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जरूरी है चिटगांव विद्रोह के सूर्य सेन को जानना: आशुतोष गोवारीकर

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आशुतोष गोवारीकर की हर नई फिल्म के प्रति दर्शकों और समीक्षकों की जिज्ञासाएं और आशंकाएं कुछ ज्यादा रहती हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि लगान के बाद वे एक जिम्मेदार निर्देशकके रूप में सामने आए हैं। उनकी फिल्में हिंदी फिल्मों के पारंपरिक ढांचे में होते हुए भी चालू और मसालेदार किस्म की नहीं होतीं। उनकी हर फिल्म एक नए अनुभव के साथ सीख भी देती है। खेलें हम जी जान से मानिनी चटर्जी की पुस्तक डू एंड डाय पर आधारित चिटगांव विद्रोह पर केंद्रित क्रांतिकारी सूर्य सेन और उनकेसाथियों की कहानी है.. स्वदेस से लेकर खेलें हम जी जान सेतक की बात करूं तो आप की फिल्में रिलीज के पहले अलग किस्म की जिज्ञासाएं बढ़ाती हैं। कुछ शंकाएं भी जाहिर होती हैं। आप इन जिज्ञासाओं और शंकाओं को किस रूप में लेते हैं। इसे मैं दर्शकों और समीक्षकों की रुचि और चिंता के रूप में लेता हूं। हम सभी प्रचलित धारणाओं से ही अपनी राय बनाते हैं। जब जोधा अकबर में मैंने रितिक रोशन को चुना तो पहली प्रतिक्रिया यही मिली कि रितिक अकबर का रोल कैसे कर सकते हैं? यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ह्वाट्स योर राशि? के समय मेरी दूसरी फिल्मों के आलोचक ही कहने लगे क

फिल्‍म समीक्षा : गुजारिश

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सुंदर मनोभावों का भव्य चित्रण -अजय ब्रह्मात्‍मज पहले फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक गुजारिश किसी जादू की तरह जारी रहता है। फिल्म ऐसा बांधती है कि हम अपलक पर्दे पर चल रही घटनाओं को देखते रहते हैं। इंटरवल भी अनायास लगता है। यह संजय लीला भंसाली की अनोखी रंगीन सपनीली दुनिया है, जिसका वास्तविक जगत से कोई खास रिश्ता नहीं है। फिल्म की कहानी आजाद भारत की है, क्योंकि संविधान की बातें चल रही हैं। पीरियड कौन सा है? बता पाना मुश्किल होगा। फोन देखकर सातवें-आठवें दशक का एहसास होता है, लेकिन रेडियो जिदंगी जैसा एफएम रेडियो और सैटेलाइट न्यूज चैनल हैं। मोबाइल फोन नहीं है। संजय लीला भंसाली इरादतन अपनी फिल्मों को काल और समय से परे रखते हैं। गुजारिश में मनोभावनाओं के साथ एक विचार है कि क्या पीडि़त व्यक्ति को इच्छा मृत्यु का अधिकार मिलना चाहिए? गुजारिश एक अद्भुत प्रेमकहानी है, जिसे इथेन और सोफिया ने साकार किया है। यह शारीरिक और मांसल प्रेम नहीं है। हम सभी जानते हैं कि इथेन को गर्दन के नीचे लकवा (क्वाड्रो प्लेजिया) मार गया है। उसे तो यह भी एहसास नहीं होता कि उसने कब मल-मूत्र त्यागा। एक दुर्घटना के बाद

लता मंगेशकर को मिले सम्मान के बहाने

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले सप्ताह बुधवार की शाम को मुंबई में एक पुरस्कार समारोह में लता मंगेशकर को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्हें उनकी छोटी बहन आशा भोसले और ए आर रहमान ने सम्मानित किया। इस अवसर पर रहमान ने अपनी मां का बताया एक संस्मरण सुनाया कि उनके पिता रोज सुबह लता मंगेशकर की तस्वीर का दर्शन करने के बाद ही संगीत की रचना करते थे। उन्होंने प्रकारांतर से लता मंगेशकर की तुलना सरस्वती से की। सम्मान के पहले समारोह में आए संगीतकारों ने उनके गीत एक प्यार का नगमा है.. गाकर उन्हें भावभीनी स्वरांजलि दी। शंकर महादेवन ने गीत गाया, तो शांतनु मोइत्रा और उत्तम सिंह ने गिटार और वायलिन बजाकर संगीतपूर्ण संगत दी। दर्शक भी भावविभोर हुए। सम्मान के इस अवसर पर भी आशा भोसले ने अपनी शिकायत दर्ज की। उन्होंने कहा कि दीदी कभी मेरे गाने नहीं सुनतीं। आज भी वे देर से आई। आशा की शिकायत पर हंसते हुए लता ने पलट कर कहा कि तू हमेशा झगड़ती है, लेकिन मैं तुम्हें पहले की तरह आज भी माफ करती हूं। आशा ने तुरंत जवाब दिया कि माफ तो करना ही पड़ेगा। मां तो माफ करती ही है। इस नोकझोंक में थोड़ी देर के लिए लगा कि

