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बॉक्स ऑफिस:०९.१०.२००८

द्रोण और किडनैप ने निराश किया कई बार धारणाएं फिल्म को चलाती हैं और कई बार उनके खिलाफ भी काम करती हैं। पिछले हफ्ते रिलीज हुई फिल्मों के संदर्भ में यह बात एक साथ सच और गलत हुई। माना जा रहा था कि संजय गढ़वी की किडनैप को दर्शक मिलेंगे। इमरान खान फिल्म के सबसे बड़े आकर्षण थे। फिल्म को आरंभ में 70-80 प्रतिशत दर्शक मिले भी, लेकिन दर्शकों की निराशा ने उसे अगले ही दिन तीस प्रतिशत नीचे ला दिया। किडनैप के मामले में प्रचार से बनी धारणा गलत साबित हुई। दूसरी धारणा सच निकली। द्रोण के विज्ञापन आने के समय से ही कानाफूसी चल रही थी कि फिल्म को शायद ही दर्शक पसंद करें। धारणा सच निकली। द्रोण का आरंभिक कलेक्शन किडनैप से कम रहा। हालांकि अब दोनों समान रूप से नीचे फिसल गई हैं और लगभग बराबर बिजनेस कर रही हैं। संजय गढ़वी और गोल्डी बहल दोनों ने दर्शकों को निराश किया। चूंकि दोनों फिल्में महंगी थी, इसलिए घाटे की राशि ज्यादा होगी। उल्लेखनीय है कि दोनों ही फिल्मों को चार दिनों का वीकएंड मिला था, पर फिल्मों को कोई फायदा नहीं हो सका। महानगरों और मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलें तो सुदूर शहरों में भोजपुरी फिल्म हम बाहुबली अच

जो नहीं है उसे पर्दे पर तलाशते हैं लोग-महेश भट्ट

कुछ साल पहले की बात है। ब्रिटेन के एक अंग्रेजी रियैलिटी शो बॉलीवुड स्टार का मैं जज था। बॉलीवुड में अभिनेत्री बनने की लालसा से एक गोरी लडकी शो में हिस्सा लेने आई थी। मैंने उससे पूछा, तुम हॉलीवुड के बजाय बॉलीवुड में क्यों काम करना चाहती हो? उसने बेहिचक कहा, क्योंकि उसकी फिल्में रोमैंटिक होती हैं। हॉलीवुड के लेखक-निर्देशक हर फिल्म को यथार्थवादी बना देते हैं। मैं सप्ताहांत में पाकिस्तानी, ग्रीक या रूसी दोस्तों के साथ बॉलीवुड की फिल्में देखना पसंद करूंगी। मुझे किसी बौद्धिक फिल्म देखने से ज्यादा मजा आनंद हिंदी फिल्मों के गाने गुनगुनाने में आएगा। उसके जवाब से मेरा दिल खुश हो गया, मैंने महसूस किया कि भूमंडलीकरण के इस दौर में बॉलीवुड की फिल्मों की अपील बढ रही है। हिंदी सिनेमा का आकर्षण बढ रहा है। कल्पना की उडान हिंदी फिल्में देख चुके पश्चिम के अधिकतर दर्शकों को बॉलीवुड की फिल्में नाटकीय और अनगढ लगती हैं। इसकी वजह यही हो सकती है कि हमारी ज्यादातर फिल्में तीन घंटे की होती हैं, हीरो-हीरोइन मौका मिलते ही नाचने-गाने लगते हैं। हमारी फिल्मों की कहानियां कल्पना की ऊंची उडान से निकलती हैं। उनमें ढेर सार

