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हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति

हिन्दी टाकीज-४५ चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान... bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्य

शर्मीले, नुकीले और हठीले विशाल की कमीने

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-अजय ब्रह्मात्मज कम लोग जानते हैं कि विशाल भारद्वाज ने पहली फिल्म की प्लानिंग अजय देवगन के साथ की थी। शायद इसी वजह से अगला मौका मिलते ही अजय देवगन ने विशाल भारद्वाज के निर्देशन में ओमकारा की। विशाल ने मकड़ी और मकबूल बनायी। इस बार विशाल भारद्वाज ने फिल्म का शीर्षक ही कमीने रख दिया है। कमीने विशाल भारद्वाज का ओरिजनल आइडिया नहीं है। उन्होंने नैरोबी के एक लेखक से इसे खरीदा है। उन्होंने अपने जीवन के अनुभव इसमें जोड़े हैं और इस समकालीन भारत की फिल्म बना दिया है। शहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा इसे अपने करिअर की श्रेष्ठ फिल्म कह रहे हैं। उम्मीद करें कि वे आदतन यह नहीं कह रहे हों। शर्मीले,नुकीले और हठीले विशाल भारद्वाज फिलहाल इस बात से दुखी हैं कि उनकी फिल्म को यूए सर्टिफिकेट नहीं मिला है। वे चाहते हैं कि उनकी फिल्म कमीने सभी देखें, लेकिन सेंसर से ए सर्टिफिकेट मिलने की वजह से उनके दर्शक कम हो जाएंगे। चाहे-अनचाहे वे विवादों में भी फंसे हैं। कहा जा रहा है कि यह फिल्म आमिर खान और सैफ अली खान ने रिजेक्ट कर दी थी। विशाल सफाई देते फिर रहे हैं। इतना ही नहीं पापुलर हुए गीत, धन दे तान.. की लोकप्रियता का श्र

पाकिस्तान से आए हुमायूँ सईद

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों एक फिल्म आई जश्न। महेश भट्ट की इस फिल्म में शहाना गोस्वामी ने अपने अभिनय से एक बार फिर लोगों को लुभाया। उनके साथ अमन बजाज की भूमिका में लोगों ने एक नए ऐक्टर को देखा। उसने अपने अभिनय से अमन बजाज के निगेटिव रोल को रिअॅल बना दिया। उसका नाम है हुमायूं सईद। हुमायूं करांची के हैं। वे पाकिस्तान के निहायत पापुलर ऐक्टर हैं। एक्टिंग के साथ टीवी प्रोडक्शन में भी उनका बड़ा नाम है। जश्न की रिलीज के वक्त वे भारत आए थे। फिल्म के प्रस्तोता महेश भट्ट से उनकी जानकारी लेने के बाद जब मैंने उनसे संपर्क किया, तो उन्हें ताज्जुब हुआ कि भला उनमें किसी की रुचि क्यों होगी? बहरहाल वे अगले दिन मिले। अपनी बीवी के साथ मुंबई आए हुमायूं के लिए यह खास मौका था, जब भारतीय मीडिया ने उनके काम की तारीफ की। इस तारीफ से उनके हौसले बढ़े हैं। अगर फिल्मों के मौके मिले, तो दूसरी फिल्में भी करेंगे। हुमायूं पाकिस्तान में बेहद पापुलर हैं। उन्होंने जब जश्न के लिए महेश भट्ट को हां कहा, तो पाकिस्तानी अखबारों में यह खबर फैल गई। कुछ आलोचकों ने लिखा कि देखें हुमायूं को कैसा रोल मिलता है? हुमायूं इस आशंका की प

