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फिल्‍म समीक्षा : लक्ष्‍मी

नागेश कुकुनूर 'हैदराबाद ब्लूज' से दस्तक देने के बाद लगातार खास किस्म की फिल्म निर्देशित करते रहे हैं। बजट में छोटी, मगर विचार में बड़ी उनकी फिल्में हमेशा झकझोरती हैं। 'इकबाल' और 'डोर' जैसी फिल्में दे चुके नागेश कुकुनुर के पास अब अनुभव, संसाधन और स्रोत हैं, लेकिन फिल्म मेकिंग के अपने तरीके में वे गुणवत्ता लाने की कोशिश नहीं करते। 'लक्ष्मी' फिल्म का विचार उत्तम और जरूरी है, लेकिन इसकी प्रस्तुति और निर्माण की लापरवाही निराश करती है। चौदह साल की 'लक्ष्मी' को उसके गांव-परिवार से लाकर अन्य लड़कियों के साथ शहर में रखा जाता है। रेड्डी बंधु अपने एनजीओ 'धर्मविलास' की आड़ में कमसिन और लाचार लड़कियों की जिस्मफरोशी करते हैं। लक्ष्मी भी उनके चंगुल में फंस जाती है। फिर भी मुक्त होने की उसकी छटपटाहट और जिजीविषा प्रभावित करती है। वह किसी प्रकार उनके चंगुल से बाहर निकलती है। बाहर निकलने के बाद वह रेड्डी बंधु को उनके अपराधों की सजा दिलवाने के लिए भरे कोर्ट में फिर से लांछन और अपमान सहती है। 'लक्ष्मी' एक लड़की की हिम्मत और जोश की कहान

अलग मजा है एक्टिंग में-संजय मिश्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज     संजय मिश्रा से राजस्थान के मांडवा में मुलाकात हो गई। वे वहां डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘जेड प्लस’ की शूटिंग के लि सीधे हरिद्वार से आए थे। हरिद्वार में वे यशराज फिल्म्स और मनीष शर्मा की फिल्म ‘दम लगा कर हइसा’ की शूटिंग कर रहे थे। एक अंतराल के बाद संजय मिश्रा फिर से सक्रिय हुए हैं। उन्होंने एक्टिंग पर ध्यान देना शुरु किया है। सुभाष कपूर की ‘फंस गए रे ओबामा’ की कामयाबी के बाद उनके पास अनगिनत फिल्मों के ऑफर ो। उन सभी को किनारे कर वे डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने ‘प्रणाम वालेकुम’ नाम की अनोखी फिल्म का निर्देशन किया। यह फिल्म अभी प्रदर्शन के इंतजार में है। फिलहाल उनकी फिल्म ‘आंखें देखी’ रिलीज हो रही है। इसका निर्देशन रजत कपूर कर रहे हैं।     डॉ द्विवेदी की ‘जेड प्लस’ में छोटी भूमिका के लिए राजी हो की वजह उन्होंने खुद ही बतायी कि मुंबई आने के बाद सबसे पहले डॉ द्विवेदी के ही सीरियल ‘चाण्क्य’ में पहली बार कैमरे के सामने आने का मौका मिला था। डॉ द्विवेदी ने पिछली फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ के लिए भी मुझे बुलाया था,लेकिन व्यस्तताओं की वह से उसे मैं नहीं कर सका था

दरअसल : छपनी चाहिए स्क्रिप्ट

-अजय ब्रह्मात्मज देश भर से परिचित लेखकों और मित्रों की फिल्मी लेखक बनने की जिज्ञासाएं मिलती रहती हैं। सुदूर इलाकों में बैठे महत्वाकांक्षी लेखक मेल, फोन और सोशल मीडिया के जरिए यह जानने की चाहत रखते हैं कि कैसे उनकी कहानियों पर फिल्में बन सकती हैं। इस देश में हर व्यक्ति के पास दो-तीन कहानियां तो होती ही हैं, जिन्हें वह पर्दे पर लाना चाहता है। अगर लिखना आता है और पत्र-पत्रिकाओं में कुछ रचनाएं छप गई हों तो उन्हें यह प्रवेश और आसान लगता है। ज्यादातर लोग एक कनेक्शन की तलाश में रहते हैं। उस कनेक्शन के जरिए वे अपनी कहानी निर्देशक-निर्माता या स्टार तक पहुंचाना चाहते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। प्रतिभा है तो अवसर मिलना चाहिए। मैंने कई बार मदद की करने की कोशिश में पाया कि अधिकांश लेखकों के पास फिल्म लेखन का संस्कार नहीं होता। किसी भी पॉपुलर फिल्म को देखने के बाद वे उसी ढर्रे पर कुछ किरदारों को जोड़ लेते हैं और एक नकल पेश करते हैं। जिनके पास मौलिक कहानियां व विचार हैं, वे भी उन्हें स्क्रिप्ट में नहीं बदल पाते। दरअसल फिल्म लेखन एक क्राफ्ट है और यह क्रिएटिव लेखन से बिल्कुल अलग है।     स्क्रिप्ट

