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अशोक मेहता ashok mehta cinematographer

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए यह इंटरव्‍यू http://cameraworking.raqsmediacollective.net/pdf/interviews/ashok_mehta.PDF से लिया गया है। यह 1996 में पहली बार प्रकाशित हुआ था।  ASHOK MEHTA Can you tell us how you came to Bombay? I came to Bombay when I was very young. I must have been about 13 or 14 years old. I ran away from home when I was in class seven… When I came to Bombay, I knew nobody and I had no friends here. I did any job that came my way. My first job was working with a hawker. I used to sell boiled eggs. Another job offered to me soon after was to sell watermelon slices – this was in 1963. Once, during a holiday, I got a chance to go and see a film shoot happening. So I decided to actually go to the studios after that to see if I could find something to do. I went to Ranjeet Studio, Rooptara Studio and to the Sri sound studios at Dadar. They wouldn’t allow me in. The gates were closed. Shooting was going on inside and I couldn’t go in, they said. While I

फिल्‍म समीक्षा : एक था टाइगर

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फार्मूलाबद्ध फिल्म है एक था टाइगर -अजय ब्रह्मात्‍मज  भारत,आयरलैंड,तुर्की,क्यूबा और थाईलैंड से घूमती-घुमाती एक था टाइगर तुर्की में खत्म होती है। माशाल्लाह गाना तुर्की में ही फिल्माया गया है। यह गाना फिल्म के अंत में कास्टिंग रोल के साथ आता है। यशराज फिल्म्स ने यह अच्छा प्रयोग किया है कि कास्ट रोल स्क्रीन को छेंकते हुए नीचे से ऊपर जाने के बजाए दाएं से बाएं जाता है। हम सलमान खान और कट्रीना कैफ को नाचते-गाते देख पाते हैं। इसके अलावा फिल्म में ठूंस-ठूंस कर एक्शन भरा गया है। हाल-फिलहाल में में दक्षिण भारतीय फिल्मों से आयातित रॉ एक्शन देखते-देखते अघा चुके दर्शकों को एक था टाइगर के एक्शन में ताजगी दिखेगी। इस फिल्म में हीरोइन के भी एक्शन सीन हैं। कॉनरेड पाल्मिसैनो की सलाह से किए गए एक्शन में स्फूर्ति नजर आती है और वह मुमकिन सा लगता है। वैसे इस फिल्म में भी हीरो का निशाना कभी खाली नहीं जाता, जबकि दुश्मनों को शायद गोली चलाने ही नहीं आता। फिल्में हिंदी की हों या किसी और भाषा की। हीरो हमेशा अक्षत रहता है। कबीर खान निर्देशित एक था टाइगर जासूसी टाइप की फिल्म है। मिशन पर निकला

मोहल्‍ला अस्‍सी

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बनारस के अस्‍सी घाट पर सनी देओल का उल्‍लास। यह तस्‍वीर डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की अगली फिल्‍म मोहलला अस्‍सी की है। इस फिल्‍म की शूटिंग पिछले साल ही रिकार्ड समय में पूरी हो गई थी। निर्माता की लापरवाही से यह अनोखी फिल्‍म अभी तक अटकी पड़ी है। काशीनाथ सिंह के उपन्‍यास 'काशी का अस्‍सी' पर आधारित इस फिल्‍म का हिंदी पट्टी में बेसब्री से इंतजार है।

गुरविंदर सिंह से मुलाकात -गजेन्‍द्र सिंह भाटी

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए गजेंद्र सिंह भाटी के ब्‍लॉग फिलम सिनेमा से यह कट-पेस्‍ट....  तीन राष्ट्रीय परस्‍कार जीतने वाली फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात   59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में युवा निर्देशक गुरविंदर सिंह की फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' को तीन पुरस्कार मिले। उऩ्हें बेस्ट फिल्म और बेस्ट पंजाबी फिल्म का अवॉर्ड मिला, वहीं बेस्ट सिनेमैटोग्राफी के लिए सत्य राय नागपाल को पुरस्कार मिला। गुरविंदर विश्व सिनेमा में भारतीय और खासकर पंजाबी भाषा के योगदान को कटिबद्ध हैं, संभवतः वह गजब की फिल्में लेकर आएंगे। मिलिए गुरविंदर से और मौका मिले उनकी ये फिल्म जरूर देखें। ये पंजाबी भाषा की पहली ऐसी फिल्म है जो विश्व सिनेमा कही जा सकती है। भारत का मान बढ़ाने वाली फिल्म। घोर आर्ट है। इतना कि जहां रोना चाहिए, वहां दर्शक हंसते हैं। दिल्ली के गुरविंदर सिंह 'फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे' से फिल्ममेकिंग में ग्रेजुएशन कर चुके हैं। वहीं पढ़ते हुए उन्होंने पंजाबी साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास '

