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दुष्‍ट भी दिख सकते हैं ऋषि कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज तारीफ देती है खुशी और खुशी से खिलती हैं बांछें। बांछें खिली हों तो आप की उम्र छह साल हो कि ऋषि कपूर की तरह साठ साल ... वह आप की चाल में नजर आते हैं। उम्र की वजह से बढ़ा वजन भी पैरों पर भार की तरह नहीं लगता। आप महसूस करें ना करें ... दुनिया का नजरिया बदल जाता है। अचानक आप के मोबाइल नंबर की खोज होने लगती है और आप सभी को याद आ जाते हैं। ' अग्निपथ ’ की रिलीज के अगले दिन ही ऋषि कपूर के एक करीबी से उनका नंबर मिला। मैंने इच्छा जाहिर की थी कि बात करना चाहता हूं , क्योंकि रऊफ लाला कि किरदार में ऋषि कपूर ने चौंकाने से अधिक यकीन दिलाया कि अनुभवी अभिनेता किसी भी रंग और रंगत में छा सकता है। एक अंतराल के बाद ऋषि कपूर को यह तारीफ मिली। दोस्त तो हर काम की तारीफ करते हैं। इस बार दोस्तों के दोस्तों ने फोन किए और कुछ ने पल दो पल की मुलाकात की याद दिलाकर दोस्ती गांठ ली। बड़े पर्दे का जादू सिर चढ़ कर बोलता है और अपनी तरफ आकर्षित करता है। बांद्रा के पाली हिल में ऋषि कपूर का बसेरा है। बेटे रिद्धिमा की शादी हो गई है और बेटा रणबीर हिंदी फिल्मों का ' रॉकस्टार ' बना ह

ज्ञान का प्रवाह है उपनिषद गगा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दूरदर्शन पर 11 मार्च से आरंभ होगा डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी लिखित और निर्देशित 'उपनिषद गगा' का प्रसारण। इस धारावाहिक के कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति के बारे में बता रहे हैं डॉ. चद्रप्रकाश द्विवेदी भारत की आध्यात्मिक धरोहर उपनिषद को मैं भारत की आध्यात्मिक धरोहर मानता हूं। उस समय के चितकों जिन्हें हमलोग ऋषि कहते हैं, उन्हें मैं सामाजिक वैज्ञानिक कहता हूं। उनके विचारों में भारत एक भौगोलिक इकाई के रूप में नहीं रहता। वे समग्र विश्व समुदाय पर विमर्श करते हैं। उनके चितन में सघर्ष-द्वंद्व की समाप्ति और सपूर्ण मानव जाति के सुख के विषय होते थे। पूरे ब्रह्माण्ड में वे एक ऐसी कल्पना को ढूंढ रहे हैं, जिससे उसकी एकात्मता को सिद्ध किया जा सके। यह एकात्मता उनकी कल्पना है या यथार्थ है, इस सदर्भ में ऋषियों का समग्र चितन और चितन के कारण मानवता के समक्ष खड़े प्रश्नों के उत्तार ढूंढने की कोशिश ही वेदात है। वेदात के बाद तमाम लोगों ने उस पर भाष्य और कई चीजें लिखीं, जो एक वृहद प्राचीन भारतीय साहित्य बना। यह साहित्य समय के साथ लुप्त हो रहा है। चिन्मय मिशन की क्रिएटिव विग चिन्मय क्रिएशन ने इ

सिनेमा के सौ साल: स्टूडियो,स्टार और कारपोरेट सिस्टम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्म निर्माण टीमवर्क है। माना जाता है कि इस टीम का कप्तान निर्देशक होता है , क्योंकि वह अपनी सोच-समझ से फिल्म के रूप में अपनी दुनिया रचता है। ऊपरी तौर पर यही लक्षित होता है , लेकिन फिल्म व्यवसाय के जानकारों से बात करें तो नियामक शक्ति कुछ और होती है। कभी कोई व्यक्ति तो कभी कोई संस्था , कभी स्टूडियो तो कभी स्टार , कभी कारपोरेट तो कभी डायरेक्टर... समय , परिस्थिति और व्यवसाय से पिछले सौ सालों के भारतीय सिनेमा में हम इस बदलाव को देख सकते हैं। फालके और उनके व्यक्तिगत प्रयास दादा साहेब फालके ने पहली भारतीय फिल्म का निर्माण किया। सभी जानते हैं कि इस फिल्म के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखने पड़े थे। गहने , घर , संपत्ति गिरवी रख कर धन उगाहने का सिलसिला कमोबेश आज भी चलता रहता है। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा मिलने और बीमा कंपनियों के आने से आर्थिक जोखिम कम हुआ है। बहरहाल , फालके के जमाने में फिल्मों को व्यवसाय की दृष्टि से फायदेमंद नहीं माना जाता था। फालके के समय के फिल्म निर्माण को कॉटेज इंडस्ट्री के तौर पर देख सकते हैं। फालके समेत इस दौर के नि