मुझे आड़े-टेढ़े किरदार अच्छे लगते हैं-संजय लीला भंसाली

-अजय ब्रह्मात्‍मज संजय लीला भंसाली की 'गुजारिश' में रहस्यात्मक आकर्षण है। फिल्म के प्रोमो लुभावने हैं और एहसास हो रहा है कि एक खूबसूरत , संवेदनशील और मार्मिक फिल्म हम देखेंगे। संजय लीला भंसाली अपनी पीढ़ी के अलहदा फिल्ममेकर हैं। विषय , कथ्य , क्राफ्ट , संरचना और प्रस्तुति में वे प्रचलित ट्रेंड का खयाल नहीं रखते। संजय हिंदी फिल्मों की उस परंपरा के निर्देशक हैं , जिनकी फिल्में डायरेक्टर के सिग्नेचर से पहचानी जाती हैं। - आप की फिल्मों को लेकर एक रहस्य सा बना रहता है। फिल्म के ट्रेलर और प्रोमो से स्पष्ट नहीं है कि हम रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय बच्चन को किस रूप और अंदाज में देखने जा रहे हैं। क्या आप ' गुजारिश' को बेहतर तरीके से समझने के सूत्र और मंत्र देंगे ? 0 ' गुजारिश' मेरी आत्मा से निकली फिल्म है। मेरी फिल्मों में नाप-तौल नहीं होता। मैं फिल्म के बारे में सोचते समय उसके बाक्स आफिस वैल्यू पर ध्यान नहीं देता। यह भी नहीं सोचता कि समीक्षक उसे कितना सराहेंगे। मेरे दिल में जो आता है , वही बनाता हूं। बहुत मेहनत करता हूं। ढाई सालों के लिए दुनिया को भूल जाता ह

हंसी और हिंसा के दौर में हिस्ट्री

हिंदी फिल्मों में हंसी और हिंसा का पॉपुलर दौर चल रहा है। कॉमेडी और वॉयलेंस की फिल्मों ने लव स्टोरी को भी पीछे छोड़ दिया है। जिसे देखो वही हंसने-हंसाने की तैयारी में लगा है या फिर मरने-मारने पर उतारू है। चूंकि ऐसी फिल्मों को दर्शक भी मिल रहे हैं, इसलिए माना जा रहा है कि दर्शक भी लव स्टोरी और सोशल फिल्मों से उकता गए हैं, इसलिए वे सिर्फ कॉमेडी और ऐक्शन में इंटरेस्ट दिखा रहे हैं। दर्शकों की बदलती रुचि के बावजूद संजय लीला भंसाली और आशुतोष गोवारीकर जैसे डायरेक्टर चालू ट्रेंड से अलग फिल्में बनाने की हिम्मत कर रहे हैं। संजय लीला भंसाली की गुजारिश एक लव स्टोरी ही है, लेकिन इस फिल्म की प्रस्तुति हिंदी फिल्मों में प्रचलित हो रही नए किस्म की इमोशनलेस लव स्टोरी से भिन्न है। इसी प्रकार आशुतोष गोवारीकर की फिल्म खेलें हम जी जान से नाम, विषय और लुक के लिहाज से आज के पॉपुलर ट्रेंड की फिल्म नहीं है। यह 1930 में चट्टोग्राम (चिटगांव) में हुए विद्रोह की कहानी है, जिसे सूर्य सेन और कल्पना दत्ता ने लीड किया था। अफसोस की बात है कि आजादी के संघर्ष इतिहास में हम सूर्य सेन के योगदान के बारे में अधिक नहीं जानते। आ

इंसानी दिमाग का अंधेरा लुभाता है मुझे: विशाल भारद्वाज

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मकडी से कमीने तक के सफर में ही विशाल भारद्वाज ने अपना खास परिचय दे दिया है। उनकी फिल्मों की कथा-भूमि भारतीय है। संगीत निर्देशन से उनका फिल्मी करियर आरंभ हुआ, लेकिन जल्दी ही उन्होंने निर्देशन की कमान संभाली और कामयाब रहे। उनकी फिल्में थोडी डार्क और रियल होती हैं। चलिए जानते हैं उनसे ही इस फिल्मी सफर के बारे में। डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश कैसे पैदा हुई? फिल्म इंडस्ट्री में स्पॉट ब्वॉय से लेकर प्रोड्यूसर तक के मन में डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश रहती है। हिंदुस्तान में फिल्म और क्रिकेट दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हर किसी को लगता है कि उससे बेहतर कोई नहीं जानता। सचिन को ऐसा शॉट खेलना चाहिए और डायरेक्टर को ऐसे शॉट लेना चाहिए। हर एक के पास कहानी है। रही मेरी बात तो संगीतकार के तौर पर जगह बनाने के बाद मैं फिल्मों की स्क्रिप्ट पर डायरेक्टर से बातें करने लगा था। स्क्रिप्ट समझने के बाद ही आप बेहतर संगीत दे सकते हैं। बैठकों से मुझे लगा कि जिस तरह का काम ये कर रहे हैं, उससे बेहतर मैं कर सकता हूं। इसी दरम्यान संगीत के लिए फिल्में मिलनी कम हुई तो लगा कि इस रफ्तार से तो दो सालों बाद काम ही नहीं रहे