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चार तस्‍वीरें : दीपिका पादुकोण

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दीपिका पादुकोण काकटेल फिल्‍म में लाल बिकनी पहने समुद्रतट पर लेटी हैं। क्‍या सिर्फ इन तस्‍वीरों की वजह से आप फिल्‍म देखेंगे ?

सत्‍यमेव जयते-3: एक दिन का तमाशा : आमिर खान

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  विवाह जीवन का बेहद महत्वपूर्ण अंग है। यह साझेदारी है। इस मौके पर आप अपना साथी चुनते हैं, संभवत: जीवन भर के लिए। ऐसा साथी जो आपकी मदद करे, आपका समर्थन करे। हम शादी को जिस नजर से देखते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। शादी को लेकर हमारा क्या नजरिया है, इस पर हमारा जीवन निर्भर करता है। आज मैं मुख्य रूप से नौजवानों का ध्यान खींचना चाहता हूं। जो शादीशुदा हैं, वे अच्छा या बुरा पहले ही अपना चुनाव कर चुके हैं। भारत में हम शादी के नाम पर कितनी भावनाएं, सोच, कितना समय और कितना धन खर्च करते हैं! विवाह के एक दिन के तमाशे पर हम न केवल अपनी जमापूंजी लुटा देते हैं, बल्कि अकसर कर्ज भी लेना पड़ जाता है, किंतु क्या हम ये सारी भावनाएं, समय, प्रयास और धन विवाह में खर्च करते हैं? मेरे ख्याल से नहीं। असल में, हम इन तमाम संसाधनों को अपने विवाह में नहीं, बल्कि अपने विवाह के दिन पर खर्च करते हैं। बड़े धूमधाम से शादी विवाह के अवसर पर अकसर यह जुमला सुनने को मिलता है। विवाह उत्सव को सफल बनाने के लिए हम तन-मन-धन से जुटे रहते हैं। मैं उस दिन कैसा लगूंगा? समाज मुझे और मेरे साथी को कितना पसंद करेगा? लोग

फिल्‍म समीक्षा : डिपार्टमेंट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज राम गोपाल वर्मा को अपनी फिल्म डिपार्टमेंट के संवाद चमत्कार को नमस्कार पर अमल करना चाहिए। इस फिल्म को देखते हुए उनके पुराने प्रशंसक एक बार फिर इस चमत्कारी निर्देशक की वर्तमान सोच पर अफसोस कर सकते हैं। रामू ने जब से यह मानना और कहना शुरू किया है कि सिनेमा कंटेंट से ज्यादा तकनीक का मीडियम है, तब से उनकी फिल्म में कहानियां नहीं मिलतीं। डिपार्टमेंट में विचित्र कैमरावर्क है। नए डिजीटल  कैमरों से यह सुविधा बढ़ गई है कि आप एक्सट्रीम  क्लोजअप  में जाकर चलती-फिरती तस्वीरें उतार सकते हैं। यही कारण है कि मुंबई की गलियों में भीड़ में चेहरे ही दिखाई देते हैं। कभी अंगूठे  से शॉट  आरंभ होता है तो कभी चाय के सॉसपैन  से ़ ़ ़ रामू किसी बच्चे  की तरह कैमरे का बेतरतीब इस्तेमाल करते हैं। डिपार्टमेंट रामू की देखी-सुनी-कही फिल्मों का नया विस्तार है। पुलिस महकमे में अंडरव‌र्ल्ड से निबटने के लिए एक नया डिपार्टमेंट बनता है। संजय दत्त इस डिपार्टमेंट के हेड हैं। वे राणा डग्गुबाती को अपनी टीम में चुनते हैं। दोनों कानून की हद से निकल कर अंडरव‌र्ल्ड के खात्मे का हर पैंतरा इस्तेम