फ़िल्म समीक्षा:तेरे संग;चल चलें;अज्ञात

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सतीश कौशिक का बेहतर अभिनय तेरे संग किशोरावस्था के प्रेम और गर्भ जैसी जरूरी सामाजिक समस्या पर केंद्रित सतीश कौशिक की तेरे संग कमजोर पटकथा और हीरो-हीरोइन के साधारण अभिनय के कारण आवश्यक प्रभाव नहीं डाल पाती। इस विषय पर विदेशों में सुंदर, मार्मिक और भावपूर्ण फिल्में बन चुकी हैं। माही (15 वर्ष की लड़की) और कबीर (17 वर्ष का लड़का) की इस प्रेम कहानी में फिल्मी संयोग, घटनाओं और प्रसंगों की भरमार है। माही और कबीर डिफरेंट बैकग्राउंड के किशोर हैं। उनका मिलना-जुलना, दोस्ती होना और फिर शैंपेंन के नशे में हमबिस्तर होना..। ये सारे प्रसंग अतार्किक और शुद्ध फिल्मी हैं। सतीश कौशिक से ऐसी कमजोर कोशिश की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रूसलान मुमताज और शीना शाहाबादी अभी अभिनय के ककहरे से अपरिचित हैं। उनमें बाल कलाकारों की मौलिक स्वाभाविकता भी नहीं बची है। वे सिर्फ सुंदर और मासूम दिखते हैं। तेरे संग सतीश कौशिक के लिए देखी जा सकती है। कबीर के निम्नमध्यवर्गीय पिता की भूमिका उन्होंने पुरअसर तरीके से निभाई है। सराहनीय प्रयास चल चलें युवा निर्देशक उज्जवल सिंह ने सीमित बजट में एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाने की कोशिश की है।

दरअसल:ब्लॉग से ट्विटर तक

-अजय ब्रह्मात्मज अमिताभ बच्चन दुनिया में कहीं भी रहें, वे नियमित रूप से ब्लॉग लिखते हैं। बीमारी के चंद दिनों को छोड़ दें, तो वे रोजाना एक पोस्ट करते हैं। उनके पोस्ट में मुख्य रूप से घर-परिवार की बातें, शूटिंग चर्चा, मीडिया की आलोचना और दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार रहते हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग के पाठक को विस्तारित परिवार की संज्ञा दी है। वे उनकी राय, आलोचना और टिप्पणियों पर गौर करते हैं। अपने पाठकों के प्रति वे जितने मृदु हैं, मीडिया के प्रति उतने ही कटु। अगर किसी ने कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया, तो वे ब्लॉग पर उसका जिक्र करते हैं। मीडिया के रवैये और व्यवहार पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसके बावजूद उनका ब्लॉग पठनीय होता है। इधर रामगोपाल वर्मा नियमित हो गए हैं। उनकी फिल्में और व्यक्तित्व की तरह उनका ब्लॉग भी थोड़ा रहस्यपूर्ण और अनिश्चित है। उनके ब्लॉग की कोई निश्चित रूपरेखा नहीं है। अपने जीवन के अंश, अनुभव और फिल्मों के अलावा इन दिनों वे सिनेमा के तकनीकी पक्षों की भी बात कर रहे हैं। उनके ब्लॉग पर पाठकों के सवाल के दिए गए जवाब रूखे और बेलाग होते हैं। उन्हें पढ़ते हुए मजा आता है। साथ ही

पढ़े गए चवन्नी के एक लाख (१,००,०००) पृष्ठ

चवन्नी के पढ़े गए पृष्ठों की संख्या एक लाख से अधिक हो गई है.चवन्नी को नहीं मालूम कि इसका कोई महत्त्व है या नहीं? चवन्नी को यही खुशी है कि आप उसे पढ़ते हैं.ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत के सहयोग से यह सम्भव हुआ है.आजकल कुछ पाठक सीधे आते हैं.उन्होंने सीधी राह पकड़ ली है.कल तो घोर आश्चर्य हुआ.अचानक चवन्नी ने पाया कि उसके भारतीय पाठकों की संख्या अमेरिकी पाठकों से कम हो गई.अब आप की बधाई और सुझावों का इंतज़ार है.

एक तस्वीर:पहचानें कौन?

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हिन्दी फिल्मों में मौके मिल रहे हैं-आर माधवन

