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दरअसल : प्रयोग बढ़ा है हिंदी का,लेकिन...

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में हिंदी के चलन पर इस स्‍तंभ में ‘ हिंदी दिवस ’ के अवसर पर लिखे गए रस्‍मी लेखों के अलावा भी हिंदी के चलन पर कुछ तथ्‍य आते रहे हैं। निश्चित ही धीरे-धीरे यह स्थिति बन गई है कि सेट या दफ्तर में चले जाएं तो थोड़ी देर के लिए कोई भी हिंदीभाषी वहां प्रचलित अंग्रेजी से संकोच और संदेह में आ सकता है। फिलमें जरूर हिंदी में बनती हैं,लेकिन फिल्‍मी हस्तियों के व्‍यवहार की आम भाषा अंग्रेजी हो चुकी है। बताने की जरूरत नहीं स्क्रिप्‍ट,पोस्‍टर और प्रचार अंगेजी में ही होते हैं। पिछले दिनों भारत भ्रमण पर आए एक विदेशी युवक ने अपने यात्रा संस्‍मरण में इस बात पर आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि शहर के सारे लोग हिंदी बोल रहे हैं,लेकिन दुकानों के नाम और अन्‍य साइन बोर्ड अंग्रेजी में लिखे हुए हैं। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में अंग्रेजी के प्रति झुकाव के संबंध में कटु विचार प्रकट कर रहे हिंदीभाषियों को सबसे पहले अपने गांव,कस्‍बे और समाज में आ रहे परिवर्तन में हस्‍तक्षेप करना चाहिए। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में लगभग दो दशक के अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि

दरअसल : पायरेसी,सिनेमा और दर्शक

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पारेसी के खिलाफ जंग छिड़ी है। पिछले महीनों में कुछ फिल्‍में ठीक रिलीज के पहले लीक हुईं। जाहिर है इससे उन फिल्‍मों का नुकसान हुआ। सरकार भी पायरेसी के खिलाफ चौकस है। तमाम कोशिशों के बावजूद पायरेसी का काट नहीं मिल पा रहा है। अभी नियम सख्‍त किए गए हैं। आर्थिक दंड की रकम और सजा की मियाद बढ़ा दी गई,लेकिन पायरेसी बदस्‍तूर जारी है। मुंबई की लोकल ट्रेनों में कुछ सालों पहले तक शाम के अखबार होते थे। किसी जमाने में देश में शाम सबसे ज्‍यादा अखबार मुंबई में निकला करते थे। अभी कुछ के प्रकाशन बंद हो गए। कुछ किसी प्रकार निकल रहे हैं। वे शाम के बजाए सुबह के अखबार हो गए हैं। आप शाम में इन ट्रेनों में सफर करें तो पाएंगे कि सभी अपने स्‍मार्ट फोन में लीन हैं। उनमें से अधिकांश फिल्‍में देख रहे होते हें। ताजा फिल्‍में...और कई बार तो फिलमें रिलीज के पूर्व थिएटर से पहले स्‍मार्ट फोन में पहुंच जा रही हैं। पहले अखबार बांट कर पढ़ते थे। अब फिल्‍में बांट कर देखते हैं। अपरिचितों को भी फिल्‍म फाइल ट्रांसफर करने में किसी को गुरेज नहीं होता। सिर्फ मुंबई में ही नहीं,देश के हर छ