मैं फैशनेबल लड़की हूं: सोनम कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सांवरिया से हिंदी फिल्मों में आई सोनम कपूर में नूतन और वहीदा रहमान की छवि देखी जाती है। लोकप्रियता के लिहाज से उनकी फिल्में अगली कतार में नहीं हैं, लेकिन अपनी स्टाइल और इमेज के चलते सोनम कपूर सुर्खियों में रहती हैं। उन्हें स्टाइल आइकन माना जाता है। सोनम से खास बातचीत- स्टाइल क्या है? आप उसे कैसे देखती हैं? स्टाइल आपकी अपनी पर्सनैलिटी होती है। आप कपडों और स्टाइल के साथ एक्सपेरिमेंट कर सकते हैं। देव आनंद की टोपी, राजकपूर की छोटी पैंट या मीना कुमारी के लहंगे, मधुबाला की टेढी स्माइल या शाहरुख के स्वेटर, सलमान खान के जींस या बूट..। उनकी स्टाइल ही सिग्नेचर है। लोग मुझे देखते हैं तो कहते हैं कि मैं अजीबोगरीब कपडे पहनती हूं। मैं फैशन करती हूं और बहुत अच्छी लगती हूं, अपने चुने कपडों में। मेरी नजर में स्टाइल अपनी पर्सनैलिटी का एक्सप्रेशन और एक्सपेरिमेंट है। इसी को कुछ लोग फैशन से जोड देते हैं। पर्सनैलिटी के एक्सप्रेशन का शौक बचपन से था? मैं लडकी हूं। बचपन से शौक है कि मुझे अच्छे कपडे पहनने हैं, खूबसूरत दिखना है। आपने मेरा पहला इंटरव्यू किया था,

फिल्म समीक्षा के भी सौ साल

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  पटना के मित्र विनोद अनुपम ने याद दिलाते हुए रेखांकित किया कि भारतीय सिनेमा के 100 साल के आयोजनों में लोग इसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि फिल्म समीक्षा के भी 100 साल हो गए हैं। दादा साहेब फालके की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की रिलीज के दो दिन बाद ही बॉम्बे क्रॉनिकल में 5 मई, 1913 को उसका रिव्यू छपा था। निश्चित ही भारतीय संदर्भ में यह गर्व करने के साथ स्मरणीय तथ्य है। पिछले 100 सालों में सिनेमा के विकास के साथ-साथ फिल्म समीक्षा और लेखन का भी विकास होता रहा है, लेकिन जिस विविधता के साथ सिनेमा का विकास हुआ है, वैसी विविधता फिल्म समीक्षा और लेखन में नहीं दिखाई पड़ती। खासकर फिल्मों पर लेखन और उसका दस्तावेजीकरण लगभग नहीं हुआ है। इधर जो नए प्रयास अंग्रेजी में हो रहे हैं, उनमें अधिकांश लेखकों की कोशिश इंटरनेशनल पाठकों और अध्येताओं को खुश करने की है। हिंदी फिल्मों की समीक्षा के पहले पत्र-पत्रिकाओं ने उपेक्षा की। कला की इस नई अभिव्यक्ति के प्रति सशंकित रहने के कारण यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों का स्थान न देने की नीति बनी रही।

Indian stars go to Cannes as brand ambassadors, not as cine artistes-anurag kashyap

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आज(15 may 2012) सुबह से अनुराग के इस इंटरव्‍यू की चर्चा चल रही थी। यह दिल्‍ली टाइम्‍स में आज छपा है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए । अंशुल चतुर्वेदी के इस इंटरव्‍यू से कान फिल्‍म फेस्टिवलका कुहासा छंटता है... Anshul Chaturvedi, TNN | May 15, 2012, 12.00AM IST   Anurag Kashyap thinks the Indian media has little clue of what global film events are all about ; it keeps playing up 'Red Carpet' branded appearances and doesn't realise, for instance, that  this year is the biggest ever for Indian cinema at the Cannes Film Festival ... The whole year round, we hear of movies and stars going to, being selected for, and winning awards at various global festivals - but I'm not sure most of us, the writers included, quite understand the comparative relevance or magnitude. At some subconscious level, we club  all "international" recognition at the same plane, including most of the media... Forget the media, our industry doesn't have a clue!

तीन तस्‍वीरें : बोल बच्‍चन में सीनियर और जूनियर बच्‍चन

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सौजन्‍य अमिताभ बच्‍चन का ब्‍लॉग