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-अजय ब्रह्मात्मज आर माधवन का ज्यादातर समय इन दिनों मुंबई में गुजरता है। चेन्नई जाने और दक्षिण की फिल्मों में सफल होने के बावजूद उन्होंने मुंबई में अपना ठिकाना बनाए रखा। अगर रहना है तेरे दिल में कामयाब हो गयी रहती, तो बीच का समय कुछ अलग ढंग से गुजरा होता। बहरहाल, रंग दे बसंती के बाद आर माधवन ने मुंबई में सक्रियता बढ़ा दी है। फोटोग्राफर अतुल कसबेकर के स्टूडियो में आर माधवन से बातचीत हुई। आपकी नयी फिल्म सिकंदर आ रही है। कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में क्या खास है? सिकंदर दो बच्चों की कहानी है। कश्मीर के हालात से हम सभी वाकिफ हैं। वहां बच्चों के साथ जो हो रहा है, जिस तरीके से उनकी मासूमियत छिन रही है। इन सारी चीजों को थ्रिलर फार्मेट में पेश किया गया है। वहां जो वास्तविक स्थिति है, उसका नमूना आप इस फिल्म में देख सकेंगे। क्या इसमें आतंकवाद का भी उल्लेख है? हां, यह फिल्म आतंकवाद की पृष्ठभूमि में है। आतंकवाद से कैसे लोगों की जिंदगी तबाह हो रही है, लेकिन लंबे समय सेआतंकवाद के साए में जीने के कारण यह उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। उन्हें ऐसी आदत हो गयी है कि लाश, हत्या या

फ़िल्म समीक्षा:लव आज कल

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शाश्वत प्यार का अहसास **** -अजय ब्रह्मात्मज इम्तियाज अली निर्देशित लव आज कल बीते कल और आज की प्रेम कहानी है। 1965 और 2009 के किरदारों के जरिए इम्तियाज अली एक बार फिर साबित करते हैं कि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्रेम ज्ञान है, आख्यान है, व्याख्यान है। यही हिंदी फिल्मों का दर्शन है। रोमांटिक हिंदी फिल्मों में हमेशा से पटकथा प्यार और उसके विशुद्ध अहसास पर केंद्रित रहती है। हर पीढ़ी का निर्देशक अपने नजरिए से प्यार को परिभाषित करने का प्रयास करता है। इम्तियाज अली ने 2009 के जय और मीरा के माध्यम से यह प्रेम कहानी कही है, जिसमें 1965 के वीर और हरलीन की प्रेम कहानी एक रेफरेंस की तरह है। इम्तियाज अली नई पीढ़ी के निर्देशक हैं। उनके पास सुघढ़ भाषा और संवेदना है। अपनी पिछली फिल्मों सोचा न था और जब वी मेट से दमदार दस्तक देने के बाद लव आज कल के दृश्यों और प्रसंगों में इम्तियाज के कार्य कुशलता की छाप स्पष्ट नजर आती है। हिंदी फिल्मों में हम फ्लैशबैक देखते रहे हैं। लव आज कल में फ्लैशबैक और आज की कहानी साथ-साथ चलती है, कहीं कोई कंफ्यूजन नहीं होता। न सीन डिजाल्व करने की जरूरत पड़ती है और न कहीं

दरअसल:नौ साल की बच्ची के ख्वाब

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-अजय ब्रह्मात्मज रुबीना अली ज्यादा परिचित नाम नहीं लगता, लेकिन स्लमडॉग मिलेनियर के साथ इस नाम को जोड़ दें, तो कम से कम शहर के लोग इस नाम और चेहरे को जरूर पहचान जाएंगे। रुबीना मुंबई के बांद्रा इलाके में स्थित गरीब नगर झोंपड़पट्टी की बच्ची है। उसने स्लमडॉग मिलेनियर में काम किया था और इसी के सिलसिले में वह ऑस्कर के रेड कार्पेट पर घूम आई। तब से वह और उसका साथी कलाकार अजहर सुर्खियों में है। कभी उनके झोंपड़े गिराए जाते हैं, तो कभी उन्हें फ्लैट मिल जाते हैं। कभी कोई उनकी पढ़ाई का खर्चा उठाने को तैयार मिलता है, तो कभी कुछ और कभी कुछ और। हाल ही में रुबीना अली की आत्मकथा प्रकाशित हुई है। रुबीना अभी ठीक से लिखना-पढ़ना नहीं जानती.., वह ठीक से बोल भी नहीं पाती है, लेकिन उसकी आत्मकथा छपकर आ गई है। मालूम नहीं कि अपनी आत्मकथा में लिखे शब्द और वाक्यों का वह सही मतलब समझती भी है या नहीं? आत्मकथा के आखिरी अध्याय में रुबीना ने बताया है कि एक फ्रांसीसी प्रकाशक ने मेरी जीवनी में रुचि दिखाई। मुझे भी अच्छा लगा, क्योंकि मैं अपनी जिंदगी के बारे में लोगों को बता सकूंगी कि मैं क्या हूं? झोंपड़पट्टी की बच्ची रुबीन

