Posts

पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस

- चण्डीदत्त शुक्ल दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे से जुड़ी चण्डीदत्त शुक्ल की भी एक याद. यूपी के गोंडा ज़िले में जन्मे चण्डीदत्त की ज़िंदगी अब दिल्ली में ही गुज़र रही है. लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने , दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण , नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे. अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. लिखने-पढ़ने का वक्त नहीं मिलता , लेकिन जुनून बरकरार है. एक्टिंग , वायस ओवर , एंकरिंग का शौक है. सुस्त से ब्लागर भी हैं. इनका ब्लॉग है... www.chauraha1.blogspot.com .. इनसे chandiduttshukla@gmail.com पर भी मुलाकात की जा सकती है. 20 अक्टूबर , 1995. पक्का यही तारीख थी...याद इसलिए नहीं कि इस दिन डीडीएलजे देखी थी...भुलाइ इसलिए नहीं भूलती , क्योंकि इसी तारीख के ठीक पांच दिन बाद सलीम चच्चा ने पहली बार इतना ठोंका-पीटा-कूटा-धुना-पीसा था कि वो चोट अब भी सर्दी में ताज़ा हो जाती है...। हुआ यूं कि सलीम चच्चा बीज के लिए लाया पैसा अंटी में छुपाए थे औ

आज चौदह की हुई दिलवाले दुल्हनियां

-विनीत कुमार डीडीडीएलजे यानी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे,मां के साथ देखी गयी मेरी आखिरी फिल्म। आज इस फिल्म के रिलीज हुए चौदह साल हो गए। इस फिल्म के बहाने अगर हम पिछले चौदह साल को देखना-समझना चाहें तो कितना कुछ बदल गया,कितनी यादें,कितनी बातें,बस यों समझिए कि अपने सीने में संस्मरणों का एक पूरा का पूरा पैकेज दबाए इस दिल्ली शहर में जद्दोजहद की जिंदगी खेप रहे हैं। पर्सनली इसे मैं अपनी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट मानता हूं । मां के साथ देखी गयी ये आखिरी फिल्म थी जिसे कि मैंने रत्तीभर भी इन्ज्वॉय नहीं किया। आमतौर पर जिस भी सिनेमा को मैंने मां के साथ देखा उसमें सिनेमा के कथानक से सटकर ही मां के साथ के संस्मरण एक-दूसरे के समानांतर याद आते हैं। कई बार तो मां के साथ की यादें इतनी हावी हो जाया करतीं हैं कि सिनेमा की कहानी धुंधली पड़ जाती है लेकिन डीडीएलजे के साथ मामला दूसरा ही बनता है। इतनी अच्छी फिल्म जिसे कि मैंने बाद में महसूस किया,मां के साथ देखने के दौरान मैंने तब तीन बार कहा था-चलो न मां,बुरी तरह चट रहे हैं। वो बार-बार कहती कि अब एतना तरद्दुत करके,पैसा लगाके आए हैं त बीच में कैसे उठ के चल जाएं

फिल्‍म समीक्षा : आल द बेस्ट

हीरो और डायरेक्टर के बीच समझदारी हो और संयोग से हीरो ही फिल्म का निर्माता भी हो तो देखने लायक फिल्म की उम्मीद की जा सकती है। इस दीवाली पर आई ऑल द बेस्ट इस उम्मीद पर खरी उतरती है। हालांकि रोहित शेट्टी गोलमाल और गोलमाल रिटंर्स से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। लेकिन जब हर तरफ हीरो और डायरेक्टर फिसल रहे हों, उस माहौल में टिके रहना भी काबिले तारीफ है। आगे बढ़ने के लिए रोहित शेट्टी और अजय देवगन को अब बंगले की कॉमेडी से बाहर निकलना चाहिए। वीर म्यूजिशियन है। वह खुद का म्यूजिक बैंड बनाना चाहता है। वीर विद्या से प्यार करता है और अपनी बेकारी के बावजूद दोस्त प्रेम की मदद भी करता है। प्रेम का सपना कांसेप्ट कार बनाना है। वीर का एनआरआई भाई उसे हर महीने एक मोटी रकम भेजता है। भाई से ज्यादा पैसे लेने के लिए प्रेम की सलाह पर वीर भाई को झूठी जानकारी देता है कि उसने विद्या से शादी कर ली है। इस बीच वीर और प्रेम एक और मुसीबत में फंस जाते हैं। रेस के जरिए रकम को पचास गुना करने के चक्कर में वे मूल भी गंवा बैठते हैं। पैसे लौटाने के लिए वे बंगला किराए पर देते हैं। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है कि अचानक विदेश में रह रहा