खलनायकों के बगैर खाली है हमारी दुनिया: देवदत्त पटनायक

जरा रावण के बगैर रामायण, कंस के बगैर कृष्णलीला, शकुनि के बगैर महाभारत की कल्पना करें। खलनायक ही कथा पूरी करते हैं। देवता राक्षसों की हत्या करते रहते हैं, लेकिन वे वापस आ जाते हैं। ऐसी कोई अंतिम निर्णायक जीत नहीं होती, जिसमें खल चरित्रों का हमेशा के लिए सफाया हो जाए। नए खलनायक पैदा होते रहते हैं, इसलिए नए नायकों की जरूरत पड़ती रहती है। नए अवतार, नए देवता, नयी देवियां, नए नायक। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हर शुक्रवार को नए खलनायक और नए नायक ले आती है। श्वेत-श्याम फिल्मों की याद करें तो उनमें खून के प्यासे मुनीम या लोलुप बलात्कारी अवश्य रहते थे। गब्बर सिंह के बगैर हम 'शोले' की कल्पना नहीं कर सकते। मोगैंबो के बगैर 'मिस्टर इंडिया' की कल्पना नहीं की जा सकती। रणजीत, जीवन, प्राण, अमरीश पुरी जैसे अभिनेताओं ने खलनायक के तौर पर अपना कॅरिअर बनाया। शशिकला, ललिता पवार और हेलन खलनायिकाओं के तौर पर मशहूर रहीं। युग बदल गया है। हम कलयुग के नए दौर में हैं, जहां खलनायक नहीं हैं। जब नायक ही खलनायकों की भूमिकाएं करने लगें तो ऐसा लगेगा ही कि खलनायक गायब हो गए। आज रूपहले पर्दे पर

एक वह भी ज़माना था-रेखा श्रीवास्तव

हिन्दी टाकीज-११ इस बार रेखा श्रीवास्तव.मूल रूप से उरई की निवासी रेखा श्रीवास्तव कविता,कहानियाँ और विभिन्न विषयों पर लेख इतय्दी लिखती हैं.उनका अपना ब्लॉग है- हिंदीजन . चवन्नी के आग्रह पर उन्होंने यह विशेष लेख लिखा है.हिन्दी टाकीज में किसी स्त्री सिनेप्रेमी का यह पहला लेख है.चवन्नी चाहता है की अलग-अलग दृष्टिकोण और माहौल की जानकारियां और अनुभव हम आपस में बांटे.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है की इस कड़ी को आगे बढ़ायें और अपने संस्मरण,अनुभव और यादें लिख भेजें.पता है -chavannichap@gmail.com फिल्मी दुनिया बचपन से ही मेरे इतने करीब रही कि ऐसा कभी नहीं लगा कि यह कुछ अलग दुनियाँ है। बचपन से ही छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख़बर से वाक़िफ़ रहती थी। मेरे पापा ख़ुद पढ़ने और लिखने के शौकीन थे। उस समय प्रकाशित होने वाली जितनी भी मैगज़ीन थी सब मेरे घर आती थी। चाहे वे साहित्यिक में सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी हो या फिर फिल्मी में 'सुचित्रा' जो बाद में 'माधुरी के नाम से प्रकाशित हुई। फिल्मी कलियाँ, फिल्मी दुनियाँ, सुषमा । यह सब फिल्मों के शौकीनों कि जान हुआ करती थी। उस समय इन

फ़िल्म समीक्षा:द्रोण

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४०० वीं पोस्ट बड़े पर्दे पर तिलिस्म -अजय ब्रह्मात्मज स्पेशल इफेक्ट और एक्शन की चर्चा के कारण द्रोण को अलग नजरिए से देखने जा रहे दर्शकों को निराशा होगी। यह शुद्ध भारतीय कथा परंपरा की फिल्म है, जिसे निर्माता-निर्देशक सही तरीके से पेश नहीं कर सके। यह न तो सुपरहीरो फिल्म है और न ही इसे भारत की मैट्रिक्स कहना उचित होगा। यह ऐयारी और तिलिस्म परंपरा की कहानी है, जो अधिकांश हिंदी दर्शकों के मानस में है। दूरदर्शन पर प्रसारित हो चुके चंद्रकांता की लोकप्रियता से जाहिर है कि दर्शक ऐसे विषय में रुचि लेते हैं। शायद निर्देशक गोल्डी बहल को भारतीय परंपरा के तिलिस्मी उपन्यासों की जानकारी नहीं है। यह एक तिलिस्मी कहानी है, जिसे व्यर्थ ही आधुनिक परिवेश देने की कोशिश की गई। द्रोण एक ऐसे युवक की कहानी है, जिसके कंधे पर सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक विश्व को सर्वनाश से बचाने की जिम्मेदारी है। उसका नाम आदित्य है। वह राजस्थान के राजघराने की संतान है। उसकी मदद सोनिया करती है, क्योंकि सोनिया के परिवार पर द्रोण को बचाने की जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की भूमिका में आते ही दोनों वर्तमान से एक तिलिस

