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दरअसल:डीवीडी का बदलता स्वरूप

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले कुछ समय से डीवीडी बाजार में तेजी से बदलाव आया है। नई कंपनियों ने दर्शकों की जरूरतों को समझते हुए मार्केटिंग में सुधार के साथ प्रोडक्ट को भी नया रूप दिया है। अब व‌र्ल्ड और इंडियन क्लासिक फिल्मों के सस्ते और महंगे डीवीडी आ गए हैं। कई कंपनियां बाजार में सक्रिय हैं और दर्शकों के विशेष समूह को अपना खरीददार बना रही हैं। हर डिर्पाटमेंटल और रिटेल स्टोर में डीवीडी और वीसीडी मिल रहे हैं। महानगरों में मल्टीप्लेक्स में नई फिल्मों की रिलीज रुकने से अचानक डीवीडी की मांग बढ़ी है। मुंबई के रिटेल स्टोर में डीवीडी की बिक्री में 10 से 25 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। दरअसल, मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने नए दर्शक बनाए हैं। शहरों में पांच-छह दिनों की मशक्कत के बाद वीकएंड में मनोरंजन का सिलसिला बढ़ा है। वीकएंड में हर मल्टीप्लेक्स में ऐसे दर्शकों की तादाद बढ़ जाती है। इन दर्शकों ने ही फिल्म बिजनेस का गणित बदला है। फिल्म इंडस्ट्री धीरे-धीरे वीकएंड बिजनेस पर निर्भर होती गई है। बड़े निर्माता और प्रोडक्शन हाउस नई फिल्मों के वीकएंड बिजनेस को सुनिश्चित करने के लिए दमदार और धुआंधार प्रचार करते हैं।

हिन्दी टाकीज:बार-बार याद आते हैं वे दिन-आनंद भारती

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हिन्दी टाकीज-३४ पत्रकारों और लेखों के बीच सुपरिचित आनंद भारती ने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया.उन्होंने पूरे मनोयोग से यह संस्मरण लिखा है,जिसमें उनका जीवन भी आया है.हिन्दी टाकीज के सन्दर्भ में वे अपने बारे में लिखते हैं...बिहार के एक अविकसित गांव चोरहली (खगड़िया) में जन्‍म। यह गांव आज भी बिजली, पक्‍की सड़क की पहुंच से दूर है। गांव भी नहीं रहा, कोसी नदी के गर्भ में समा गया। बचपन से ही यायावरी प्रवृत्ति का था। जैसे पढ़ाई के लिए इस ठाम से उस ठाम भागते रहे,उसी तरह नौकरी में भी शहरों को लांघते रहे। हर मुश्किल दिनों में फिल्‍मों ने साथ निभाया, जीने की ताकत दी। कल्‍पना करने के गुर सिखाए और सृजन की वास्‍तविकता भी बताई। फिल्‍मों का जो नशा पहले था, आज भी है। मुंबई आया भी इसीलिए कि फिल्‍मों को ही कैरियर बनाना है, यह अलग बात है कि धक्‍के बहुत खाने पड़ रहे हैं। अगर कहूं कि जिस जिस पे भरोसा था वही साथ नहीं दे रहे, तो गलत नहीं होगा। फिर भी संकल्‍प और सपने जीवित हैं। जागते रहो का राज कपूर, गाईड का देव आनंद प्‍यासा का गुरुदत्‍त, आनंद का राजेश खन्‍ना और अमिताभ बच्‍चन,तीसरी कसम के निर्माता शैलेंद्र, अंकु

रामू के रण में जन गण मन

जन गण मन रण है इस रण में ज़ख्मी हुआ है भारत का भाग्यविधाता पंजाब सिंध गुजरात मराठा एक दूसरे से लड़कर मर रहे हैं इस देश ने हमको एक किया हम देश के टुकड़े कर रहे हैं द्रविड़ उत्कल बंगा खून बहा कर एक रंग का कर दिया हमने तिरंगा सरहदों पे ज़ंग और गलियों में फसाद दंगा विन्ध हिमाचल यमुना गंगा में तेजाब उबल रहा है मर गया सब का ज़मीर जाने कब जिंदा हो आगे फिर भी तव शुभ नामे जागे तव शुभ आशीष मांगे आग में जल कर चीख रहा है फिर भी कोई सच को नहीं बचाता गाहे तव जय गाथा देश का ऐसा हाल है लेकिन आपस में लड़ रहे नेता जन गण मंगल दायक जय हे भारत को बचा ले विधाता जय है या यह मरण है जन गण मन रण है