बाल यौन शोषण : इस यातना की अनदेखी न करें- आमिर खान

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बच्चों के यौन शोषण की घटनाओं पर शोध के दौरान मुझे एक बड़ी सीख तब मिली जब मैंने अपनी विशेषज्ञ डॉ. अनुजा गुप्ता से पूछा कि यौन शोषण का शिकार होने के बाद भी बच्चे अपने मां-बाप से उसके बारे में बताने में कठिनाई महसूस क्यों करते हैं? उनका जवाब था, क्या हम बच्चों की सुनते हैं? क्या हम उनकी बात सुनने के लायक हैं? और यह वास्तव में एक बड़ा सवाल है। मेरा अपने बच्चों के साथ क्या संबंध है? क्या मैं अपने बच्चों से उनकी परेशानियां पूछता हूं? क्या वास्तव में बच्चों की बात सुनता हूं? क्या मैं जानता हूं कि मेरे बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है? क्या मैं उसके भय, सपनों, उम्मीदों के बारे में जानता हूं? क्या वास्तव में मैं यह सब जानना भी चाहता हूं। क्या मैं अपने बच्चों का दोस्त हूं? यद्यपि पहली पीढ़ी की तुलना में हमारी पीढ़ी बच्चों के साथ अधिक बातचीत करती है। या कम से कम हम ऐसा मानना पसंद करते हैं..फिर भी हममें से कितने हैं जो अपने बच्चों के साथ मजबूती से जुड़े हैं? हममें से कितनों के पास एक स्वस्थ संबंध के लिए जरूरी समय और सोच है? सच्चाई यह है कि अगर आपका अपने बच्चों के साथ स्वस्थ संवाद

जूनियर शॉटगन सोनाक्षी सिन्हा

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- अजय ब्रह्मात्मज अभिनव सिंह कश्यप की फिल्म दबंग से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दमदार दस्तक दे चुकी सोनाक्षी सिन्हा की दूसरी फिल्म अभी तक नहीं आई है। 10 सितंबर 2010 को रिलीज हुई दबंग ने कई मायने में इतिहास रचा और सोनाक्षी की जगह फिल्म इंडस्ट्री में पक्की कर दी। उन्हें कई पुरस्कार मिले और कंज्यूमर प्रोडक्ट के विज्ञापन भी। कुछ फिल्में भी मिलीं , लेकिन उनके निर्माण में ही पिछला साल निकल गया। 2011 में सोनाक्षी ने सिनेमाघरों में दर्शकों को दर्शन नहीं दिया। हल्की फुसफुसाहट भी सुनने को मिली कि कहीं सोनाक्षी वन फिल्म वंडर तो नहीं हैं। शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी पर सभी की नजर है। स्टारपुत्र और पुत्रियों को खारिज करने के लिए आलोचकों का एक समूह डटा रहता है। अपनी दूसरी-तीसरी फिल्मों में सोनाक्षी को ऐसी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा। अभी की बात करें तो सोनाक्षी अपनी फिल्मों के चक्कर में देश के विभिन्न शहरों के दौरे कर रही हैं। कभी बादामी तो कभी डलहौजी , कभी पटियाला तो कभी कोलकाता , हंपी और मुंबई... चार फिल्मों की शूटिंग की तारीखों और किरदारों को संभालने के साथ देश के भिन्न इलाकों में लगे से

फिल्‍म समीक्षा : इशकजादे

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मसालेदार फार्मूले में रची -अजय ब्रह्मात्‍मज एक काल्पनिक बस्ती है अलमोर। लखनऊ के आसपास कहीं होगी। वहां कुरैशी और चौहान परिवार रहते हैं। जमींदार,जागीरदार और रईस तो अब रहे नहीं,इसलिए सुविधा के लिए उन्हें राजनीति में दिखा दिया गया है। कुरैशी परिवार के मुखिया अभी एमएलए है। चुनाव सिर पर है। चौहान इस बार बाजी मारना चाहते हैं। मजेदार है कि दोनों निर्दलीय हैं। देश में अब कौन से विधान सभा क्षेत्र बचे हैं,जहां राजनीतिक पाटियों का दबदबा न हो? निर्दलियों के जीतने के बाद भी उनके झंडे और नेता तो नजर आने चाहिए थे। देश में समस्या है कि काल्पनिक किरदारों को किसी पार्टी का नहीं बताया जा सकता। कौन आफत मोल ले? दोनों दुश्मन परिवारों के नई पीढ़ी जवान हो चुकी है। इशकजादे का नायक चौहान परिवार का है और नायिका कुरैशी परिवार की। यहां से कहानी शुरू होती है। परमा और जोया लंपट और बदतमीज किस्म के नौजवान हैं। हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका के प्रेम के लिए जरूरी अदतमीजी में दोनों काबिल हैं। उन्हें कट्टे और पिस्तौल से प्यार है। मनमानी करने में ही उनकी मौज होती है। दोनों परिवारों में बच्चों को बचपन स