दरअसल : जरूरी है सरकारी समर्थन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इन दिनों विभिन्‍न राज्‍य सरकारें फिर से सिनेमा पर गौर कर रही हैं। अपने राज्‍यों के पर्यटन और ध्‍यानाकर्षण के लिए उन्‍हें यह आसान रास्‍ता दिख रहा है। इस साल गुजरात और उत्‍तर प्रदेश की सरकारों को पुरस्‍कृत भी किया गया। उन्‍हें ‘ फिल्‍म फ्रेंडली ’ स्‍टेट कहा गया। फिल्‍मों के 63 वें राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों में एक नई श्रेणी बनी। बताया गया था कि इससे राज्‍य सरकारें फिल्‍मों के प्रोत्‍साहन के लिए आगे आएंगी। इसके साथ ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्यरत एनएफडीसी(नेशनल फिल्‍म डेवलपमंट कारपोरेशन) के दिल्‍ली कार्यालय में फिल्‍म फैसिलिटेशन विभाग खोला गया। उद्देश्‍य यह है कि फिल्‍मकारों को साथ लाया जाए और उन्‍हें फिल्‍में बनाने की सुविधाएं दी जाएं। एनएफडीसी सालों सार्थक फिल्‍मों के समर्थन में खड़ी रही। इसके सहयोग से पूरे देश में युवा फिल्‍मकार अपनी प्रतिभाओं और संस्‍कृति के साथ सामने आए। हालांकि फिल्‍मों के लिए एनएफडीसी सीमित फंड ही देती थी,लेकिन उस सीमित फंड में ही युवा फिल्‍मकारों ने प्रयोग किए और समांतर सिनेमा अभियान खड़ा कर दिया। अब पैरेलल,समांतर या वैकल्प

दरअसल : सोशल मीडिया के दौर में फिल्‍म समीक्षा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते जयपुर में था। वहां ‘ टॉक जर्नलिज्‍म ’ के एक सत्र में विष्‍य था ‘ सोशल मीडिया के दौर में किसे चाहिए फिल्‍म समीक्षक ?’ । सचमुच अभी सोशल मीडिया पर जिस तेजी और अधिकता में फिल्‍मों पर टिप्‍पणियां आ रही हैं,उससे जो यही आभास होता है कि शायद ही कोई फिल्‍म समीक्षा पढ़ता होगा। अखबारों और चैनलों पर नियमित समीक्षकों की समीक्षा आने के पहले से सोशल मीडिया साइट पर टिप्‍पणियां चहचहाने लगती हैं। इनके दबाव में मीडिया हाउस भी अपने साइट पर यथाशीघ्र रिव्‍यू डालने लगे हैं। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार तो प्रीव्‍यू में रिव्‍यू का भ्रम देता है। केवल आखिर में एक पंक्ति रहती है कि हमारे समीक्षक की समीक्षा का इंतजार करें। हम जल्‍दी ही पोस्‍ट करेंगे। सभी हड़बड़ी में हैं। डिजिटल युग में आगे रहना है तो ‘ सर्वप्रथम ’ होना होगा। जो सबसे पहले आएगा,उसे सबसे ज्‍यादा हिट मिलेंगे। इस दबाव में कंटेंट पर किसी का ध्‍यान नहीं है। पहले बुधवार या गुरूवार को निर्माता फिल्‍में दिखाते थे। अखबारों में शनिवार और रविवार को इंटरव्‍यू छपते थे। फिल्‍मों पर विस्‍तार से चर्चा होती थी। आज के पाठक

दरअसल : क्‍यों बेतुका बोलते हैं स्‍टार?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सुल्‍तान की रिलीज के कुछ दिनों पहले सलमान खान के एक कथन से हंगामा मच गया था। उनके पिता सलीम खान ने माफी मांगी,फिर भी एक समूह सलमान खान से नाखुश है। यह वाजिब भी है। सलमान खान सरीखे पॉपुलर स्‍टार की जुबान कैसे फिसल सकती है ? क्‍या बोलते समय उन्‍हें अहसास नहीं रहा होगा कि उनके इस कथन के कई अभिप्राय निकलेंगे। सच कहें तो सलमान खान इतना नहीं सोचते। और फिर इन दिनों बातचीत को मसखरी बना दिया गया है। कोशिश रहती है कि ऐसे सवाल पूछे जाएं कि स्‍टार को हंसी आ जाए। स्‍टार भी पत्रकारों का मनोरंजन करते हैं। कभी अपनी हरकतों से तो कभी अपनी बातों से। इन दिनों हर इवेंट में सवालों का मखौल बना दिया जाता है। मंच पर बैठे स्‍टार और उनके सहयोगी तफरीह लेने लगते हैं। दरअसल,अधिकांश फिल्‍म स्‍टार और डायरेक्‍टर पब्लिक स्‍पीच में अनगढ़ होते हैं। सभी को अमिताभ बच्‍चन और शाह रुख खान की तरह सटीक जवाब देना नहीं आता। अधिकांश हिंदी में तंग हैं,इसलिए वे हिंदी में खुद को एक्‍सप्रेस नहीं कर पाते। ऐसा नहीं है कि उनकी अंग्रेजी बहुत अच्‍छी होती है। सीमित शब्‍दों में सीमित भावों के साथ ही वे अपनी बातें