डेली रूटीन से ऊब जाता हूं: सैफ अली खान

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-अजय ब्रह्मात्मज छोटे नवाब के नाम से मशहूर सैफ अली खान अब निर्माता बन गए हैं। उनके प्रोडक्शन हाउस इलुमिनाती फिल्म्स की पहली फिल्म लव आज कल इस शुक्रवार को रिलीज हो रही है। फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली हैं और हीरोइन दीपिका पादुकोण हैं। लव आज कल की रिलीज के पहले खास बातचीत। आप उन खास और दुर्लभ बेटों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी मां के प्रोफेशन को अपनाया। ज्यादातर बेटे पिता के प्रोफेशन को अपनाते हैं? मेरी मां भी दुर्लभ एवं खास हैं। इस देश में कितनी मां हैं, जो किसी प्रोफेशन में हैं। मैं तो कहूंगा कि मेरी मां खास और दुर्लभ हैं। एक सुपर स्टार और मां ... ऐसा रोज नहीं होता। मेरी मां निश्चित ही खास हैं। उन्होंने दोनो जिम्मेदारियां बखूबी निभाई। मां के प्रोफेशन में आने की क्या वजह है? बचपन में मुझे क्रिकेट का शौक था। कुछ समय खेलने के बाद मुझे लग गया था कि मैं देश का कैप्टन नहीं बन सकता। इतना टैलेंट भी नहीं था। पढ़ाई में मेरी रुचि नहीं थी। कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती थी। फिल्मों के बारे में सोचा तो यह बहुत ही एक्साइटिंग लगा। फिल्मों में नियमित बदलाव होता रहता है। रोल बदलते हैं, लोकेशन बदलते हैं

फ़िल्म समीक्षा:लक

-अजय ब्रह्मात्मज माना जाता है कि हिंदी फिल्मों के गाने सिर्फ 200 शब्दों को उलट-पुलट कर लिखे जाते हैं। लक देखने के बाद फिल्म के संवादों के लिए भी आप यही बात कह सकते हैं। सोहम शाह ने सिर्फ 20 शब्दों में हेर-फेर कर पूरी फिल्म के संवाद लिख दिए हैं। किस्मत, फितरत, तकदीर, गोली, मौत और जिंदगी इस फिल्म के बीज शब्द हैं। इनमें कुछ संज्ञाएं और क्रियाएं जोड़ कर प्रसंग के अनुसार संबोधन बदलते रहते हैं। यूं कहें कि सीमित शब्दों के संवाद ही इस ढीली और लोचदार स्कि्रप्ट के लिए आवश्यक थे। अगर दमदार डायलाग होते तो फिल्म के एक्शन से ध्यान बंट जाता। सोहम की लक वास्तव में एक टीवी रियलिटी शो की तरह ही है। बस, फर्क इतना है कि इसे बड़े पर्दे पर दिखाया जा गया है। इसमें टीवी जैसा रोमांच नहीं है, क्योंकि हमें मालूम है कि अंत में जीत हीरो की ही होनी है और उसकी हीरोइन किसी भी सूरत में मर नहीं सकती। वह बदकिस्मत भी हुई तो हीरो का लक उसकी रक्षा करता रहेगा। रियलिटी शो के सारे प्रतियोगी एक ही स्तर के होते हैं। समान परिस्थितियों से गुजरते हुए वे जीत की ओर बढ़ते हैं। इसलिए उनके साथ जिज्ञासा जुड़ी रहती है। बड़े पर्दे पर के