इस अवार्ड वेला में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों के पॉपुलर अवार्ड का सिलसिला चालू है। देश-विदेश में इनके आयोजन हो रहे हैं। स्क्रीन और जी सिने अवार्ड के विजेता मुस्करा रहे हैं। इस स्तंभ के छपने तक फिल्मफेअर अवार्ड समारोह का आयोजन हो चुका रहेगा। पॉपुलर अवार्ड में फिल्मफेअर सबसे पुराना है। इसकी पहले जैसी साख तो अब नहीं, लेकिन पुराना होने का लाभ इसे मिलता है। जून में आईफा अवार्ड के आयोजन तक छोटे-बड़े दर्जन भर अवार्ड समारोह हो चुके होंगे। इनमें बेशर्मी से पुरस्कार बांटे जाएंगे। बांटना शब्द इन पुरस्कारों की सटीक क्रिया है। अन्यथा आप इन अवार्ड समारोहों के विजेताओं के नाम से कैसे सहमत होंगे? सैटेलाइट चैनलों के आने के बाद सारे पुरस्कार समारोहों ने इवेंट का रूप ले लिया है। आयोजकों की कोशिश रहती है कि सारे लोकप्रिय सितारे कुछ घंटों के लिए ही सही, लेकिन उस शाम समारोह की शोभा बढ़ा दें। इससे इवेंट की दर्शकता बढ़ती है। भले ही शाहरुख खान कोई नीच मजाक कर रहे हों या हरकत.., फिल्म के संवादों से लेकर इवेंट के संभाषणों तक में श्लील-अश्लील का फर्क समाप्त हो गया है। फिल्मों में किरदार अश्लील संवाद या अपशब्द बोलते हैं तो वह प

अनुष्का शर्मा को भविष्य की चिंता नही

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युवा अभिनेत्रियों की शाश्वत मुश्किल है कि हर प्रकार की सफलता हासिल करने के बाद भी वे खुश नहीं हो पातीं। मन में क्षोभ और लोभ रहेगा तो वह चेहरे से भी जाहिर होगा। अभिनय की दुनिया में आए सभी व्यक्तियों को अनुष्का से मुस्कराहट का मंत्र लेना चाहिए। मॉडलिंग में दिलचस्पी मूलत: उत्तराखंड की अनुष्का शर्मा की पढाई-लिखाई बंगलौर में हुई। किशोर उम्र में ही मॉडलिंग में उनकी रुचि बनी। वह रैंप पर उतरीं। पहचान बनी तो मॉडलिंग करने लगी। आरंभ में लाइमलाइट में आने पर भी फिल्मों में आने का इरादा नहीं था। संयोग से एक बार फिल्म जगत में आ गई तो अब अनुष्का का जाने का इरादा भी नहीं है। अनुष्का अछी तरह जानती हैं कि वह एक ऐसी इंडस्ट्री में अपनी पहचान हासिल करने की कोशिश में हैं, जहां एक फिल्म की असफलता भी नेपथ्य में भेज देती है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि अनुष्का ने दर्शकों और निर्देशकों की नजरों में रहने का गुर सीख लिया है। 2008 से अभी तक के करियर में समान संख्या में हिट और फ्लॉप फिल्में दे चुकी अनुष्का को भविष्य की अधिक चिंता नहीं है। अभी उनके पास यश चोपडा और विशाल भारद्वाज की फिल्में हैं। मिली खास पहचान अनुष्का की

