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गायकी और एक्टिंग दोनों में चुनौती है-मोनाली ठाकुर

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-अजय ब्रह्मात्मज अब्बास टायरवाला की निर्माणाधीन फिल्म ‘मैंगो’ की नायिका मोनाली ठाकुर ने गायकी में तेजी से अपना स्थान और नाम बनाया है। उनकी खूबसूरती और प्रतिभा के कायल निर्देशकों ने पहले से ही उन्हें फिल्मों के लिए प्रेरित किया। आखिरकार उन्होंने हां कर दी? इन दिनों वह गोवा में ‘मेंगो’ की शूटिंग कर रही हैं। - कहां की हैं आप? 0 मैं कोलकाता में पैदा हुई। वहीं पली-बढ़ी। छह साल पहले मैं मुंबई आई। - मुंबई आने की योजना कब बनी? 0 इंडियन आयडल में भाग लेने के पहले से मुंबई आने का इरादा बन गया था। मुझे फिल्मों में पाश्र्व गायन करना था। उसके लिए तो मु़ंबई ही आना था। गाने तो कोलकाता में भी गाए जा सकते थे, लेकिन मुझे हिंदी फिल्मों में गाना था। हिंदी फिल्मों में गाने से राष्ट्रीय पहचान मिलती है। - कोलकाता में कहां पढ़ती थीं? 0 मैं फ्यूचर फाउंडेशन स्कूल में पढ़ी हूं। वह पांडिचेरी से जुड़ी संस्था है। कॉलेज की पढ़ाई मैंने सेंट जेवियर्स से की। मैं अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर सकी। मुझे पहले ही कुछ मौके मिल गए और उनके लिए मुझे मुंबई आना पड़ा। कोलकाता के टालीगंज में मेरा घर है। - स्कूल के दिनों में

फिल्म समीक्षा : शिप ऑफ थीसियस

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-अजय ब्रह्मात्‍मज आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' अवांगार्द फिल्म है। उन्होंने जीवन के कुछ पहलुओं को दार्शनिक अंदाज में पेश करने के साथ प्रश्न छोड़ दिया है। यह प्रश्न मनुष्य के जीवन,जीजिविषा और अनुत्तरित प्रसंगों को टच करता है। फिल्मों में कला की अपेक्षा रखने वाले दर्शकों के लिए किरण राव की यह कलात्मक सौगात है। दृश्यबंध और संरचना, शिल्प और मू‌र्त्तन एवं प्रस्तुति में आनंद गांधी हिंदी आर्ट फिल्म निर्देशकों की परंपरा से जुड़ते हैं। उनकी यह साहसिक कोशिश प्रशंसनीय है, क्योंकि फिलहाल हिंदी सिनेमा 'एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट' का पर्याय बन चुका है। आनंद गांधी ने बीच की राह चुनने का प्रयत्न नहीं किया है। अपनी शैली में वे कलाप्रवृत्त हैं। दर्शकों को रिझाने या बहलाने के लिए इस फिल्म में कुछ भी नहीं है। मूलत: तीन कहानियों को एक सूत्र से जोड़ती यह फिल्म मानव की अस्मिता, अस्तित्व और अस्तित्ववादी प्रश्नों से जूझती है। आलिया, मैत्रेय और नवीन की कहानी हम देखते हैं। फिल्म के अंत में पता चलता है कि पात्र तो और भी हैं, जिनकी कहानियां अनसुनी रह गई। नित बदल रहे इस स