आत्मकथा नहीं लिखना चाहते सलीम खान

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-अजय ब्रह्मात्मज सलीम खान के साथ घंटों बिताने के बाद चलते वक्त नंबर लेने के बाद जब मैंने पूछा कि क्या कभी उनसे फोन पर बातें की जा सकती हैं? उनका सीधा जवाब था, भाई, मैं तो रॉन्ग नंबर से आए कॉल पर भी आधे घंटे बात करता हूं। आप तो परिचित हैं और पत्रकार हैं। सलीम खान के व्यक्तित्व का अनुमान बगैर उनकी संगत के नहीं हो सकता। वे मीडिया से बातें नहीं करते और न अपने जोड़ीदार जावेद अख्तर की तरह बयान और भाषणों के लिए उपलब्ध रहते हैं। उनका अपना एक रुटीन है। वे उसमें व्यस्त रहते हैं। आज जिस उदारता, मेहमाननवाजी और फराक दिल के लिए सलमान खान की तारीफ की जाती है, वह सब उन्हें सलीम खान से विरासत में मिली है। सलीम खान इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन साथ में यह बताना नहीं भूलते कि सलमान की अपनी खासियतें हैं। वह अपने ढंग का वाहिद लड़का है। मेरा बेटा है, इसलिए नहीं.., वह सचमुच टैलेंटेड आर्टिस्ट है। सलीम खान कमरे में टंगी पेंटिंग्स की तरफ इशारा करते हैं। उसे नींद नहीं आती। वह बेचैन रहता है। मैं उसकी क्रिएटिव छटपटाहट को समझ सकता हूं। कभी मैं भी उसकी तरह बेचैन रहता था। वे यादों की गलियों में लौटते हुए बताते हैं कि इ

दरअसल:सोचें जरा इस संभावना पर

-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन देश के कोने-कोने से फिल्मों में जगह पाने की कोशिश में हजारों युवक मुंबई पहुंचते हैं। हिंदी फिल्मों का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। इनमें से सैकड़ों सिनेमा की समझ रखते हैं। वे किसी उन्माद या भावातिरेक में नहीं, बल्कि फिल्मों के जरिए अपनी बात कहने की गरज से मुंबई आते हैं। फिल्मों में आने के लिए उत्सुक हर युवक पर्दे पर ही चमकना नहीं चाहता। कुछ पर्दे के पीछे हाथ आजमाना चाहते हैं। उनके पास अपनी कहानी है, अपना नजरिया है और वे कुछ कर दिखाना चाहते हैं। मुंबई में सक्रिय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे निश्चित समयावधि में अवसर और परिणाम हासिल किया जा सके। फिल्मी परिवार के बच्चों को इस विमर्श से अलग कर दें, तो भी कुछ उदाहरण मिल जाते हैं, जहां कुछ को तत्काल अवसर मिल जाते हैं। वे अपनी मेहनत, कोशिश और फिल्म से दर्शकों को पसंद आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद परिवारवाद, लॉबिंग और संकीर्णता के बावजूद हर साल 20 से 25 नए निर्देशक आ ही जाते हैं। पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे भी हर साल नए तकनीशियन और कलाकार आते हैं। यह कहना अनुचित होगा कि हिंदी फ

इमरान खान से बातचीत

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-अजय ब्रह्मात्मज साल भर के स्टार हो गए हैं इमरान खान। उनकी फिल्म जाने तू या जाने ना पिछले साल 4 जुलाई को रिलीज हुई थी। संयोग से इमरान से यह बातचीत 4 जुलाई को ही हुई। उनसे उनकी ताजा फिल्म लक, स्टारडम और बाकी अनुभवों पर बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश.. आपकी फिल्म लक आ रही है। खुद को कितना लकी मानते हैं आप? तकनीकी रूप से बात करूं, तो मैं लक में यकीन नहीं करता। ऐसी कोई चीज नहीं होती है। तर्क के आधार पर इसे साबित नहीं किया जा सकता। मैं अपनी छोटी जिंदगी को पलटकर देखता हूं, तो पाता हूं कि मेरे साथ हमेशा अच्छा ही होता रहा है। आज सुबह ही मैं एक इंटरव्यू के लिए जा रहा था। जुहू गली से क्रॉस करते समय मेरी गाड़ी से दस फीट आगे एक टहनी गिरी। वह टहनी मेरी गाड़ी पर भी गिर सकती थी। इसी तरह पहले रेल और अब फ्लाइट नहीं छूटती है। मैं लेट भी रहूं, तो मिल जाती है। शायद यही लक है, लेकिन मेरा दिमाग कहता है कि लक जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। क्या हमारी सोच में ही लक और भाग्य पर भरोसा करने की बात शामिल है? हमलोग आध्यात्मिक किस्म के हैं। हो सकता है उसी वजह से ऐसा हो, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की बात करें, तो यहां