Anurag Kashyap : An Auteur Demystified

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चवन्‍नी के अनुरागियों के लिए यह लेख मैड अबाउट मूवीज से लिया गया है। धैर्य और श्रद्धा है तो आनंद उठाएं।   -OORVAZI ‘ Auteur ‘is a French word which translated in English means ‘author’,  the creator of the work. Having said that, cinema unlike the other arts like poetry, painting etc. is a collective art and includes contributions from other artists to make it a completed film and is not the work of a sole artist. However, the ‘Auteur Theory’ suggests that there is one prime force that leads to the creation of the film and that individual guides all the processes of filmmaking. It is the vision and worldview of this individual who makes the film special and thus a work of art. The ‘Auteur Theory’ was born out of the French New Wave movement in cinema pioneered by the critic and filmmaker Francoise Truffaut ( he wrote an important article ‘ a certain tendency in French Cinema’ for the Cahiers du Cinema magazine in 1954)which was a protest to liberate the medium of cinema

बदलना चाहता है हिंदुस्‍तान-आमिर खान

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स्‍वतंत्रता दिवस विशेष चवन्‍नी के पाठकों के लिए  ‘सत्यमेव जयते’ के 13 एपीसोड के अनुभव ने फिल्मस्टार आमिर खान को देश के करीब ला दिया है। वे समाज के सच्चाइयों से वाकिफ हुए हैं और एक नागरिक के तौर पर ज्यादा सजग और जिम्मेदारी महसूस कर रहे हैं। उन्होंने अजय ब्रह्मात्‍मज से यहां अपने अनुभव बांटे। ‘सत्यमेव जयते’ का ढाई साल का अनुभव मुझे समृद्ध कर गया है। टीम के शोध ने मुझे नई जानकारियां दी। इन सब चीजों के बारे में इतनी गहराई और विस्तार से मैं नहीं जानता था। सभी खास मुद्दों पर मेरी खुद की जानकारी बढ़ी। इसके अलावा इस शो में देश के कोने-कोने से आए लोगों को मैंने करीब से सुना और देखा। हर एपीसोड में 15-20 गेस्ट रहते थे। वे बड़े शहरों से लेकर दूर-दराज के देहातों तक से आए थे। सब की भाषा अलग थी। लहजा अलग था। मैंने उन सभी से गहरी और अंतरंग बात की है। हर एपीसोड की शूटिंग में पूरा दिन लग जाता था। शो के विषयों के अलावा भी उनसे बातें होती थी। उनकी जिंदगी के आइने में मैंने देश को देखा। टीवी पर भले ही बातचीत दो-चार मिनट की दिखाई पड़ती हो, लेकिन वास्तव में हमने घंटे-घंटे भर बात की है। मैं उन्हें तफसील

फिल्‍म समीक्षा : अन्‍हे घोरे दा दान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  ऐसा भी है पंजाब  अन्हे घोरे दा दान (पंजाबी फिल्म) गुरविंदर सिंह निर्देशित अन्हे घोरे दा दान पंजाबी भाषा में बनी फिल्म है। इसका निर्माण नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने किया है। पंजाब के मशहूर साहित्यकार गुरदयाल सिंह की कहानी पर आधारित इस फिल्म में हिंदी फिल्मों में देखे पंजाब के सरसों के खेत और बल्ले-बल्ले करते हुए भांगड़ा में मस्त किरदार नहीं हैं। कुहासे में लिपटी नीरवता उदास करती है। किरदारों की खामोश हरकतों से खीझ होती है। समझ में आता है कि समाज और गांव के हाशिए पर मौजूद किरदार आनी विवशता और लाचारी के गवाह भर हो सकते हैं। उनके अंदर प्रतिरोध है,लेकिन सामाजिक और शासकीय तंत्र के अकुंश ने उन्हें दीन-हीन अवस्था में डाल दिया है। फिल्म में उनकी स्थिति पर विलाप नहीं है। उनकी जिजीविषा और रोजमर्रा जिंदगी की व्यस्तता में ही उनके संषर्ष की दास्तान है। अनहे घोरे का दान दृश्यात्मक फिल्म है। कम संवादों में ही गांव के श्लथ किरदारों के मनाभावों को उकेरने में फिल्म सफल रही है। फिल्म का धूसर रंग नैरेटिव के मर्म को प्रभावशाली तरीके से बढ़ाता है। कलाकारों ने अपने-अपने किरदार