फिल्‍म समीक्षा : डी डे

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-अजय ब्रह्मात्‍मज निखिल आडवाणी की 'डी डे' राष्ट्रीय स्वप्न और भारत का पलटवार के तौर पर प्रचारित की गई है। पड़ोसी देश में छिपे एक मोस्ट वांटेड आतंकवादी को जिंदा भारत लाने की एक फंतासी रची गई है। इस फंतासी में चार मुख्य किरदार भारतीय हैं। वे पाकिस्तान के कराची शहर से आतंकवादी इकबाल उर्फ गोल्डमैन को भारत लाने में जिंदगी और भावनाओं की बाजी लगा देते हैं। उनकी चाहत, मोहब्बत और हिम्मत पर फख्र होता है, लेकिन फिल्म के अंतिम दृश्यों में इकबाल के संवादों से जाहिर हो जाता है है कि फिल्म के लेखक-निर्देशक की सोच क्या है? फिल्म की शुरुआत शानदार है, लेकिन राजनीतिक समझ नहीं होने से अंत तक आते-आते फिल्म फिस्स हो जाती है। अमेरिकी एंजेंसियों ने मोस्ट वांटेड ओसामा बिन लादेन को मार गिराया और उसके बाद उस पर एक फिल्म बनी 'जीरो डार्क थर्टी'। भारत के मोस्ट वांटेड का हमें कोई सुराग नहीं मिल पाता, लेकिन हम ने उसे भारत लाने या उस पर पलटवार करने की एक फंतासी बना ली और खुश हो लिए। भारत का मोस्ट वांटेड देश की व‌र्त्तमान हालत पर क्या सोचता है? यह क्लाइमेक्स में सुनाई पड़ता है। निश्चित

दरअसल : टूटते-जुड़ते सपनों की कहानियां

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-अजय ब्रह्मात्मज     पिछले हफ्ते राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘भाग मिल्खा भाग’ आई। उसके एक हफ्ते पहले विक्रमादित्य मोटवाणी की ‘लुटेरा’ आई थी। थोड़ा और पीछे जाएं तो पिछले साल तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ भी है। तीनों फिल्मों में एक जबरदस्त समानता है। तीनों ही फिल्मों में भारतीय समाज के छठे दशक की कहानियां हैं। यह दशक भारतीय इतिहास में नेहरू युग के नाम से भी जाना जाता है। देश की आजादी के साथ अनेक सपने जागे थे और उन सपनों ने लाखों नागरिकों की महत्वाकांक्षाओं को जगा दिया था।  ऐसे ही चंद युवकों में वास्तविक पान सिंह तोमर और मिल्खा सिंह थे तो काल्पनिक वरुण श्रीवास्तव भी था। तीनों को एक कतार में नहीं रख सकते, लेकिन तीनों छठे दशक के प्रतिनिधि चरित्र हैं। संयोग से पहले दो की पृष्ठभूमि में फौज और खेल का मैदान है। हां, तीसरा ठग है, लेकिन वह भी उसी दशक का एक प्रतिनिधि है।     समाज और सिनेमा पर नेहरू युग के प्रभाव पर समाजशास्त्री और चिंतक विमर्श करते रहे हैं। नेहरू ने समाजवादी सोच के साथ देश के उत्थान और विकास की कल्पना की थी। उनकी कल्पनाएं साकार हुईं, लेकिन उनके जीवन काल में ही स्वप्नभंग का

हिंदी टाकीज-2 (1) : मैं ही मैं तो हूं सिनेमा में-विभा रानी

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एक अर्से के बाद हिंदी टाकीज सीरिज फिर से आरंभ हो रहा है। श्रेय गीताश्री को दूंगा। मुझ आलसी को उन्‍होंने कोंच कर जगाया और पिछली सीरिज में छपे सभी संस्‍मरणों को संयोजित करने की हिदायत के साथ खुशखबरी दी कि यह पुस्‍तक के रूप में भी आएगा। तैयारी चल रही है। इस सीरिज की शुरूआत विभा रानी के संस्‍मरण से। विभा रानी ने  एक अलंग अंदाज में सिनेमा के अनुभव और यादों को समेटा है। उनके ब्‍लॉग छम्‍मकछल्‍लो कहिस से उनके लेखन के बारे में जान सकते हें।            अब आप सभी से आग्रह है कि इस सीरिज को जिंदा रखें। अपने सिनेमाई अनुभव शेयर करें। इस सीरिज में सिनेमा से पहली मुलाकात,दोस्‍ती,प्रेम और जीवन संबंध के बारे में बताना है।अपने शहर या कस्‍बे की झांकी दें तो और बेहतर....सिनेमाघर का नाम,टिकट दर,प्रमुख फिल्‍मों का भी उल्‍लेख करें। अपने संस्‍मरण brahmatmaj@gmail.com पर मुझे भेजें। साथ में एक अपनी तस्‍वीर जरूर हो। कुछ और संदर्भित तस्‍वीरें हो तो क्‍या कहना ? -विभा रानी        चौंक गए ना! चौंकिए मत। ध्यान से सुनिए। फिर आप भी कहेंगे कि मैं ही मैं तो हूं सिनेमा में। हिंदुस्तानियों का सिनेमा स