दरअसल : मिलते हैं जब फिल्‍म स्‍टार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज जागरण फिल्‍म फेस्टिवल जारी है। हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने के अवसर मिल रहे हैं। इन शहरों में फिलमें दिखाने के साथ ही जागरण फिल्‍म फेस्टिवल मुंबई से कुछ फिल्‍म स्‍टारों को भी आमंत्रित करता है। इन फिल्‍म स्‍टारों से दोटूक बातचीत होती है। कुछ श्रोताओं को भी सवाल पूछने के मौके मिलते हैं। हर फेस्टिवल की तरह यहां भी फिल्‍मप्रेमी,रंगकर्मी,साहित्‍यप्रेमी और युवा दर्शक होते हैं। उनकी भागीदारी अचंभित करती है। वे पूरे जोश के साथ फेस्टिवल में शामिल होते हैं। अपनी जिज्ञासाएं रखते हैं। अपनी धारणाएं भी जाहिर करते हैं। मैंने गौर किया है कि फिल्‍म स्‍टारों के साथ इन मुलाकातों में दर्शकों में सबसे ज्‍यादा रुचि सेल्‍फी निकालने में होती है। वे दाएं-बाएं हाथें में मोबाइल लिए और बांहें फैलाए सेलिब्रिटी के रास्‍ते में खड़ हो जाते हैं। हर व्‍यक्ति चााहता है कि सेलिब्रिटी उनके कैमरे की तरफ देखे और मुस्‍कराए। चूंकि सेल्‍फी मोड में अपनी छवि दिख रही होती है,इसलिए नजरें नहीं फेरी जा सकती हैं। मजबूरन हर सेलिब्रिटी को मुस्‍कराना पड़ता है। आ खुद ही जोड़ लें कि एक सेल्‍फी में कितना स

दरअसल : निजी जिंदगी,फिल्‍म और प्रचार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सार्वजनिक मंचों पर फिल्‍म स्‍टारों के ऊपर अनेक दबाव रहते होंगे। उन्‍हें पहले से अंदाजा नहीं रहता कि क्‍या सवाल पूछ लिए जाएंगे और झट से दिए जवाब की क्‍या-क्‍या व्‍याख्‍याएं होंगी ? क्‍या सचमुच घर से निकलते समय वे सभी अपने जीवन की नई-पुरानी घटनाओं का आकलन कर उन्‍हें रिफ्रेश कर लेते होंगे ? क्‍या उनके पास संभावित सवालों के जवाब तैयार रहते होंगे ? यह मुश्किल राजनीतिज्ञों और खिलाडि़यों के साथ भी आती होगी। फिर भी फिल्‍म स्‍टारों की निजी जिंदगी पाइकों और दर्शकों के लिए अधिक रोचक होती है। हम पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर उनकी निजी जिंदगी में झांक रहे होती हैं। उनकी प्रायवेसी का हनन कर रहे होते हैं। इस दौर में पत्रकारों के ऊपर भी दबाव है। उनसे अपेक्षा रहती है कि वे कोई ऐसी अंदरूनी और ब्रेकिंग खबर ले आएं,जिनसे टभ्‍आपी और हिट बढ़े। डिजिटल युग में खबरों का प्रभाव मिनटों में होता है। उसे आंका भी जा सकता है। टीवी पर टीआरपी और ऑन लाइन साइट पर हिट से पता चलता है कि उपभोक्‍ता(दर्शक व पाठक) की रुचि किधर है ? जाहिर सी बात है कि अगले अपडेट,पोस्‍ट और न्‍