फ़िल्म समीक्षा:किडनैप

चूक गए संजय गढवी -अजय ब्रह्मात्मज संजय गढवी को इस फिल्म का नाम सबक रखना चाहिए था। उनकी पुरानी फिल्मों धूम और धूम 2 की तरह किडनैप का मुख्य किरदार भी निगेटिव है। इस फिल्म में पिछली दोनों फिल्मों का जादू नहीं है। कहीं वह जादू किसी और का तो नहीं था? इस फिल्म को लेकर बनी उत्सुकता चंद दृश्यों के बाद ठंडी हो जाती है और कई बार एकरसता का भी एहसास होता है। अमीर विक्रांत रैना अपने प्रभाव, जिद और अहंकार में एक अनाथ बच्चे को अपराधी ठहरा कर जेल की हवा खिला देता है। वह बच्चा अपनी गलती के लिए सारी भी नहीं बोल पाता। बाद में वही बच्चा विक्रांत रैना का अहंकार तोड़ता है और उन्हें यह सबक देता है कि जल्दबाजी में लिया गया उनका फैसला गलत था। इसके लिए वह उनकी बेटी सोनिया का इस्तेमाल करता है। वह उसे किडनैप कर लेता है। विक्रांत रैना को बेटी तक पहुंचने के लिए अपराध तक करने पड़ते हैं। फिल्म के आखिर में पूछे गए कबीर के सवाल विक्रांत रैना को झिंझोड़ देते हैं। फिल्म का विषय रोचक है लेकिन उसका विस्तार और निर्वाह नहीं हो सका। चूंकि घटनाएं एक ही जगह पर होती हैं इसलिए लेखकीय कल्पना और निर्देशक के दृश्य विधान की सीमाएं व

फ़िल्म समीक्षा:रामचंद पाकिस्तानी

पाकिस्तान से आई एक सहज फ़िल्म -अजय ब्रह्मात्मज पाकिस्तान की फिल्म रामचंद पाकिस्तानी पिछले कुछ समय से चर्चा में है। यह फिल्म विदेशों मेंकई फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है। इस फिल्म का महत्व सिनेमाई गुणवत्ता से अधिक इस बात के लिए है कि यह पाकिस्तानी सिनेमा में आ रहे बदलाव की झलक देती है। भारतीय दर्शकों ने कुछ समय पहले पाकिस्तान की खुदा के लिए देखी थी। इस बार मेहरीन जब्बार ने एक सच्ची घटना को लगभग ज्यों का त्यों फिल्मांकित कर दिया है। भारतीय सीमा के करीब रहने वाला रामचंद एक छोटी सी बात पर अपनी मां से नाराज होकर निकलता है। उसे अंदाजा नहीं रहता और वह भारतीय सीमा में प्रवेश कर जाता है। रामचंद को सीमा पार करते देख उसका पिता उसके पीछे भागता है। वह भी भारतीय सीमा में आ जाता है। भारत में सीमा पर तैनात सुरक्षा अधिकारी उन्हें गिरफ्तार कर लेते हैं। दोनों बाप-बेटे खुद को निर्दोष साबित करने में असफल रहते हैं। उन्हें जेल में डाल दिया जाता है। दोनों के नाम किसी रजिस्टर में नहीं दर्ज किए जाते। उन्हें अपनी एक छोटी सी भूल के लिए लगभग सात साल भारतीय जेल में रहना पड़ता है। उधर रामचंद की मां की जिंदगी बि