नवाजुद्दीन सिद्दिकी पर खुर्शीद अनवर

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खुर्शीद अनवर दोस्‍त हैं मेरे। उन्‍होंने घोषित रूप से 1985 के बाद फिल्‍में नहीं देखी हैं। उनकी दोस्‍ती मुझ से और संजय चौहान से है। हमारी वजह से वे इस दशक की फिल्‍मों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं। फिल्‍में फिर भी नहीं देखते। वैसे एक फिल्‍म 'लीला' के संवाद लिख चुके हैं। और दबाव डालने पर संजय चौहान की लिखी 'पान सिंह तोमर' देखी थी। पिछले दिनों मैं दिल्‍ली में था। नवाजुद्दीन सिद्दिकी भी आए थे। हम एक साथ डिनर पर गए। रास्‍ते में परिचय कराने के बावजूद तीन मर्तबा खुर्शीद ने नवाज को शाहनवाज नाम सं संबोधित किया। गलती का एहसास होने पर उसने माफी मांगी और वादा किया कि उनकी फिल्‍म देखेंगे। और सिर्फ देखेंगे ही नहीं,उन पर कुछ लिखेंगे। तो प्रस्‍तुत है नवाजुद्दीन सिद्दिकी के बारे में खुर्शीद अनवर के विचार.... ज़माना गुज़रा फिल्में मेरे लिए ख़्वाब हुई। नाता रहा तो फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद दोस्तों से. अजय ब्रह्मात्मज और संजय चौहान जो मेरे दोस्त, रिश्तेदार, सब हैं। हाँ, फ़िल्मी गीत संगीत से नाता बना रहा। बस ज़ायके में ज़रा बदमज़गी का एहसास ज़रूर रहा जब नया दौर आया फ़िल्मी संगीत का। पर संस

मीना कुमारी : एक स्थगित आत्मस्वीकृति

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प्रियंवद का यह लेख पाखी में छपा था। चवन्‍नी के पाठकों के लिए यहां पोस्‍ट कर रहा हूं।मीना कुमारी को थोड़े अलग तरीके से देखा है उन्‍होंने।  -प्रियंवद एक स्थगित आत्मस्वीकृति बी. ए. में अंग्रेजी साहित्य पढ़ते हुए तीन या चार साल बड़ी और बेहद सुंदर अध्यापिका ने प्रेम के विभिन्न स्तरों को व्यक्त करने वाले तीन शब्दों का महीन फर्क और सर्तक प्रयोग सिखाया था। ‘लव’, ‘डोट’ और ‘एडोर’। जीवन में ‘एडोर’ का प्रयोग अब तक एक ही बार किया था। संभवतः सत्तर के दशक के शुरुआती सालों के दिन थे। हमारे हाथ एक नया एल.पी. (बड़ा रिकार्ड) लगा था, ‘आइ राइट आइ रिसाइट’। इसमें मीना कुमारी की गजलें और नज्में उनकी अपनी ही आवाज में थीं। इसे सुनने की तैयारी की गई। तैयारी मामूली नहीं थी। न ही उत्तेजना और उत्सुकता। रिकार्ड प्लेयर का इंतजाम किया गया। रात गिरने तक सारे काम खत्म कर लिए गए थे। एक छोटे कमरे की बाहर की तीन सीढि़यों पर हम बैठे थे। मैं, मित्र और उसकी तीन बहनें। बारिश खत्म ही हुई थी। नींबू के पेड़ की गंध अभी बची हुई थी। हममें से कुछ सीढि़यों पर थे, क

