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अजय देवगन की परीक्षा!

-अजय ब्रह्मात्मज आमिर खान के समान ही अजय देवगन के बारे में भी यही कहा और सुना जाता रहा है कि वे निर्देशन में दखलंदाजी करते हैं। सेट पर और सेट के बाहर डायरेक्टर के साथ ही उनका ज्यादा समय गुजरता है। दरअसल, करियर के आरंभ से अभिनेता अजय देवगन ने निर्देशक की कुर्सी के पास ही अपनी कुर्सी रखी और फिल्म निर्देशन की बारीकियों को सीखने-समझने की कोशिश करते रहे। इसलिए अगर यू मी और हम उनके निर्देशन में आ रही है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उल्लेखनीय है कि अजय देवगन एक जमाने के स्टंट मास्टर और फिर ऐक्शन डायरेक्टर रहे वीरू देवगन के बेटे हैं, जिन्होंने सुनील दत्त की फिल्म रेशमा और शेरा से अपना फिल्मी जीवन आरंभ किया। पापा की देखादेखी अजय देवगन जब बड़े हो रहे थे, तो उनकी आंखों में भी फिल्मी सपने तैर रहे थे। इसीलिए उन्होंने अपने पिता के साथ काम आरंभ कर दिया था और शौकिया तौर पर वीडियो कैमरे से कुछ शूटिंग भी कर लेते थे। इच्छा तो थी कि फिल्म के हीरो बनें, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि स्टारों के इस माया प्रदेश में कौन ऐक्शन डायरेक्टर के सामान्य चेहरे के बेटे को तरजीह देता? इसीलिए अजय देवगन का ध्यान कैमरे के

आमिर खान से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत

आमिर खान से लंबी बातचीत। दो साल पहले हुई यह बातचीत कई खास मुद्दों को छूती है. - आमिर आप लगातार चर्चा में हैं। अभी थोड़ा ठहरकर देखें तो आप क्या कहना चाहेंगे? 0 सच कहूं तो मैं कंफ्यूज हूं। मैं अपने इर्द-गिर्द जो देख रहा हूं। मीडिया में जिस तरह से रिपोर्टिग चल रही है। टेलीविजन और प्रेस में जो रिपोर्टिग चल रही है, जिस किस्म की रिपोर्टिग चल रही है, जिस किस्म का नेशनल न्यूज दिखाया जा रहा है उससे मैं काफी कंफ्यूज हूं कि यह क्या हो रहा है हम सबको। हम किस दौर से गुजर रहे हैं। झूठ जो है, वह सच दिखाया जा रहा है। सच जो है, वह झूठ दिखाया जा रहा है। जो चीजें अहमियत की नहीं हैं, वह नेशनल न्यूज बनाकर दिखायी जा रही है। लोगों की जिंदगी नेशनल न्यूज बनती जा रही है। समाज के लिए जो महत्वपूर्ण चीजें हैं, उन्हें पीछे धकेला जा रहा है। यह सब देखकर मैं हैरान हूं, कंफ्यूज हूं।- आप फिल्म इंडस्ट्री से हैं, आपने बहुत करीब से इसे जिया और देखा है। अभी के दौर में एक एक्टर होना कितना आसान काम रह गया है या मुश्किल हो गया है?0 जिंदगी अपने मुश्किलात लेकर आती है। हर करियर में अपनी तकलीफें और मुश्किलात होती हैं।