ऑन स्‍क्रीन ऑफ स्‍क्रीन : रिश्तों के इर्द-गिर्द घूमती हैं करण जौहर की फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज युवा फिल्मकारों में करण जौहर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि चेहरे हैं। अपने व्यक्तित्व और फिल्मों से उन्होंने खास जगह हासिल की है। हिंदी फिल्मों की शैलीगत विशेषताओं को अपनाते हुए उसमें नए लोकप्रिय तत्व जोडने का काम उन्होंने बहुत खूबसूरती से किया है। वे एक साथ शर्मीले और मुखर हैं, संकोची और बेधडक हैं। स्पष्ट और गूढ हैं। खुशमिजाज और गंभीर हैं। विरोधी गुणों और पहलुओं के कारण वे एक ही समय में जटिल और सरल नजर आते हैं। व्यक्तित्व के इस द्वैत की वजह से उनमें अद्भुत आकर्षण है। वे यूथ आइकन हैं। वे देश के एकमात्र लोकप्रिय निर्देशक हैं, जिनकी लोकप्रियता और स्वीकृति किसी स्टार से कम नहीं है। सुरक्षित माहौल की परवरिश लोकप्रियता और स्वीकृति के इस मुकाम तक पहुंचने में करण जौहर की लंबी यात्रा रही है। यह यात्रा सिर्फ उम्र की नहीं है, बल्कि अनुभवों की सघनता सामान्य व्यक्ति को सलेब्रिटी बनाती है। करण जौहर ने खुद को गमले में लगे सुंदर पौधे की तरह ढाला है, जो धरती और मिट्टी से जुडे बिना भी हरा-भरा और खिला रहता है। महानगरों के सुरक्षित माहौल में पले-बढे सलेब्रिटी की आम समस्या है कि वे

रिलीज के दिन तक बनती हैं फिल्में

-अजय ब्रह्मात्‍मज साल में आठ-दस शुक्रवार ऐसे होते ही हैं, जब तीन से ज्यादा फिल्में एक साथ रिलीज होती हैं। अब तो फिल्मों की रिलीज कम हो गई हैं। जरा सोचें, जब 300-400 फिल्में रिलीज होती थीं तो हफ्तों का क्या हाल होता होगा? इसी साल की बात करें तो 6 जनवरी को एक फिल्म प्लेयर्स रिलीज हुई, लेकिन 13 जनवरी को चार फिल्में एक साथ रिलीज हुई। 20 जनवरी का शुक्रवार खाली गया। कोई फिल्म ही नहीं थी। अगर 13 जनवरी की एक-दो फिल्में आगे खिसका दी जातीं तो नई फिल्म के नाम पर कुछ और दर्शक मिल सकते थे। इन दिनों बड़ी फिल्मों के अगले-पिछले हफ्ते में निर्माता-फिल्में रिलीज करने से बचते हैं। डर रहता है कि दर्शक नहीं मिलेंगे। लेकिन सच यही है कि दर्शकों को पसंद आ जाए तो लगान और गदर या गोलमाल और फैशन एक ही हफ्ते में रिलीज होकर खूब चली थीं। दरअसल, हिंदी फिल्मों के निर्माता फिल्मों की सही प्लानिंग नहीं कर पाते। मैं एक निर्देशक को जानता हूं। उनकी फिल्म की शूटिंग पिछले साल मार्च में समाप्त हो चुकी है, लेकिन उचित ध्यान न देने की वजह से फिल्म अभी तक पोस्ट प्रोडक्शन में अटकी हुई है। किसी को नहीं मालूम कि फिल्म कब रिलीज होगी।

फिल्‍म समीक्षा : अग्निपथ

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रचार और जोर रितिक रोशन और संजय दत्त का था, लेकिन प्रभावित कर गए ऋषि कपूर और प्रियंका चोपड़ा। अग्निपथ में ऋषि कपूर चौंकाते हैं। हमने उन्हें ज्यादातर रोमांटिक और पॉजीटिव किरदारों में देखा है। निरंतर सद्चरित्र में दिखे ऋषि कपूर अपने खल चरित्र से विस्मित करते हैं। प्रियंका चोपड़ा में अनदेखी संभावनाएं हैं। इस फिल्म के कुछ दृश्यों में वह अपने भाव और अभिनय से मुग्ध करती हैं। शादी से पहले के दृश्य में काली की मनोदशा (खुशी और आगत दुख) को एक साथ जाहिर करने में वह कामयाब रही हैं। कांचा का दाहिना हाथ बने सूर्या के किरदार में पंकज त्रिपाठी हकलाहट और बेफिक्र अंदाज से अपनी अभिनय क्षमता का परिचय देते हैं। दीनानाथ चौहान की भूमिका में चेतन पंडित सादगी और आदर्श के प्रतिरूप नजर आते हैं। इन किरदारों और कलाकारों के विशेष उल्लेख की वजह है। फिल्म के प्रोमोशन में इन्हें दरकिनार रखा गया है। स्टार रितिक रोशन और संजय दत्त की बात करें तो रितिक हमेशा की तरह अपने किरदार को परफेक्ट ढंग से चित्रित करते हैं। संजय दत्त के व्यक्तित्व का आकर्षण उनके परफारमेंस की कमी को ढक देता है। कांचा की खल