प्राण के बहाने लाहौर भी याद करें

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-अजय ब्रह्मात्मज प्राण  (जन्‍मतिथि- 12 फरवरी 1920-पुण्‍यतिथि 12 जुलाई 2013) प्राण ने लाहौर में बनी पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ (1940) में पहली बार अभिनय किया था। देश विभाजन के बाद भारत में रह जाने के पहले तक प्राण ने लाहौर में बनी 20 से अधिक फिल्मों में काम किया। पिछले दिनों सुप्रसिद्ध गायिका शमशाद बेगम का निधन हुआ। उनकी भी शुरुआत लाहौर में हुई थी। आजादी के पहले लाहौर उत्तर भारत में फिल्म निर्माण का प्रमुख केन्द्र था। विभाजन के बाद यहां पाकिस्तान में बनी पंजाबी और उर्दू फिल्मों का निर्माण होता रहा, लेकिन आजादी के पहले की गहमागहमी नदारद हो गई। ज्यादातर हिंदू फिल्मकार, कलाकार और तकनीशियन ने मुंबई में आकर शरण ली। कुछ मुस्लिम फनकार मुंबई से पाकिस्तान चले गए।     विभाजन के बाद पाकिस्तान में फिल्म इंडस्ट्री बहुत कामयाब नहीं रही। फिल्में बननी कम हो गईं, जो बनी भी उनकी क्वालिटी और कंटेंट ने पाकिस्तानी दर्शकों को भी नहीं रिझाया। 1965 तक भारत में बनी हिंदी फिल्में ही पाकिस्तानी दर्शकों को भाती रहीं। उन्हें ही वे अपने थिएटरों में देखते रहे। 1965 में पाबंदी लगने के बाद वीडियो पायरेसी के जरिए हिंद

फिल्‍म समीक्षा : भाग मिल्‍खा भाग

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  नेहरु युग का युवक  दर्शकों को लुभाने और थिएटर में लाने का दबाव इतना बढ़ गया है कि अधिकांश फिल्म अपनी फिल्म से अधिक उसके लुक, पोस्टर और प्रोमो पर ध्यान देने लगी हैं। इस ध्यान में निहित वह झांसा होता है, जो ओपनिंग और वीकएंड कलेक्शन केलिए दर्शकों को थिएटरों में खींचता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा पर भी दबाव रहा होगा,लेकिन अपनी पीढ़ी के एक ईमानदार फिल्म मेकर के तौर पर उन्होंने लुक से लेकर फिल्म तक ईमानदार सादगी बरती है। स्पष्ट है कि यह फिल्म मिल्खा सिंह की आत्मकथा या जीवनी नहीं है। यह उस जोश और संकल्प की कहानी है, जो कड़ी मेहनत, इच्छा शक्ति और समर्पण से पूर्ण होती है। 'भाग मिल्खा भाग' प्रेरक फिल्म है। इसे सभी उम्र के दर्शक देखें और अपने अंदर के मिल्खा को जगाएं। मिल्खा सिंह को हम फ्लाइंग सिख के नाम से भी जानते हैं। उन्हें यह नाम पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने दिया था। किस्सा यह है कि बंटवारे के बाद के कलुष को धोने के साथ प्रेम और सौहा‌र्द्र बढ़ाने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू और अयूब खान ने दोनों देशों के बीच खेल स्पर्धा का आयोजन किया था। अत

दरअसल... धनुष की टंकार

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-अजय ब्रह्मात्मज     आनंद राय की ‘रांझणा’ प्रदर्शित होने के पहले से साउथ के स्टार धनुष के आने की टंकार सुनाई पड़ रही थी। एक तो ‘कोलावरी डी’ ने उन्हें अप्रत्याशित लोकप्रियता दे द थी और दूसरे वे दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत के दामाद हैं। हिंदी फिल्मों के दर्शकों को यह तो एहसास हो गया था कि धनुष दक्षिण के पापुलर स्टार हैं, लेकिन रजनीकांत और कमल हासन के बरक्श वे उनका स्टारडम आज भी नहीं समझते। हम बताते चलें कि धनुष को अपने छोटे से करिअर में एक्टिंग के लिए नेशनल अवार्ड और फिल्मफेअर अवार्ड मिल चुके हैं। आनंद राय की ‘रांझणा’ हिंदी में उनकी पहली फिल्म है, लेकिन तमिल में वे पहले से एक सिद्धहस्त कलाकार की जिंदगी जी रहे हैं।     ‘रांझणा’ आई और धनुष की टंकार एक बार फिर हिंदी दर्शकों ने अपने कानों से सुनी। उन्होंने बड़े पर्दे पर धनुष को तमिल लहजे में हिंदी बोलते सुना और प्यार किया। उन्हें ‘रांझणा’ का कुंदन भा गया। अंग्रेजी प्रेस में शहरी लेखक कुंदन के चरित्र को लेकर ‘रांझणा’ का छीछालेदर कर रहे हैं। सचमुच, हम अपने ही देश की सच्चाइयों और स्थितियों से कितने अनजान हो गए हैं। 21वीं सदी के 2012 से ह