हिन्दी फिल्म:महिलायें:आठवां दशक

आठवां दशक हर लिहाज से खास और अलग है.श्याम बेनेगल ने १९७४ में 'अंकुर' फ़िल्म में शबाना आज़मी को मौका दिया.उनकी इस कोशिश के पहले किसी ने सोचा नहीं था कि साधारण नैन-नक्श की लड़की हीरोइन बन सकती है.मशहूर शायर कैफी आज़मी की बेटी शबाना ने साबित किया कि वह असाधारण अभिनेत्री हैं.उनके ठीक पीछे आई स्मिता पाटिल ने भी दर्शकों का दिल जीता.हालांकि हेमा मालिनी को राज कपूर की फ़िल्म 'सपनों का सौदागर' १९६८ में ही मिल चुकी थी,लेकिन १९७० में देव आनंद के साथ'जॉनी मेरा नाम' से हेमा के हुस्न का ऐसा जादू चला कि आज तक उसका असर बरकरार है.एक और अभिनेत्री हैं इस दौर की,जो उम्र बढ़ने के साथ अपना रहस्य गहरा करती जा रही हैं.जी हाँ, रेखा के ग्लैमर की घटा 'सावन भादो' से छाई.अमिताभ और रेखा की जोड़ी ने इस दशक में दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया.अपने अलग अंदाज और अभिनय के लिए सिम्मी गरेवाल जानी गयीं.सफ़ेद कपडों में वह आज भी टीवी पर अवतरित होती हैं तो दर्शक उनकी मृदुता के कायल होते हैं.१९७३ में राज कपूर की 'बॉबी' से आई डिंपल कपाडिया पहली फ़िल्म के बाद ही राजेश खन्ना के घर में गायब

बॉक्स ऑफिस १२.०३.२००८

चवन्नी चैप पर बॉक्स ऑफिस का नया सिलसिला जारी हो रहा है.कोशिश रहेगी कि हर हफ्ते इसे यहाँ प्रकाशित किया जाए.अजय ब्रह्मात्मज नियमित रूप से हफ्तावार यह बॉक्स ऑफिस जागरण में लिखते हैं,वहीं से साभार यह यहाँ पोस्ट होगा.चवन्नी मानता है के ब्लॉग के पाठक और अखबार के पाठक एक होने के साथ ही अलग-अलग भी होते हैं। फीकी रही ब्लैक एंड ह्वाइट सुभाष घई की ब्लैक एंड ह्वाइट को खाली मैदान मिला था। फिल्म का विशेष प्रचार भी किया गया था। इसके बावजूद बॉक्स ऑफिस पर यह उम्मीद के मुताबिक सफल साबित नहीं हुई। हालांकि इस फिल्म में नए अभिनेता अनुराग सिन्हा और अनुभवी अनिल कपूर के अभिनय की तारीफ जरूर हुई। सुभाष घई ने इस फिल्म में अपनी शैली बदली थी और सीमित बजट में रियलिस्टिक फिल्म बनाने की कोशिश की थी। एक ट्रेंड पंडित के मुताबिक कमर्शियल फिल्ममेकर को रियलिस्टिक फिल्म बनाने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। ऐसे में वे न घर के रह पाते हैं और न घाट के। ब्लैक एंड ह्वाइट का पहला दिन बुरा रहा। समीक्षकों की तारीफ के बाद शनिवार और रविवार को दर्शक बढ़े। फिर सोमवार से दर्शकों की संख्या में गिरावट दिखी। इधर दिल्ली में इस फिल्म को ट

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:सातवां दशक

क्या आप ने आयशा सुलतान का नाम सुना है?चलिए एक हिंट देता है चवन्नी.वह नवाब मंसूर अली खान पटौदी की बीवी है.जी,सही पहचाना- शर्मिला टैगोर . शर्मीला टैगोर को सत्यजित राय ने 'अपु संसार' में पहला मौका दिया था.उन्होंने सत्यजित राय के साथ चार फिल्मों में काम किया,तभी उन पर हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की नज़र पड़ी.शक्ति सामन्त ने उन्हें 'कश्मीर की कली' के जरिये हिन्दी दर्शकों से परिचित कराया. जया भादुड़ी की पहली हिन्दी फ़िल्म 'गुड्डी' १९७१ में आई थी,लेकिन उन्हें सत्यजित राय ने 'महानगर' में पहला मौका दिया था.दारा सिंह की हीरोइन के रूप में मशहूर हुई मुमताज की शुरूआत बहुत ही साधारण रही,लेकिन अपनी मेहनत और लगन से वह मुख्य धारा में आ गयीं.राजेश खन्ना के साथ उनकी जोड़ी जबरदस्त पसंद की गई. साधना इसी दशक में चमकीं.नाजी हुसैन ने आशा पारेख को 'दिल देके देखो' फ़िल्म १९५९ में दी,लेकिन इस दशक में वह लगातार उनकी पाँच फिल्मों में दिखाई पड़ीं.वह हीरोइन तो नही बन सकीं,लेकिन उनकी मौजूदगी दर्शकों ने महसूस की. हेलन को कोई कैसे भूल सकता है?उनके नृत्य के जलवों से फिल्में कामयाब होती