फ़िल्म समीक्षा:हम बाहुबली

औरों से बेहतर यह फिल्म भोजपुरी में बनी है। भोजपुरी सिनेमा ने पिछले कुछ सालों में हिंदी दर्शकों के बीच खास स्थान बना लिया है। हम बाहुबली भोजपुरी सिनेमा में आए उछाल का संकेत देती है। अनिल अजिताभ के निर्देशन में बनी यह फिल्म जाहिर करती है कि अगर लेखक-निर्देशक थोड़ा ध्यान दें और निर्माता पूरा सहयोग दें तो भोजपुरी फिल्मों की फूहड़ता खत्म हो सकती है। हम बाहुबली की कथाभूमि दर्शकों ने प्रकाश झा की फिल्मों में देखी है। इस समानता की वजह यह हो सकती है कि अनिल लंबे समय तक प्रकाश के मुख्य सहयोगी रहे। इसके अलावा हम बाहुबली के लेखन में शैवाल का सहयोग रहा। शैवाल ने प्रकाश के लिए दामुल और मृत्युदंड लिखी है। अपनी पहली फिल्म में अनिल अजिताभ उम्मीद जगाते हैं। उन्होंने बिहार के परिवेश को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित किया है और बाहुबली बनने के कारणों और परिस्थितियों को भी रखा है। हम बाहुबली भोजपुरी फिल्मों में प्रचलित नाच-गानों से नहीं बच पाई है। कुछ गाने ज्यादा लंबे हो गए हैं और वे कथा प्रवाह में बाधक बनते हैं। कलाकारों की बात करें तो दिनेश लाल निरहुआ की ऊर्जा प्रभावित करती है। अमर उपाध्याय खोए से दि

दरअसल:स्वागत है सज्जनपुर में

-अजय ब्रह्मात्मज माफ करें, स्तंभ का शीर्षक वेलकम टू सज्जनपुर का अनुवाद नहीं है। सज्जनपुर यहां उस विषय का द्योतक है, जिसे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हाशिए पर डाल रखा है। ग्लोबल होने के इस दौर में हिंदी सिनेमा ने गांव को भुला दिया है। लंबे समय से न गांव की गोरी दिखी और न ग्रामीण परिवेश। ठीक है कि पनघट की जगह नलकूप आ गए हैं और मोबाइल और मोटरसाइकिल गांव में पहुंच गए हैं, लेकिन भाषा, संस्कृति, लहजा, भावनाओं का ताना-बाना अब भी अलग है। गांव से जुड़ी सारी चीजों को देशज, ग्रामीण और डाउन मार्केट का दर्जा देकर दरकिनार करने का चलन बढ़ा है। याद करें कि पिछली बार कब आपने साइकिल देखी थी, पजामा पहने लोगों को देखा था, सिर पर आंचल रखे औरत देखी थी और खेत-खलिहान के साथ खपरैल घर। ..और कब डपोरशंख संबोधन सुना था? बातचीत में ग्रामीण लहजे को अभद्र और असभ्य माना जाता है। बातचीत में सहज रूप से आने वाली गालियों को अश्लील कहा जाता है और मुहावरे तो अब सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मजे की बात यह है कि देश का शिक्षित समाज इतनी तेजी से अपनी भाषाई संस्कृति और परंपराओं से कट रहा है कि आम बोलचाल में देशज शब्दों के अर्थ उस

बॉक्स ऑफिस:०२.१०.२००८

चल रही है वेलकम टू पिछले हफ्ते दो कामेडी फिल्में रिलीज हुई हरि पुत्तर और रफूचक्कर। बाक्स आफिस पर दोनों का प्रदर्शन बुरा रहा। दोनों ही फिल्मों से कोई उम्मीद नहीं थी। हरि पुत्तर नाम की वजह से विवादों में थी और लग रहा था कि बच्चों के लायक मनोरंजक फिल्म होगी, लेकिन बच्चे इसे देखने ही नहीं गए। लकी कोहली और राजेश बजाज निर्देशित यह फिल्म इतनी बुरी थी कि इसे दर्शक नहीं मिले। रफूचक्कर का हाल हरि पुत्तर से भी बुरा रहा। कामेडी के नाम पर बनी इन दोनों फिल्मों को वेलकम टू सज्जनपुर के सामने रखकर देख लें तो पता चल जाएगा कि दर्शक क्या देखना चाहते हैं? वेलकम टू सज्जनपुर उम्मीद से बेहतर व्यवसाय कर रही है। न तो इसकी भाषा आड़े आ रही है और न ही फिल्म के छोटे कलाकार मनोरंजन में अड़चन बन रहे हैं। यह फिल्म मल्टीप्लेक्स के साथ-साथ सिंगल स्क्रीन में भी चल रही है। छोटे शहरों में तो इस फिल्म का व्यवसाय उल्लेखनीय है। पटना, भोपाल और लखनऊ में इसे देखने दर्शक उमड़ रहे हैं। वेलकम टू सज्जनपुर हिंदी फिल्म की पुरानी परंपरा को फिर से जीवित कर गई है। इससे पहले की फिल्मों में रॉक ऑन और वेडनेसडे अभी तक सिनेमाघरों में टिकी हुई