हिन्दी टाकीज:सिनेमा से पहली मुलाकात-मंजीत ठाकुर

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हिन्दी टाकीज-४४ मंजीत ठाकुर उत्साही व्यक्ति हैं.लेखक और पत्रकार होने के इस विशेष गुण के धनी मंजीत इन दिनों पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं.अच्छा ही है,दिल्ली की प्रदूषित हवा से जितना दूर रहें.अपने बारे में वे लिखते हैं... मैं मजीत टाकुर.. वक्त ने बहुत कुछ सिखाया है। पढाई के चक्कर में पटना से रांची और दिल्ली तक घूमा.. बीएससी खेती-बाड़ी में किया। फिर आईआईएमसी में रेडियो-टीली पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा.. सिनेमा की सनक ने एफटीआईआई के चक्कर भी लगवा दिए। नवभारत टाइम्स में सात महीने की संक्षिप्त नौकरी के बाद से डीडी न्यूज़ का नमक खा रहा हूं। फिलवक्त सीनियर कॉरेस्पॉन्डेंट हूं। सिनेमा के साथ-साथ सोशल और पॉलिटिकल खबरें कवर करने का चस्का है। सिनेमा को साहित्य भी मानता हूं, बस माध्यम का फर्क है..एक जगह शब्द है तो दूसरी जगह पर चलती-फिरती तस्वीरें..। सिनेमा में गोविंदा से लेकर फैलिनी तक का फैन हूं..। दिलचस्पी पेंटिंग करने, कविताएं और नॉन-फिक्शन गद्य लिखने और कार्टून बनाने में है। निजी जिंदगी में हंसोड़ हूं, दूसरों का मज़ाक बनाने और खुद मज़ाक बनने में कोई गुरेज़ नहीं। अपने ब्लॉग गुस्ताख पर गैर-जरुरी

फ़िल्म समीक्षा:जश्न

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सपनों और रिश्तों के बीच -अजय ब्रह्मात्मज भट्ट कैंप की फिल्मों का अपना एक फार्मूला है। कम बजट, अपेक्षाकृत छोटे और मझोले स्टार, इमोशनल कहानी, म्यूजिकल सपोर्ट, गीतों व संवादों में अर्थपूर्ण शब्द। इस फार्मूले में ही विशेष फिल्म्स की फिल्में कभी कमाल कर जाती हैं और कभी-कभी औसत रह जाती हैं। जश्न कमाल कर सकती है। भट्ट बंधु ने सफलता के इस फार्मूले को साध लिया है। उनकी जश्न के निर्देशक रक्षा मिस्त्री और हसनैन हैदराबादवाला हैं। जश्न सपनों और आकांक्षाओं की फिल्म है। इसे हर जवान के दिल में पल रहे नो बडी से सम बडी होने के सपने के तौर पर प्रचारित किया गया है। फिल्म का नायक आकाश वर्मा सपनों के लिए अपनों का सहारा लेता है। लेकिन असफल और अपमानित होने पर पहले टूटता, फिर जुड़ता और अंत में खड़ा होता है। सपनों और आकांक्षाओं के साथ ही यह शहरी रिश्तों की भी कहानी है। हिंदी फिल्म के पर्दे पर भाई-बहन का ऐसा रिश्ता पहली बार दिखाया गया है। बहन खुद के खर्चे और भाई के सपने के लिए एक अमीर की रखैल बन जाती है। भाई इस सच को जानता है। दोनों के बीच का अपनापा और समर्थन भाई-बहन के रिश्ते को नया आयाम देता है। सारा आज की बह

दरअसल:फिसलन भी है कामयाबी

६०० वीं पोस्ट...आप सभी को धन्यवाद। -अजय ब्रह्मात्मज स्कूल के दिनों में कहीं पढ़ा था, मैं नियम पर चलता हूं, इसलिए रोज नियम बदलता हूं। जिस दिन जो करने का मन हो, वैसा ही नियम बना लो। कहने के लिए हो गया कि नियमनिष्ठ हैं और मन मर्जी भी पूरी हो गई। अपने फिल्म सितारों के लिए कुछ वैसी ही बात कही जा सकती है। कभी कोई फिल्म फ्लॉप होती है, तो सितारे कहते हैं, फिल्म नहीं चल पाई, लेकिन मेरे काम की सराहना हुई। फिर फिल्म बुरी होने के बावजूद हिट हो जाए, तो सितारों के चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है और उनका बयान होता है, समीक्षक कुछ भी लिखें, दर्शकों ने फिल्म पसंद की है न? हिट और फ्लॉप दोनों ही स्थितियों में खुद को संतुष्ट करते हुए दर्शकों को मुगालते में रखने की यह कोशिश स्टारडम का हिस्सा हो गया है। सितारे अपने इस अंतर्विरोध को समझते हैं, लेकिन यह स्वीकार नहीं कर पाते कि उनसे भूल हुई है। अक्षय कुमार आज कल ऐसे ही अंतद्र्वद्व और संशय से गुजर रहे हैं। चांदनी चौक टू चाइना और 8-10 तस्वीर के फ्लॉप होने के बाद उनकी कमबख्त इश्क हिट हुई है। अगर तीनों फिल्मों की तुलना करें, तो किसी को भी श्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में