पेन उठाओ,बॉलीवुड हिलाओ

यह एक मौका है.अगर आप को लगता है कि आप की किसी कहानी पर फ़िल्म बन सकती है और आप को कोई जरिया नहीं मिल रहा हो किसी फ़िल्म निर्माता या स्टार तक पहुँचने का तो आप मिर्ची मूवीज के इस अभियान और खोज में शामिल हो सकते हैं.आपको १००० से ३००० शब्दों में अपनी कहानी लिखनी है और इनके पास भेज देनी है.आप की कहानी के निर्णायक होंगे अज़ीज़ मिर्जा और कमलेश पण्डे.इस प्रतियोगिता या खोज में प्रथम को १० लाख रुपये,द्वितीय को ५ लाख रुपये और तृतीय को ३ लाख रुपये का पारितोषिक मिलेगा.उन कहानियो पर स्क्रिप्ट लिखी जायेगी और फिर फ़िल्म भी बनेगी.इन तीन विजेताओं के अलावा ५० लेखकों को पांच-पाँच हजार के पुरस्कार मिलेंगे.तो यह मौका है आप के लेखक बन जाने का.आप ज्यादा जानकारी के लिए मिर्ची मूवीज लिंक पर जाएं.या फिर उन्हें mirchimovies@indiatimes.com पर लिखें। जी इस प्रतियोगिता में हिन्दी या अंग्रेज़ी में कहानी भेजी जा सकती है .

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:छठा दशक

देश की आज़ादी बाद के इस दशक को हिन्दी फिल्मों का स्वर्णकाल माना जाता है.पिछले दशक में आ चुकी नरगिस और मधुबाला की बेहतरीन फिल्में इस दशक में आयीं.आज हम जिन निर्देशकों के नाम गर्व से लेते हैं,वे सब इसी दशक में सक्रिय थे.राज कपूर,बिमल राय,के आसिफ,महबूब खान,गुरु दत्त सभी अपनी-अपनी तरह से बाज़ार की परवाह किए बगैर फिल्में बना रहे थे। इस दशक की बात करें तो शोभना समर्थ ने अपनी बेटी नूतन को 'हमारी बेटी' के साथ पेश किया.नूतन का सौंदर्य अलग किस्म का था.उन्हें 'सीमा' के लिए फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला.१९६३ में आई 'बंदिनी' में कल्याणी की भूमिका में नूतन ने भावपूर्ण अभिनय किया.इसी दशक में दक्षिण से वैजयंतीमाला आयीं.वह प्रशिक्षित नृत्यांगना थीं.उनके लिए फिल्मों में डांस दृश्य रखे जाने लगे.वह काफी मशहूर रहीं अपने दौर में.कहते हैं राज कपूर ने निम्मी को सबसे पहले महबूब खान की 'अंदाज' के सेट पर देखा था,उन्होंने तभी 'बरसात' में निम्मी को छोटी सी भूमिका दी थी.उन्हें यह नाम भी राज कपूर ने ही दिया था.महबूब खान की प्रयोगशीलता गजब की थी.उन्होंने पश्चिम की फिल्मों प्रभावित

शाहरुख़ खान ने पढी कविता

शाहरुख़ खान ने समर खान की फ़िल्म 'शौर्य' के लिए एक कविता पढी है.इसे जयदीप सरकार ने लिखा है। शौर्य क्या है? शौर्य क्या है? थरथराती इस धरती को रौंदती फौजियों के पलटन का शौर्य या सहमे से आसमान को चीरता हुआ बंदूकों की सलामी का शौर्य शौर्य क्या है? हरी वर्दी पर चमकते हुए चंद पीतल के सितारे या सरहद का नाम देकर अनदेखी कुछ लकीरों की नुमाईश शौर्य क्या है? दूर उड़ते खामोश परिंदे को गोलियों से भून देने का एहसास या शोलों की बरसातों से पल भर में एक शहर को श्मशान बना देने का एहसास शौर्य क्या है? बैठी हुई आस में किसी के गर्म खून सुर्ख हो जाना या अनजाने किसी जन्नत की फिराक में पल-पल का दोज़ख हो जाना बारूदों से धुन्धलाये इस आसमान में शौर्य क्या है? वादियों में गूंजते किसी गाँव के मातम में शौर्य क्या है? शौर्य क्या है? शयद एक हौसला,शयद एक हिम्मत...... मजहब के बनाये दायरे को तोड़कर किसी का हाथ थाम लेने की हिम्मत गोलियों के बेतहाशा शोर को अपनी खामोशी से चुनौती देने की हिम्मत मरती-मारती इस दुनिया में निहत्थे डटे रहने की हिम्मत शौर्य आने वाले कल की खातिर अपनी कायनात को आज बचा लेने की हिम्मत शौर्य