दरअसल : 2016 की पहली छमाही

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-अजय ब्रह्मात्‍मज 2016 की पहली छमाही के कलेक्‍शन में पिछले साल 2015 की तुलना में 2 करोड़ का इजाफा हुआ है। इस साल पहली छमाही में 1 फिल्‍म ज्‍यादा रिलीज भी हुई है। 2016 में जनवरी से जून के बीच कुल 111 फिल्‍में रिलीज हुई हैं। गौर करें तो 2014 के बाद से पहली छमाही में 100 से ज्‍यादा फिल्‍में रिलीज हो रही हैं। पिछले साल रिलीज फिल्‍मों की संख्‍या 110 और उसके पहले 2014 में केवल 102 रही थी। अगर और पीछे जाएं तो 2009 में पहली छमाही में केवल 33 फिल्‍में ही रिलीज हुई थीं। फिल्‍मों के बाजार और बिजनेस के लिहाज से उत्‍तरोत्‍तर प्रगति हो रही है। बाजार और बिजनेस की बात करें तो पहली छमाही का कुल कलेक्‍शन 1025 करोड़ रहा है। यह राशि बहुत अधिक नहीं है,लेकिन निराशाजनक स्थिति भी नहीं है। पहली छमाही में ‘ एयरलिफ्ट ’ और ‘ हाउसफुल 3 ’ ने 100 करोड़ से अधिक का करोबार किया। संयोग से दोनों ही फिल्‍में अक्षय कुमार की हैं। अक्षय कुमार बाक्‍स आफिस के भरोसेमंद स्‍टार हैं। उनकी फिल्‍में ज्‍यादा हल्‍ला-गुल्‍ला नहीं करतीं। निर्माताओं को लाभ होता है। दूसरी छमाही में भी उनकी फिल्‍में आ रही हैं। अक्षय कुमार की दो

दरअसल : मैड्रिड में हिंदी सिनेमा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले 17 सालों से आइफा वीकएंड के तहत आइफा अवार्ड और अन्‍य इवेंट के आयोजन विदेशों में हो रहे हैं। आइफा सामान्‍य तौर पर भारतीय सिनेमा और विशेष तौर पर हिंदी सिनेमा के   प्रसार में अहम भूमिका निभाता रहा है। अभी तो हिंदी सिनेमा के प्रचारक और प्रसारक के नाम पर कई दावेदार निकल आएंगे,लेकिन इस सच्‍चाई सं इंकार नहीं किया जा सकता कि आइफा ने ही यह पहल की। उन्‍होंने भारतवंशियों और विदेशियों के बीच भारतीय फिल्‍मों और फिल्‍म स्‍टारों ‍को पहुंचाया और उनकी लोकप्रियता को सेलीब्रेट किया। आइफा इस मायने में हिंदी फिल्‍मों के अन्‍य पुरस्‍कारों से अलग और विशेष है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और दुनिया भर के प्रशंसकों को आइफा का इंतजार रहता है। इंटरनेशनल मीडिया को हिंदी फिल्‍मों के स्‍टारों से मिलने का मौका मिलता है। प्रशंसकों को खुशी मिलती है कि उन्‍होंने अपने देश में उन स्‍टारों को देख लिया,जिन्‍हें वे जिंदगी भर केवल स्‍क्रीन पर देखते रहे। 17 वें आइफा अवार्ड समारोह का आयोजन स्‍पेन की राजधानी मैड्रिड में किया गया। 23 से 27 जुलाई तक मैड्रिड की गलियां और ऐतिहासिक स्‍थल हिंदी फिलमों के

