दरअसल : छपनी चाहिए स्क्रिप्ट



-अजय ब्रह्मात्मज
देश भर से परिचित लेखकों और मित्रों की फिल्मी लेखक बनने की जिज्ञासाएं मिलती रहती हैं। सुदूर इलाकों में बैठे महत्वाकांक्षी लेखक मेल, फोन और सोशल मीडिया के जरिए यह जानने की चाहत रखते हैं कि कैसे उनकी कहानियों पर फिल्में बन सकती हैं। इस देश में हर व्यक्ति के पास दो-तीन कहानियां तो होती ही हैं, जिन्हें वह पर्दे पर लाना चाहता है। अगर लिखना आता है और पत्र-पत्रिकाओं में कुछ रचनाएं छप गई हों तो उन्हें यह प्रवेश और आसान लगता है। ज्यादातर लोग एक कनेक्शन की तलाश में रहते हैं। उस कनेक्शन के जरिए वे अपनी कहानी निर्देशक-निर्माता या स्टार तक पहुंचाना चाहते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। प्रतिभा है तो अवसर मिलना चाहिए। मैंने कई बार मदद की करने की कोशिश में पाया कि अधिकांश लेखकों के पास फिल्म लेखन का संस्कार नहीं होता। किसी भी पॉपुलर फिल्म को देखने के बाद वे उसी ढर्रे पर कुछ किरदारों को जोड़ लेते हैं और एक नकल पेश करते हैं। जिनके पास मौलिक कहानियां व विचार हैं, वे भी उन्हें स्क्रिप्ट में नहीं बदल पाते। दरअसल फिल्म लेखन एक क्राफ्ट है और यह क्रिएटिव लेखन से बिल्कुल अलग है।
    स्क्रिप्ट लेखन पर बहुत कम किताबें आईं हैं। कुछ विदेशी लेखकों की किताबों को पाठ की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जबकि हिंदी फिल्मों का लेखन विदेशी फिल्मों के लेखन से बिल्कुल अलग है। हिंदी फिल्मों में स्क्रिप्ट का थ्री एक्ट फॉर्मूला नहीं चलता। हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता उसका इंटरवल है। कहानी यूं बुनी जाती है कि इंटरवल के पहले और बाद में दर्शकों की रुचि बनी रहे। स्क्रिप्ट लेखन का भारतीय संदर्भ पृथक होता है। उसमें नाच-गाने(आजकल आइटम), मार-पीट और बाकी सभी इमोशन की गुंजाइश रखनी पड़ती है। इस लिहाज से देश के हर शहर में खुल चुके मीडिया स्कूल भी इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत है कि हिंदी फिल्मों के साक्ष्य के आधार पर स्क्रिप्ट लेखन का प्रशिक्षण दिया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक हिंदी फिल्में ही शिक्षक का काम कर सकती हैं। कुछ दशक पहले तक हिंदी के लोकप्रिय प्रकाशक हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट का पॉकेट बुक संस्करण निकाला करते थे। बताते हैं कि इनकी खपत अच्छी होती थी।
    इधर हिंदी फिल्मों में विदेशी फिल्म रसिकों और शोधार्थियों की अभिरुचि देखकर क्लासिक और क्लट फिल्मों की स्क्रिप्ट छापने का सिलसिला आरंभ हुआ है। इसके तहत फिल्मों की स्क्रिप्ट फिल्म देखकर तैयार की जाती है। विदेशी पाठकों की सुविधा के लिए हिंदी संवादों को रोमन हिंदी और अंग्रेजी में भी लिखा जाता है। कुछेक स्क्रिप्ट में तो उर्दू में भी संवाद लिखे गए। नसरीन मुन्नी कबीर, दिनेश रहेजा और कुछ अन्य फिल्म इतिहासकार व लेखक यह महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। इन लेखकों का काम मुख्य रूप से अंग्रेजी में आ रहा है। चूंकि हिंदी में दस्तावेजीकरण को कभी महत्व नहीं दिया गया। इसलिए अधिकांश फिल्मों की मूल पटकथा नहीं मिलती। अगर फिल्मों की शूटिंग स्क्रिप्ट मिले तो नए लेखकों को जरूरी फायदा हो। इस  कमी के बावजूद फिल्मों की स्क्रिप्ट को किताबों के रूप में लाने के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। इन किताबों के अध्ययन से दूर-दराज इलाकों में बैठे अनगिनत लेखकों को फायदा हो सकता है।
    अगर हिंदी के प्रकाशक और संस्थान हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट की किताबें लाने के बारे में सोचें तो यह उनके लिए व्यवसाय का अच्छा समीकरण हो सकता है। साथ ही किताबों के रूप में आई स्क्रिप्ट से सभी लाभ उठा सकते हैं। यह बहुत महंगा और जोखिम का काम नहीं है। जरूरत है इच्छाशक्ति और ध्येय की।

Comments

manshes said…
बिलकुल सही बात है अजय सर,पिछले साल मैंने दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में लगभग सभी पुस्तक प्रकाशकों के स्टाल पर जाकर पटकथा और फिल्म निर्माण से सम्बंधित पुस्तक के बारे में पड़ताल की थी...लेकिन दुःख की बात कि राजकमल प्रकाशन और एक अंग्रेजी प्रकाशन के अलावा किसी के पास कोई किताब है ही नहीं....
पटकथा लेखन के लिए मनोहर श्याम जोशी की किताब लेकर आया था..लेकिन वो भी आज के ज़माने की फिल्म निर्माण तकनीक और तरीके से बहुत पुरानी है....कोई नै किताब ज़रूर ले आनी चाहिए...
बहुत महत्वपुर्ण बात। धन्यवाद
बहुत महत्वपुर्ण बात। धन्यवाद

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