो जानबे करते होंगे कि गुलशन नंदा के उपन्‍यास पर कैगो ना कैगो फिल्‍म बना है। अभी जैसे कि आप के उपन्‍यास पर बनाता है। हम आप के उपन्‍यास के नायक हैं माधव झा। हम तो खुश थे कि हमको पर्दा पर अर्जुन कपूर जिंदा कर रहे हैं। सब अच्‍छा चल रहा था। उस दिन ट्रेलर लांच में दैनिक जागरण के पत्रकार ने मेरे बारे में पूछ कर सब गुड़-गोबर कर दिया।  उसने आप से पूछ दिया था कि झा लोग तो बिहार के दरभंगा-मधुबनी यानी मैथिल इलाके में होते हैं। आप ने माधव झा को डुमरांव,बक्‍सर का बता दिया। सवाल तो वाजिब है। आप मेरा नाम माधव सिंह या माधव उपाध्‍या

दरअसल : बंद हो रहे सिंगल स्‍क्रीन,घट रहे दर्शक

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दरअसल... बंद हो रहे सिंगल स्‍क्रीन,घट रहे दर्शक -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले साल की सुपरहिट फिल्‍म ‘ दंगल ’ के प्रदर्शन के समय भी किसी सिनेमाघर पर हाउसफुल के बोर्ड नहीं लगे। पहले हर सिनेमाघर में हाउसफुल लिखी छोट-बड़ी तख्तियां होती थीं,जो टिकट खिड़की और मेन गेट पर लगा दी जाती थीं। फिल्‍म निर्माताओं के लिए वह खुशी का दिन होता था। अब तो आप टहलते हुए थिएटर जाएं और अपनी पसंद की फिल्‍म के टिकट खरीद लें। लोकप्रिय और चर्चित फिल्‍मों के लिए भी एडवांस की जरूरत नहीं रह गई है। लंबे समय के बाद हाल में दिल्‍ली के रीगल सिनेमाघर में हाउसफुल का बोर्ड लगा। रीगल के आखिरी शो में राज कपूर की ‘ संगम ’ लगी थी। दिलली के दर्शक रीगल के नास्‍टेलजिया में टूट पड़े थे। आज के स्‍तंभ का कारण रीगल ही है। दिल्‍ली के कनाट प्‍लेस में स्थित इस सिंगल स्‍क्रीन के बंद होने की खबर अखबारों और चैनलों के लिए सुर्खियां थीं। गौर करें तो पूरे देश में सिंगल स्‍क्रीन बंद हो रहे हैं। जिस तेजी से सिंगल स्‍क्रीन सिनेमाघरों के दरवाजे बंद हो रहे हैं,उसी तेजी से मल्‍टीप्‍लेक्‍स के गेट नहीं खुल रहे हैं। देश में मल्‍टीप्‍लेक्‍

दरअसल : कंगना के आरोप से फैली तिलमिलाहट

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दरअसल... कंगना के आरोप से फैली तिलमिलाहट -अजय ब्रह्मात्‍मज कल कंगना रनोट का जन्‍मदिन था। रिकार्ड के मुताबिक वह 30 साल की हो गई। उनकी स्‍क्रीन एज 13 साल की है। 2004 में आई अनुराग बसु की ‘ गैंगस्‍टर ’ से उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों में धमाकेदार एंट्री की। 13 सालों में 31 फिल्‍में कर चुकी कंगना को तीन बार अभिनय के लिए राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिल चुके हें। अपने एटीट्यूड और सोच की वजह से वह पॉपुर फिल्‍म अवार्ड की चहेती नहीं रहीं। वह परवाह नहीं करतीं। उन अवार्ड समारोहों में वह हिस्‍सा नहीं लेतीं। मानती हैं कि ऐसे सामारोहों और इवेंट में जाना समय और पैसे की फिजूलखर्ची है। अपनी बातों और बयानों से सुर्खियों में रही कंगना रनोट ने हिंदी फिल्‍मों में खास मुकाम हासिल किया है। कह सकते हैं कि हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में बाहर से आकर अपनी ठोस जगह और पहचान बना चुकी अभिनेत्रियों में वह सबसे आगे हैं। उनकी आगामी फिल्‍म हंसल मेहता निर्देशित ‘ सिमरन ’ है। पाठकों को याद होगा कि पहली फिल्‍म ‘ गैंगस्‍टर ’ में उनका नाम सिमरन ही था। सिमरन से सिमरन तक के इस सफर से एक चक्र पूरा होता है। एक दिन देर से ही

दरअसल : विरोध के नाम पर हिंसा और बयानबाजी क्‍यों?