कुछ खास:देव डी की रूपांतर प्रक्रिया-अनुराग कश्यप

अनुराग कश्यप ने पिछले दिनों पुणे में देव डी की रूपांतर प्रक्रिया के बारे में बात की थी.यह पोस्ट उसी की प्रस्तुति है... मसलन पारो के लौट के आने का सीन था। मैंने सीधा-सीधा पूछा उनसे कि ये लडक़ी लौट कर आती है, पारो, जो हुआ देव के साथ, देव ने उसे अपमानित किया और बाद में रियलाइज करता है, वो लौट कर आती है। देव जब बोलता है - यू मेक लव टू मी। सवाल था कि क्या वह उसके साथ सोएगी? लड़कियों ने कहा कि वह सोएगी और देव को ऐसा आनंद देगी कि वह जिंदगी भर याद रखे। फिर मैंने अपने दिमाग में सोचा कि उस सीन तक जाऊं की नहीं जाऊं? फिर मैंने मां से बात की। देवदास के बारे मुझे ऐसा लगता रहा है कि यह शरत बाबू का सबसे कमजोर उपन्यास है। साहित्य के लिहाज से,लेकिन सबसे ज्यादा रॉ और सबसे ज्यादा ईमानदार भी है कहीं न कहीं। शायद वे तब तक परिपक्व नहीं हुए थे, जब उन्होंने देवदास लिखी थी। देवदास मैंने बहुत पहले पढ़ी थी, जब मैं कालेज में था। उसके बाद मैंने कभी देवदास नहीं पढ़ी। फिल्म बनाने से पहले भी नहीं पढ़ी। कई चीजें आपको याद रह जाती हैं। और कई चीजें उतनी याद नहीं रहतीं। मैं जानबूझ कर उनसे परे रहना चाहता था। अभय देओल ने एक

लोकतंत्र का प्रचार

-अजय ब्रह्मात्मज फिल्म स्टारों के इस भ्रम को बाजार अपने स्वार्थ की वजह से मजबूत करता है कि लोकप्रिय सितारों की संस्तुति से उत्पादों की बिक्री बढ़ती है। हालांकि अभी तक इस बात को लेकर कोई ठोस शोध और सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है कि फिल्म स्टारों के विज्ञापन किसी उत्पाद की बिक्री में कितने प्रतिशत का उछाल लाते हैं? सार्वजनिक जीवन में फिल्म स्टारों की उपयोगिता बढ़ी है। जनहित के कई विज्ञापनों में फिल्म स्टारों का उपयोग किया जा रहा है। सारे लोकप्रिय और बड़े स्टार ऐसे विज्ञापनों को अपना सामाजिक दायित्व मानते हैं। इस बार चुनाव की घोषणा के साथ ही आमिर खान समेत फिल्म बिरादरी के अनेक सदस्यों ने सक्रियता दिखाई। वे विभिन्न संस्थाओं के जागरूकता अभियानों से जुड़े। सभी इस बात को लेकर निश्चित थे कि मतदाताओं को जागरूक बनाने में फिल्म स्टार सफल रहेंगे। कुछ सिने स्टारों ने इस दिशा में काफी प्रयास भी किया। उन्होंने वोट देने से लेकर प्रत्याशियों के चुनाव तक में सावधानी बरतने तक की सलाह दी। एड व‌र्ल्ड के पंडितों की मदद से श्लोक गढ़े गए और विभिन्न माध्यमों से उनका गुणगान किया गया। रेडियो, टीवी, अखबार, बैनर और पोस्ट