प्रेम-रोमांस : द रोड होम

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प्रेम-रोमांस-2 प्रेम-रोमांस सीरिज में दूसरा लेख राहुल सिंह का है। राहुल ने चीनी फिल्‍म 'द रोड होम' के बारे में लिख है। राहुल सिंह देवघर में रहते हैं। पेशे से अध्‍यापक है। उनसे हिन्दी विभाग , ए एस महाविद्यालय , देवघर , पिन-814112 , झारखण्ड , मो॰-09308990184 ई मेल- alochakrahul@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। मृत्यु की छांह में प्रेम की दास्तानः द रोड होम - राहुल सिंह एक बेहद प्यारी फिल्म जिसकी शुरुआत मौत की खबर और समापन शवयात्रा से होती है। अमूमन फ्लैश बैक में फिल्में ब्लैक एंड व्हाईट हो जाया करती हैं लेकिन ‘ द रोड होम ’ इसके उलट फ्लैश बैक में रंगों से लबरेज और वर्तमान में स्याह-सफेद में सिमटी रहती है। अतीत का अंततः खुशनुमा होना और वर्तमान का अंततः दुःखदायी होना रंग विन्यास के इस उलटफेर को जस्टिफाई करता है। पिता की मृत्यु की खबर सुनकर उनके अंतिम संस्कार को लौटा बेटा ल्‍वो य्वीशंग (हुगलेई सुन) के स्मृतियों के गर्भ में लगायी गयी डुबकी के साथ फिल्म कायदन शुरु होती है। उत्‍तरी चीन की एक पहाड़ी गांव सैन्ह्यून में साल 1958 में फिल्म की कहानी शुरु होती है। जब उस गांव क

प्रेम-रोमांस : खुद से रोमांस करता है फॉरेस्‍ट गम्‍प

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मैंने बसंत के मौसम में प्रेम-रोमांस से संबंधित फिल्‍मों पर लिखने का आग्रह फेसबुक पर किया तो राजेश कुमार का पहलाख आया हैत्र उन्‍होंने फॉरेस्‍ट गम्‍प पर लिखा है। आप इसका आनंद लें और अपनी पसंद की पिफल्‍म के बारे में लिख भेजें। उम्‍मीद है कि चवन्‍नी का यह आयोजन रससिक्‍त होगा। आप brahmatmaj@gmail.com पर लेख भेजें। -राजेश कुमार हिंदी फिल्‍में में तो अमूमन रोमांस से सराबोर होती हैं, लेकिन शायद अतिरेक दोहराव की वजह से वो जेहन से जल्‍द ही उतर जाती हैं. फिर चाहे वो यशराजनुमा बिग बजट रोमांस हो या सत्‍यजीत रे का साहित्‍यिक टच लिए रोमांटिक लव. अमर प्रेम और द जैपेनीज वाइफ जैसी फिल्‍मों का रोमांस भी यादगार है लेकिन टॉम हैंक्‍स की बेहतरीन फिल्‍म फॉरेस्‍ट गम्‍प फिल्‍म मुझे रोमांस की बेहतरीन दास्‍तान लगती है. यह फिल्‍म सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के रोमांस तक नहीं सिमटती बल्कि यह मां बेटे, दोस्‍त, बेटे और बेमेल पत्‍नी के रोमांस को बयां करती हैं. और सबसे बडी बात यह कि फॉरेस्‍ट गम्‍प में नायक का अंत तक खुद से रोमांस गजब का है. इस फिल्‍म में नायक किसी भी कीमत में खुद से रोमांस करना नहीं छोडता. चाहे वो तब हो, जब