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दरअसल... विरोध के नाम पर हिंसा और बयानबाजी क्‍यों ? -अजय ब्रह्मात्‍मज गनीमत है कि कोल्‍हापुर में संजय लीला भंसाली की ‘ पद्मावती ’ के सेट पर हुई आगजनी में किसी की जान नहीं गई। देर रात में हुड़दंगियों ने तोड़-फोड़ के बाद सेट को आग के हवाले कर दिया। संजय लीला भंसाली की टीम को माल का नुकसान अवश्‍य हुआ। कॉस्‍ट्यूम और जेवर खाक हो गए। अगली शूटिंग में कंटीन्‍यूटी की दिक्‍कतें आएंगी। फिर से सब कुछ तैयार करना होगा। ऐसी परेशानियों से हुड़दंगियों को क्‍या मतलब ? उन पर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं होती तो उनका मन और मचलता है। वे फिर से लोगों और विचारों को तबाह करते हैं। देश में यह कोई पहली घटना नहीं है,लेकिन इधर कुछ सालों में इनकी आवृति बढ़ गई है। किसी भी समूह या समुदाय को कोई बात बुरी लगती है या विचार पसंद नहीं आता तो वे हिंसात्‍मक हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर गाली-गलौज पर उतर आते हैं। सेलिब्रिटी तमाम मुद्दों पर कुछ भी कहने-बोलने से बचने लगे हैं। कोई भी नहीं चाहता कि उसके घर,परिजनों और ठिकानों पर पत्‍थर फेंके जाएं। खास कर क्रिएटिव व्‍यक्ति ऐसी दुर्घटनाओं की संभावना से बचने के लि

दरअसल : वैदेही,अनारकली,शशि,शबाना और पूर्णा

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दरअसल... वैदेही,अनारकली,शशि,शबाना और पूर्णा -अजय ब्रह्मात्‍मज वैदेही,अनारकली,शशि,शबाना और पूर्णा...पांच लड़कियों के नाम है। सभी अपनी फिल्‍मों में मुख्‍य किरदार है। उन्‍हें नायिका या हीरोइन कह सकते हैं। इनमें से तीन अनारकली,शबाना और पूर्णा का नाम तो फिल्‍म के टायटल में भी है। कभी हीरो के लिए ‘ इन ’ और ‘ ऐज ’ लिखा जाता था,उसी अंदाज में हम स्‍वरा भास्‍कर को ‘ अनारकली ऑफ आरा ’ ,तापसी पन्‍नू को ‘ नाम शबाना ’ और अदिति ईनामदार को ‘ पूर्णा ’ की शीर्षक भूमिका में देखेंगे। वैदेही ‘ बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया ’ की नायिका है,जिसे पर्दे पर आलिया भट्ट निभा रही हैं। शशि ‘ फिल्‍लौरी ’ की नायिका है,जिसे वीएफएक्‍स की मदद से अनुष्‍का शर्मा मूर्त्‍त रूप दे रही हैं। संयोग है कि ये सभी फिल्‍में मार्च में रिलीज हो रही है। 8 मार्च इंटरनेशनल महिला दिवस के रूप में पूरे विश्‍व में सेलिब्रेट किया जाता है। महिलाओं की भूमिका, महत्‍व और योगदान पर बातें होती हैं। हिंदी फिल्‍मों के संदर्भ में इन पांचों फिल्‍मों की नायिकाओं से परिचित होना रोचक होगा,क्‍योंकि अभी कुछ दिनो पहले ही कुख्‍यात सीबीएफसी ने ‘ लि