दरअसल:दक्षिण अफ्रीका और मिस बॉलीवुड

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-अजय ब्रह्मात्मज यह आईपीएल के संयोजक और द्रष्टा ललित मोदी के दिमाग की उपज हो सकती है। साउथ अफ्रीका में चल रहे आईपीएल-2 के लीग मैचों में स्टेडियम के अंदर दर्शकों को बुलाने और बिठाने की उन्होंने आकर्षक तरकीब सोची। उन्होंने विभिन्न टीमों के मालिकों के साथ मिल कर मिस बॉलीवुड के चुनाव की घोषणा कर दी। ऐसा माना जा रहा है कि मिस बॉलीवुड चुने जाने की आकांक्षा से कई लड़कियां मैच देखने आ रही हैं और वे अपने साथ मित्र और परिजनों को भी 20-20 का रोमांचक क्रिकेट मैच देखने के लिए बाध्य कर रही हैं। आंकड़ों और आमदनी के ब्यौरों में 5 से 10 प्रतिशत के फर्क से संख्या और राशि बढ़ जाती है। चूंकि आईपीएल में शाहरुख खान, प्रीति जिंटा और शिल्पा शेट्टी की भागीदारी है, इसलिए उनकी मौजूदगी से मिस बॉलीवुड के प्रति विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मित्र और परिजनों के साथ आईपीएल देखने आ रहीं लड़कियां उम्मीद कर सकती हैं कि अगर वे कैमरे की गिरफ्त में आ गई, तो मिस बॉलीवुड बन सकती हैं। मिस बॉलीवुड की विजेता को मिलने वाली राशि से अधिक महत्वपूर्ण फिल्म में काम मिलना है। हिंदी फिल्मों में काम पाने के लिए आतुर लड़कियों को आईपीएल-2 ने ए

बेखौफ और स्टाइलिश फिरोज खान

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जन्म- 25 सितंबर 1939 मृत्यु- 27 अप्रैल 2009 फिरोज खान का नाम सुनते ही एक आकर्षक, छरहरे और जांबाज जवान का चेहरा रूपहले पर्दे पर चलता-फिरता दिखाई पड़ने लगता है। बूट, हैट, हाथ में रिवॉल्वर, गले में लाकेट, कमीज के बटन खुले हुए,ऊपर से जैकेट और शब्दों को चबा-चबा कर संवाद बोलते फिरोज खान को हिंदी फिल्मों का काउब्वाय कहा जाता था। हालीवुड में क्लिंट ईस्टवुड की जो छवि थी, उसका देशी रूपांतरण थे फिरोज खान। नरेन्द्र बेदी की फिल्म खोटे सिक्के में बगैर नाम का किरदार निभाते हुए उन्होंने दर्शकों का दिल जीता। उसी फिल्म का गीत जीवन में डरना नहीं, सर नीचे कभी करना नहीं उनकी जीवन शैली का परिचायक गीत बन गया। तीन साल पहले छोटे भाई अकबर खान की फिल्म ताजमहल के पाकिस्तान प्रीमियर के मौके पर वे हिंदी फिल्म बिरादरी की टीम के साथ पाकिस्तान गए थे। वहां एक प्रसंग में उन्होंने पुरजोर तरीके से ताकीद की कि भारत एक सेक्युलर देश है। वहां सिख प्रधानमंत्री और मुसलमान राष्ट्रपति हैं, जबकि पाकिस्तान मुसलमानों के नाम पर बना था और यहां मुसलमान ही मुसलमान को मार रहे हैं। मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है। उनकी मुखरता पाकिस्तान क

हिन्दी टाकीज:वो ख्वाबों के दिन, वो फिल्मों के दिन-ज़ेब अख्तर

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हिन्दी टाकीज-३३ ज़ेब अख्तर रांची में रहते हैं. वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फिलहाल प्रभात ख़बर में फीचर संपादक हैं। व्यवसाय छोड़ कर पत्रकारिता में आए ज़ेब अख्तर साफ़ दिल और सोच के लेखक हैं. चवन्नी ने इधर किसी पत्रकार की ऐसी खनकती हँसी नहीं सुनी। हिन्दी और उर्दू में सामान रूप से लिखते हैं.उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। एक शोध पुस्तक भी प्रकाशित है। ज़ेब अख्तर फिल्मों के लिए लिखना चाहते हैं। वे लीक से हट कर कुछ फिल्में लिखना चाहते हैं। जब होश संभाला तब टीवी भी नहीं था, छोटे शहर में होने के कारण सिनेमा ही मनोरंजन का एक मात्र साधन हुआ करता था। पिताजी थे तो सख्त लेकिन इतना जानते थे कि जरूरत से ज्यादा कड़ा होना नुकसान पहुंचा सकता है। सो इस मामले में उन्होंने थोड़ी छूट दे रखी थी। गोया गीत गाता चल, हम किसी से कम नहीं, आलम आरा, नहले पे दहला, शोले, मुगल- ए- आजम जैसी फिल्में देखने के लिए हमें इजाजत मिल जाती थीं। लेकिन मन इतने से कहां मानने वाला था। हम तो सभी फिल्में देखना चाहते थे। इसलिए स्कूल से गैरहाजिर होना जरूरी था। क्योंकि रविवार के दिन हम उर्दू पढ़ने मदरसा जाते थे। वहां से गैरहाजिर