इम्तियाज ने मुझे हमेशा सरप्राइज किया है-अनुराग कश्यप

-अजय ब्रह्मात्मज 'लव आज कलÓ के निर्देशक और अनुराग कश्यप पुराने दोस्त हैं। फिल्ममेकिंग की में दोनों की शैली अलग है, लेकिन दोनों एक-दूसरे को पसंद करने के साथ निर्भर भी करते हैं। अनुराग कश्यप ने अपने दोस्त इम्तियाज अली के बारे में खास बात की- इम्तियाज बहुत शांत आदमी है। उसको मैंने कभी घबराते हुए नहीं देखा है। कभी परेशान होते हुए नहीं देखा है। उसमें उत्सुकता बहुत है। अगर आप बताएं कि कल दुनिया खत्म होने वाली है तो पूछेगा कि कैसी बात कर रहे हो? अच्छा कैसे खत्म होगी? छोड़ो, बताओ कि शाम को क्या कर रहे हो? वह इस तरह का आदमी है। बड़े प्यार से लोगों को हैंडिल करता है। बहुत सारी खूबियां है। उसके साथ जो एक बार काम कर ले या उसे जान ले तो वो दूर नहीं जाना चाहेगा। उसके चेहरे पर अजीब सी मुस्कराहट रहती है। हमलोग उसको शुरू से बोलते थे तू अंदर से कहीं न कहीं बहुत बड़ा शैतान है। वह मुस्कुरा कर... छुपा कर रखता है। उसके अंदर कुछ बहुत ही खास बात है। सेंसिटिव बहुत है। बहुत ही रोमांटिक आदमी है। बहुत स्थिर है। डिपेंडेबल है। मुझे मालूम है कल कोई हो ना हो मगर इम्तियाज अली है। काफी चीजों के लिए म

रेड कार्पेट पर मटकते चहकते सितारे

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-अजय ब्रह्मात्मज आए दिन पत्र-पत्रिका और टीवी चैनलों पर स्टारों के रेड कार्पेट पर चलने की खबर और तस्वीरें आती रहती हैं। कान फिल्म समारोह में पहले सोनम कपूर के रेड कार्पेट पर चलने की खबर आई। फिर इंटरनेशनल सौंदर्य प्रसाधन कंपनी ने स्पष्टीकरण दिया कि रेड कार्पेट पर ऐश्वर्या राय ही चलेंगी। अंदरूनी कानाफूसी यह हुई कि ऐश्वर्या ने सोनम का पत्ता कटवा दिया। समझ सकते हैं कि रेड कार्पेट का क्या महत्व है? ऑस्कर के रेड कार्पेट पर स्लमडॉग मिलेनियर के लिए भारतीय एक्टर अनिल कपूर और इरफान खान चले। साथ में फिल्म के बाल कलाकार भी थे। भारत में ऑस्कर रेड कार्पेट की तस्वीरें प्रमुखता से छपीं। उन्हें पुरस्कार समारोह के समान ही महत्व दिया गया। कान फिल्म समारोह में काइट्स की जोड़ी रितिक रोशन और बारबरा मोरी ने रेड कार्पेट पर तस्वीरें खिंचवाई। देखें तो रेड कार्पेट पिछले कुछ सालों में प्रकाश में आया है। पहले विदेश से आए प्रमुख राजनयिक मेहमानों के लिए रेड कार्पेट वेलकम का चलन था। बाद में विदेश के पुरस्कार समारोह और कार्यक्रमों की तर्ज पर भारत मेंभी रेड कार्पेट का चलन बढ़ा। मुख्य कार्यक्रम से पहले स्टार और सेलिब्रिट