दरअसल:बिग बॉस अमिताभ बच्चन

Image
-अजय ब्रह्मात्मज लोकप्रियता की ऊंचाई के दिनों में अमिताभ बच्चन की औसत और फ्लॉप फिल्में भी दूसरे हीरो की सफल फिल्मों से ज्यादा बिजनेस करती थीं। शो बिजनेस का पुराना दस्तूर है। यहां जो चलता है, खूब चलता है। अगर कभी रुक या ठहर जाता है, तो फिर उसे कोई नहीं पूछता। अमिताभ बच्चन के करियर में ऐसा दौर भी आया था। अमिताभ बच्चन नाम से फिल्म इंडस्ट्री को एलर्जी हो गई थी, लेकिन मोहब्बतें और कौन बनेगा करोड़पति के बाद वे फिर केंद्र में आ गए। उन्होंने करियर के उत्तरा‌र्द्ध में धमाकेदार मौजूदगी से फिल्म और टीवी के मनोरंजन की परिभाषा बदल दी। मानदंड ऊंचे कर दिए हैं। आज भी उनके व्यक्तित्व का चुंबकीय आकर्षण दर्शकों को अपनी ओर खींचता है। इसीलिए बिग बॉस तृतीय की टीआरपी ने पिछले दोनों सीजन के रिकॉर्ड तोड़ दिए। अब समस्या होगी कि बिग बॉस चतुर्थ की योजना कैसे बनेगी? अमिताभ बच्चन की लोकप्रिय मौजूदगी और टीआरपी के बावजूद बिग बॉस तृतीय में जोश और रवानी की कमी महसूस हो रही है। 68 साल के हो चुके अमिताभ बच्चन की प्रस्तुति में ढलती उम्र की थकान झलक रही है। टीवी शो में मेजबान का स्वर थोड़ा ऊंचा रहता है और ओवर द बोर्ड परफार

हिन्‍दी टाकीज-सिनेमा ने मुझे कुंठाओं से मुक्‍त किया-श्रीधरम

Image
हिन्‍दी टाकीज-49 श्रीधरम झंझारपुर के मूल निवासी हैं। इन दिनों दिल्‍ली में रहते हैं । हिन्‍दी और मैथिली में समान रूप से लिखते हैं। उनकी कुछ किताबें आ चुकी हैं। कथादेश और बया जैसी पत्रिकाओं के संपादन से भी जुड़े हैं। बात-व्‍यवहार में स्‍पष्‍ट श्रीधरम मानते हैं कि सिनेमा ने उन्‍हें बचा लिया और नया स्‍वरूप दिया । मेरा बचपन गाँव में बीता और तब तक गाँवों में सिनेमा हॉल नहीं खुले थे। अब तो गाँव में भी बाँस की बल्लियों वाले सिनेमा हॉल दिखाई पड़ते हैं। बचपन में पहली फिल्म पाँच-सात साल की उम्र में ‘ क्रांति ’ देखी थी जिसकी धुंधली तस्वीर बहुत दिनों तक मेरा पीछा करती रही , खासकर दौड़ते हुए घोड़े की टाप...। यह फिल्म भी गंगा मैया की , कृपा से देख पाया था। घर की किसी बुजुर्ग महिला ने मेरे धुँघराले बालों को गंगा मैया के हवाले करने का ‘ कबुला ’ किया था और इसीलिए माता-पिता हमें लेकर ‘ सिमरिया ’ गए थे। वहाँ से लौटते हुए दरभंगा में अपनी मौसी के यहाँ हम लोग रुके और उन्हीं लोगों के साथ हमने क्रांति देखी थी। मेरे लिए यह ऐतिहासिक दिन था जब मेरे मन में फिल्म-दर्शन-क्रांति का बीज बोया गया। तब ‘ दरभंगा ’ मेरे लि