दरअसल : रिकार्डिंग और डाक्‍युमेंटेशन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों एक अनौपचारिक मुलाकात में अमिताभ बच्‍चन ने मीडिा से शेयर किया कि अपने यहां डाक्‍यूमेंटेशन का काम नहीं के बराबर होता है। गौर करें तो इस तरफ न तो सरकारी संस्‍थाओं का ध्‍यान है और न ही फिल्‍मी संस्‍थाओं और संगठनों का। किसी के पास आंकड़े नहीं हैं। इन दिनों फिल्‍मों सं संबंधित किसी भी जानकारी के लिए गूगल,विकीपीडिया और आईएमडीबी का सहारा लिया जाता है। वहां सब कुछ प्रामाणिक तरीके से संयोजित नहीं किया गया है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई एक गलत जानकारी ही चलती रहती है। यहां तक कि फिल्‍म बिरादरी के संबंधित सदस्‍य भी उसमें सुधार की कोशिश नहीं करते हैं। खुद के प्रति ऐसी लापरवाही भारत में ही देखी जा सकती है। कुछ लोगों का यह सब फालतू काम लगता है। यह एक दूसरे किस्‍म का अहंकार है कि हम अपने बारे में सब कुछ क्‍यों लिखें और बताएं ? इतिहासकार बताते हैं कि देश में दस्‍तावेजीकरण की परंपरा नहीं रही। हम मौखिक परंपरा के लोग हैं। सब कुछ सुनते और बताते रहे हें। उन्‍हें लिपिबद्ध करने का काम बहुत बाद में किया गया। पहले महाकाव्‍यों और काव्‍य में राजाओं की गौरव गाथाएं लिखी जाती

दरअसल : बधाई आलिया भट्ट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले शुक्रवार को विवादित फिल्‍म ‘ उड़ता पंजाब ’ रिलीज हुई। अभिषेक चौबे की इस फिल्‍म के निर्माताओं में अनुराग कश्‍यप भी हैं। उन्‍होंने इस फिल्‍म की लड़ाई लड़ी। सीबीएफसी के खिलाफ उनकी इस जंग में मीडिया और फिल्‍म इंडस्‍ट्री का साथ रहा। कोर्ट के फैसले से एक कट के साथ ‘ उड़ता पंजाब ’ सिनेमाघरों में पहुंच गई। हाल-फिलहाल में किसी और फिल्‍म को लेकर निर्माता और सीबीएफसी के बीच ऐसा घमासान नहीं हुआ था। इस घमासान में ‘ उड़ता पंजाब ’ विजयी होकर निकली है। इस फिल्‍म में मुख्‍य कलाकारों के परफारमेंस की तारीफ हो रही है। शाहिद कपूर और आलिया भट्ट दोनों ने अपनी हदें तोड़ी हैं। उन्‍होंने निर्देशक अभिषेक चौबे की कल्‍पना को साकार किया है। पिछले शुक्रवार रिलीज के दिन ही ग्‍यारह बजे रात में महेश भट्ट का फोन आया। गदगद भाव से वे बता रहे थे कि आलिया भट्ट की चौतरफा तारीफ हो रही है। उन्‍होंने मुझे मेरी ही बात याद दिलाई। मैं इम्तियाज अली की फिल्‍म ‘ हाईवे ’ की काश्‍मीर की शूटिंग से लौटा था। मैंने उन्‍हें बताया था कि एक पहाड़ी पर मैंने आलिया का जमीन पर गहरी नींद में लेटे देखा। मेरे

दरअसल : हो सकता है एक और विवाद

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अभिषेक चौबे की ‘ उड़ता पंजाब ’ पर हाई कोर्ट की सुनवाई से आई खबरों को सही मानें तो केवल एक कट के साथ फिल्‍म रिलीज करने का आदेश मिल जाएगा। पिछले दिनों यह फिल्‍म भयंकर विवाद में रही। फिल्‍म के निर्माताओं में से एक अनुराग कश्‍यप ने सीबीएफसी की आरंभिक आपत्ति के बाद से ही मोर्चा खोल लिया था। सीबीएफसी के पुराने अनुभवों और गुत्थियों की जानकारी होने की वजह से उनके पार्टनर ने अनुराग कश्‍यप को सामने कर दिया था। उन्‍होंने सलीके से अपना विरोध जाहिर किया। और सीबीएफसी के खिलाफ फिल्‍म इंडस्‍ट्री को लामबंद किया। फिल्‍म इंडस्‍ट्री के कुछ संगठन साने आए। सभी फिल्‍मों को अनुराग कश्‍यप जैसा जुझारू और जानकार निर्माता नहीं मिलता। ज्‍यादातर लोग सिस्‍टम से टकराने या उसके आगे खड़े होने के बजाए झुक जाना पसंद करते हैं। ‘ उड़ता पंजाब ’ ने निर्माताओं का राह दिखाई है कि अगर उन्‍हें अपनी क्रिएटिविटी और फिल्‍म पर यकीन है तो तो वे इसी सिस्‍टम में अपनी लड़ाई लड़ कर विजय भी हा‍सिल कर सकते हैं। दरअसल,ज्‍यादातर निर्माता पर्याप्‍त तैयारी और समय के साथ फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड नहीं आते। फिल्‍