जब वी वोट-इम्तियाज़ अली

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मैं बिहार का रहने वाला हूं। राजनीति की समझ रखता हूं। मुझे देश-दुनिया की खबर रहती है। इस बार मुझे वोट को लेकर मतदाता में जागरूकता दिख रही है। यंग इंडिया का नारा मुझे अच्छा लगता है। चुनाव के समय एक जोशीला माहौल है। अलग-अलग माध्यमों से वोट और प्रत्याशियों के बारे में बताया जा रहा है। ऐसे ही एक माध्यम से मैंने अपना पंजीकरण किया है। मुझे खुशी है कि इस बार मैं मुंबई में वोट दूंगा। मुंबई और दिल्ली में रहते हुए मैंने महसूस किया है कि बड़े शहरों में युवकों को राजनीति की सही समझ नहीं है। वे इसके प्रति उदासीन रहते हैं। इस बार चल रहे विभिन्न संस्थाओं के अभियानों से उनके बीच थोड़ी सुगबुगाहट दिख रही है। वे सभी वोट देंगे तो देश की राजनीति बदलेगी। मुझे लगता है कि किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना चाहिए। सरकार कोई भी बनाए लेकिन किसी एक पार्टी की बने ताकि वह कुछ काम कर सके। ऐसी सरकार से बाद में सवाल भी पूछे जा सकते हैं। इस चुनाव में कुछ पार्टियों में मुझे नेतृत्व संकट दिख रहा है। बड़े नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। नेतागण मुद्दों की बात छोड़ कर व्यक्तिगत आाक्षेप लगाने लगते हैं। लोकतंत्र के

प्रेम,अश्लीलता और युवा दर्शकों की पसंद-महेश भट्ट

बडे होने की उम्र में मैं अश्लील शब्द से अच्छी तरह परिचित था। अश्लील शब्द होते थे, अश्लील फिल्में होती थीं, लतीफे होते थे, गीत और नृत्य होते थे, अश्लील भाव मुद्राएं होती थीं और कपडे भी होते थे। उन दिनों हमारे शिक्षक स्कूल में तंग पैंट पहन कर आने पर डांटते थे और उन्हें बदलने के लिए वापस घर भेज देते थे। अगर आप स्कूल में कमीज के बटन खोलकर घूमते दिख गए तो प्रिंसिपल आपके मां-बाप को बुला कर बताते थे कि आप अनुशासित नहीं हैं। उन दिनों गुमनाम फिल्म में महमूद का गाया अति लोकप्रिय गीत हम काले हैं तो क्या हुआ अश्लील माना गया था, जबकि वह गीत युवकों के बीच बेहद प्रचलित था। यानी युवा वर्ग को जो भी पसंद हो, वह बुजुर्गो के हिसाब से अश्लील होता था। बदलीं परिभाषाएं अब मैं उम्र के छठे दशक में हूं। मैं बच्चों को उंगली दिखाते हुए डांटता हूं कि तुम्हें वह फिल्म कैसे पसंद आ गई? वह तो अश्लील है। मुझे याद आता है कि मेरे माता-पिता मुझे भी ऐसे ही उंगली दिखा कर डांटते थे। क्या अश्लील है उसमें? कुछ भी तो नहीं? आजकल के बच्चे पलट कर जवाब देते हैं। हम लोग अपने समय में अभिभावकों की ऐसी डांट-फटकार सुनने के बाद चुप हो जात