हिन्दी फ़िल्म:महिलायें:पांचवा दशक

पांचवे दशक की शुरूआत बहुत अच्छी रही.महबूब खान ने १९४० में 'औरत' नाम की फ़िल्म बनाई.इस फ़िल्म को ही बाद में उन्होंने 'मदर इंडिया' नाम से नरगिस के साथ बनाया.'औरत' की सरदार अख्तर थीं.उन्होंने इस फ़िल्म के पश्चात् महबूब खान के साथ शादी कर ली थी.इस दौर में फिल्मों में पीड़ित नायिकाओं की अधिकता दिखाई देती है.इसके अलावा फिल्मों के सवक होने से नाच-गाने पर जोर दिया जाने लगा.ऐसी अभिनेत्रियों को अधिक मौके मिले]जो नाच और गा सकती थीं. खुर्शीद ने 'भक्त सूरदास'(१९४३) ,'तानसेन'(१९४३) और 'पपीहा रे'(१९४८) से दर्शकों को झुमाया.देश के बँटवारे के बाद खुर्शीद पाकिस्तान चली गयीं.एक और मशहूर अभिनेत्री और गायिका ने पाकिस्तान का रूख किया था.उनका नाम नूरजहाँ था।महबूब खान के 'अनमोल घड़ी'(१९४६) के गीत आज भी कानों में रस घोलते हैं.भारत में उनकी आखिरी फ़िल्म दिलीप कुमार के साथ 'जुगनू' थी.खुर्शीद और नूरजहाँ तो पाकिस्तान चली गयीं,लेकिन सुरैया ने यहीं रहम का फैसला किया. वजह सभी जानते हैं.हालांकि उनकी मुराद पूरी नहीं हो सकी.सुरैया की पहली फ़िल्म 'ताजम

सीरियस विषय पर सेंसिबल फिल्म है क्रेजी-4 : जयदीप सेन

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-अजय ब्रह्मात्मज राकेश रोशन अपने वादे पर अटल रहे। कृष की शूटिंग के दौरान उन्होंने अपने सहायक जयदीप सेन से वादा किया था कि वह उन्हें एक फिल्म निर्देशित करने के लिए देंगे। उन्होंने कृष से खाली होते ही नयी फिल्म की योजना बनायी और उसकी जिम्मेदारी जयदीप सेन को सौंपी। राकेश रोशन की कंपनी फिल्मक्राफ्ट की यह पहली फिल्म होगी, जिसे कोई बाहरी निर्देशक निर्देशित कर रहा है। जयदीप सेन को फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर लोग राजा सेन के नाम से जानते हैं। राजा ने सालों पहले एनआर पचीसिया के साथ फिल्मों की यात्रा आरंभ की। तब वह अपराधी फिल्म बना रहे थे और राजा उर्फ जयदेव सेन उसमें प्रोड्क्शन एसिस्टैंट थे। उसके बाद हैरी बावेजा, राज कंवर और मुकुल आनंद के साथ काम करने के पश्चात जयदीप सेन ने अपने दोस्त और डायरेक्टर चंदन अरोड़ा की सलाह पर राकेश रोशन से मुलाकात की। राकेश रोशन उन दिनों कृष की शूटिंग आरंभ करने जा रहे थे और एक सक्षम सहायक की तलाश में थे। यहां यह उल्लेख जरूरी होगा कि दिल्लगी में जयदीप सेन एक्टर-डायरेक्टर सनी देओल के एसोसिएट थे। जयदीप सेन के शब्दों में, जब चंदन ने मुझे राकेश जी से मिलने की सलाह दी तो म