द पावरफुल देओल

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चवन्‍नी के पाब्‍कों के लिए इसे रधुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से साधिकार लिया गया है। सनी देओल जब पर्दे पर गुस्से से आग बबूले नजर आते हैं, तो दर्शक सीटियां और तालियां बजाते हैं और निर्माता खुशी से फूले नहीं समाते हैं. बॉक्स-ऑफिस के इस चहेते देओल से रघुवेन्द्र सिंह ने की मुलाकात  सनी देओल सालों से सफलता-असफलता की आंख मिचौली का खेल खेलते आ रहे हैं, इसलिए उनकी फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर हो या हिट, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट बनी रहती है. उनका जादू दर्शकों पर बरकरार है. इसका ताजा उदाहरण है सिंह साब द ग्रेट. मगर निजी जीवन में वह सीधे-सादे और शर्मीले हैं. उनके अंदर एक बच्चा भी मौजूद है, जो शैतानियां करता रहता है. उन्होंने फिल्मफेयर को जुहू स्थित अपने ऑफिस सनी सुपर साउंड में आमंत्रित किया. जब हम पहुंचे, तो वह बैठकर समोसे और केक खा रहे थे. हमें ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि देओल्स तो खाने-पीने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अभी-अभी अपने ऑफिस की एक स्टाफ का बर्थडे सेलिब्रेट किया. आज हमें पता चला कि उन्हें चेहरे पर केक लगाने का शौक है. इस तरह के मौके पर वह एक केक खास तौर से

द क्वीन मेकर विकास बहल

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स से साधिकार  रिस्क लेना विकास बहल की पसंदीदा आदत है और आज उनकी यही क्वालिटी उन्हें फिल्ममेकिंग में लेकर आई है. अपने रोचक सफर को वर्तमान पीढ़ी के यह फिल्मकार रघुवेन्द्र सिंह से साझा कर रहे हैं  मुंबई शहर की आगोश में आने को अनगिनत लोग तड़पते हैं, मगर यह खुद चंद खुशकिस्मत लोगों को अपनी जमीं पर लाने को मचलता है. विकास बहल ऐसा ही एक रौशन नाम हैं. यह शहर उनके सफर और सपनों का हिस्सा कभी नहीं था, लेकिन आज यह उनकी मंजिल बन चुका है. अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवानी और मधु मंटेना जैसे तीन होनहार दोस्त मिले, तो उन्हें अपने ख्वाबों का एहसास हुआ. यूटीवी जैसे स्थापित कॉरपोरेट हाउस में अनपेक्षित आय वाली नौकरी को छोडक़र उन्होंने इन दोस्तों के साथ मिलकर फैंटम नाम की फिल्म प्रोडक्शन कंपनी की नींव रखी. जिसका लक्ष्य गुणवत्तापूर्ण मनोरंजक फिल्मों का निर्माण करना है. खुशमिजाज, सकारात्मक सोच एवं ऊर्जा से भरपूर विकास ने निर्देशन की ओर पहला कदम बढ़ाया और चिल्लर पार्टी जैसी एक प्यारी-सी फिल्म दर्शकों के बीच आई. अब अपनी दूसरी पिक

दरअसल : सितारे झेलते हैं बदतमीजी

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-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों के सितारों की लोकप्रियता असंदिग्ध है। मनोरंजन के सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम फिलम से संबंधित होने के कारण पहली फिल्म से ही उनके प्रशंसकों का दायरा बढऩे लगता है। अगर सितारा कामयाब होने के साथ दर्शकों को प्रिय है तो उसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक स्थानों पर उनकी मौजूदगी मात्र से हलचल होने लगती है। उनके पहुंचने के पहले ही उनके गंतव्य स्थान पर सरसराहट सी होने लगती है। सरकारी लाल बत्तियों और प्रशासनिक सुरक्षा में विचरण करने वाले नेताओ,मंत्रियों और आला अधिकारियों से अलग सितारों के मूवमेंट का असर होता है। महानगरों और बड़े शहरों तक में उनकी उपस्थिति से किसी भी स्थान की दशा बदल जाती है। वे भीड़ में भंवर बन जाते हैं। सारा हुजूम उनकी तरफ धंस रहा होता है। हवाई अड्डा,रेस्तरां,स्टेडियम आदि स्थानों पर सुरक्षा कवच में होने के बावजूद उन्हें धक्कामुक्की झेलनी पड़ती है। किसी भी स्थान पर उनके होने या वहां से गुजरने पर दसों दिशाओं की आंखें उन पर केंद्रित हो जाती हैं। वे सभी को सुकून देते हैं। उनकी छवि आंखों में समाते ही होंठों पर मुस्कान आती है।

वक्‍त क्षणभंगुर है-अमित कुमार

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यह इंटरव्यू गजेन्‍द्र सिंह भाटी के ब्‍लाॅग फिलम सिनेमा से लिया गया है।   Q & A . . Amit Kumar , film director (Monsoon Shootout) . Nawazuddin Siddiqui in a still from 'Monsoon Shootout.' उनकी ‘ द बाइपास ’ काफी वक्त पहले देखी। दो चीजों ने ध्यान आकर्षित किया। पहला , इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी को एक साथ किसी फ़िल्म में कांटेदार अभिनय करते देखना। दूसरा , बिना किसी शब्द के तकरीबन सोलह मिनट की इस फ़िल्म को बनाने वाले किसी अमित कुमार के निर्देशन और नजरिए को लेकर जागी जिज्ञासा। उनके बारे में ढूंढा , पर वे गायब थे। फिर उनके नए प्रोजेक्ट के बारे में सुना... ‘ मॉनसून शूटआउट ’ । इसमें भी प्रमुख भूमिका में नवाज थे। उनसे बात करनी थी , संपर्क किया और कुछ महीनों के इंतजार के बाद कुछ महीने पहले उनसे बात हुई। बेहद अच्छे मिजाज के अमित भारत में जन्मे और अफ्रीका में पले-बढ़े। पढ़ाई के बाद कई बड़ी होटलों , बैंकों और अमेरिकन एक्सप्रेस जैसे बहुराष्ट्रीय समूह में नौकरी की। पर रुचि शुरू से फ़िल्मों  में थी। पैरिस के एक फेमिस फ़िल्म स