दरअसल : ठीक नहीं होती व्‍यक्ति पूजा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते हैं। हम यह दोहराने से भी नहीं हिचकते कि अपने देश में अभिव्‍यक्ति की आजादी है। निस्‍संदेह दक्षिण एशिया के अन्‍य देशों के मुकाबले हमारा रिकार्ड बेहतर है। पिछले 68 सालों में बीच-बीच में ऐसे अंतराल भी आए हैं,जब अभिव्‍यक्ति का गला घोंटा गया है। आपात्‍काल को हमेशा याद रखना चाहिए। कभी ऐसा भी लगता है कि प्रत्‍यक्ष तौर पर तो पूरी स्‍वतंत्रता है,लेकिन परोक्ष रूप से इतना कठोर दबाव है कि सभी एक ही राग अलाप रहे हैं। पिछले सालों में ऐसा भी हुआ कि किसी ने कुछ कहा और एक समुदाश्‍ या समूह नाराज हो गया। बगैर संदर्भ और सच को जाने सभी भौं-भौं करने लगे। लोकतंत्र में भीड़ की ऐसी सामूहिकता अराजक और खतरनाक हो जाती है। पिछले दिनों तन्‍मय भट्ट के मजाकिया वीडियो के वायरल होने के बाद जिस ढंग की प्रतिक्रियाएं आई हैं,उन्‍हें सही संदर्भ में देखने की जरूरत है। एआईबी सोशल मीडिया के जरिए समाज के पढे़-लिखे तबके में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहा है। अमेरिकी तर्ज पर यह व्‍यंग्‍य के पुट से हंसने-हंसाने की कोशिश कर रहा है। कुछ समय पहले इसकी तीखी आल

दरअसल : रमन राघव के साथ अनुराग कश्‍यप

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अनुराग कश्‍यप ने ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता की कसक को अपने साथ रखा है। उसे एक सबक के तौर पर वे हमेशा याद रखेंगे। उन्‍होंने हिंदी फिल्‍मों के ढांचे में कुछ नया और बड़ा करने की कोशिश की थी। मीडिया और फिल्‍म समीक्षकों ने ‘ बांबे वेलवेट ’ को आड़े हाथों लिया। फिल्‍म रिलीज होने के पहले से हवा बन चुकी थी। तय सा हो चुका था कि फिल्‍म के फेवर में कुछ नहीं लिखना है। ‍यह क्‍यों और कैसे हुआ ? उसके पीछे भी एक कहानी है। स्‍वयं अनुराग कश्‍यप के एटीट्यूड ने दर्जनों फिल्‍म पत्रकारों और समीक्षकों को नाराज किया। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री और फिल्‍म पत्रकारिता में दावा तो किया जाता है कि सब कुछ प्रोफेशनल है,लेकिन मैंने बार-बार यही देखा कि ज्‍यादातर चीजें पर्सनल हैं। व्‍यक्तिगत संबंधों,मान-अपमान और लाभ-हानि के आधार पर फिल्‍मों और फिल्‍मकारों का मूल्‍यांकन होता है। इसमें सिर्फ मीडिया ही गुनहगार नहीं है। फिल्‍म इंडस्‍ट्री का असमान व्‍यवहार भी एक कारक है। कहते हैं न कि जैसा बोएंगे,वैसा ही काटेंगे। बहरहाल, ‘ बांबे वेलवेट ’ की असफलता को पीछे छोड़ कर अनुराग कश्‍यप ने ‘ रमन राघव 2.